(नरेश कौशिक)
जयपुर, तीन फरवरी (भाषा ) उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने शीर्ष अदालत में विशेष अनुमति याचिकाओं की बढ़ती संख्या पर चिंता जताते हुए शनिवार को कहा कि स्थिति बदतर होती जा रही है। उन्होंने दावा किया कि उच्च न्यायालय ऐसी याचिकाओं को दायर करने के लिए प्रमाणपत्र जारी करने को लेकर संवैधानिक प्रावधानों का पूरी तरह से पालन नहीं कर रहे हैं।
यहां जयपुर साहित्य महोत्सव (जेएलएफ) में एक सत्र में शिरकत के दौरान उन्होंने यह भी कहा कि उच्चतम न्यायालय ने 2015-16 में विशेष अनुमति याचिकाओं (एसएलपी)पर दिशानिर्देश तैयार करने का एक ‘अच्छा अवसर’ गंवा दिया, क्योंकि उसने इस संबंध में एक याचिका खारिज कर दी थी।
‘जस्टिस: द वॉइस ऑफ द वॉयसलेस’ शीर्षक से आयोजित इस सत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संबंध, न्यायपालिका में लैंगिक समानता, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के इस्तेमाल और सोशल मीडिया के दौर में न्यायपालिका की सार्वजनिक आलोचना समेत विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की गई। इस सत्र में ओडिशा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने भी भाग लिया।
दिसंबर, 2018 में उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत हुए न्यायाधीश लोकुर ने कहा कि बड़ी संख्या में एसएलपी के प्रतिगामी परिणाम भी हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है और स्थिति बद से बदतर हो रही है।
उन्होंने कहा कि 2015-16 में एसएलपी पर दिशा निर्देश तय करने के लिए उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, लेकिन शीर्ष अदालत ने उस समय ऐसा करने से इनकार कर दिया था। साथ ही कहा कि वह एक अच्छा अवसर था जिसे उच्चतम न्यायालय ने गंवा दिया।
उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालयों द्वारा एसएलपी अनुमति प्रमाण पत्र देने के संबंध में उचित संवैधानिक प्रावधान हैं, लेकिन इनका ठीक तरीके से पालन नहीं किया जाता है।
शीर्ष अदालत में मामलों को संवैधानिक पीठों को आवंटित किए जाने में निष्पक्षता बरते जाने पर जोर देते हुए न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा कि ‘इस संबंध में शक्ति का इस्तेमाल निष्पक्ष तरीके से होना चाहिए’। साथ ही कहा कि कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए और कोई मामला किसी विशेष न्यायाधीश को नहीं सौंपा जाना चाहिए।
न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिए जाने के मुद्दे पर न्यायमूर्ति लोकुर ने न्यायमूर्ति लीला सेठ का जिक्र करते हुए कहा कि वह एक प्रतिभाशाली न्यायविद् थीं, लेकिन उन्हें उच्चतम न्यायालय में नियुक्त नहीं किया गया। इस पर न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि लैंगिक पूर्वाग्रहों से परे जाकर सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए पुरुष जजों को संवेदनशील बनाए जाने की जरूरत है।
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने उच्चतम न्यायालय की हाल ही में मनाई गई 75वीं वर्षगांठ का जिक्र करते हुए कहा कि दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली अदालत के रूप में देखे जाने वाले देश के उच्चतम न्यायालय ने लोगों के मौलिक अधिकारों, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों, अल्पसंख्यकों और कैदियों के अधिकारों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
उन्होंने कहा कि न्याय में जनता का भरोसा कायम करने के लिए जहां उच्चतम न्यायालय की भूमिका की सराहना हुई है, तो वहीं उसे कुछ फैसलों को लेकर जनता की आलोचना का भी सामना करना पड़ा है। यह चाहे सबरीमला मामला हो, समलैंगिक विवाहों का मसला हो या फिर पीएमएलए (प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट)को लेकर हाल ही में दिया गया निर्णय हो।
शीर्ष न्यायालय ने पीएमएलए के कई प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इस कानून के तहत प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को संपत्ति को अटैच करने, आरोपी की गिरफ्तारी, तलाशी और अवैध संपत्ति को कुर्क करने का अधिकार है।
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि वास्तविकता यह है कि आज पूरी न्यायपालिका जनता की जांच के दायरे में है।
उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया न्यायपालिका को लेकर जनता की हताशा को प्रदर्शित करता है, ‘मास मीडिया’ न्यायपालिका के कार्य प्रदर्शन पर बहस करता है।
उन्होंने इसे स्वाभाविक बताते हुए कहा कि तेजी से बदलती प्रौद्योगिकी के युग में न्यायपालिका से जनता की उम्मीदें बढ़ी हैं।
न्यायपालिका में एआई के इस्तेमाल पर न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि निश्चित रूप से इससे अदालतों पर काम का बोझ कम करने, मामलों के प्रबंधन, उचित निपटान आदि में मदद मिलेगी। लेकिन निजता के अधिकार तथा संवेदनशील सूचनाओं को तकनीक और एआई के हाथों में पड़ने से बचाने की जरूरत है और इसके लिए तंत्र विकसित किया जाना चाहिए।
साथ ही उन्होंने कहा कि एआई विधि क्षेत्र में फैसला देने का अधिकार हासिल नहीं कर सकता।
‘कोर्ट ऑन ट्रायल: ए डेटा-ड्रिवेन अकाउंट ऑफ द सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया’ पुस्तक की सह-लेखिका सीतल कलांतरी और अपर्णा चंद्रा ने भी सत्र में भाग लिया।
भाषा नरेश पवनेश
पवनेश
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