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Monday, 23 December, 2024
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हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, जो हमेशा कांग्रेस आलाकमान पर भारी पड़े

छह बार मुख्यमंत्री, नौ बार विधायक और पांच बार सांसद रहने वाले हिमाचल प्रदेश के सबसे बड़े कांग्रेस नेता 87 वर्षीय वीरभद्र सिंह का गुरुवार को कोविड के बाद स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं के कारण निधन हो गया.

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नई दिल्ली: 2014 में सर्दियों की एक सुबह हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस के एक संवाददाता को इंटरव्यू देने के लिए अपने लुटियंस दिल्ली स्थित आवास में नाश्ते पर बुलाया. इंटरव्यू अच्छा-खासा चल रहा था कि मुख्यमंत्री एकदम से बिफर पड़े, ‘आपको वह स्टोरी करने के लिए शिमला किसने भेजा था? मुझे पता है कि वो कौन है लेकिन तुम मुझे बताओ.’

कुछ हफ्ते पहले संवाददाता ने एक स्टोरी लिखी थी जिसका शीर्षक था, ‘वीरभद्र के करोड़ों रुपये के सेब स्कूटर और तेल टैंकर से भेजे गए, आईटी जांच में खुलासा.’

आयकर विभाग तीन साल में 6.56 करोड़ रुपये की कृषि आय होने के वीरभद्र के दावों की जांच कर रहा था और उन सेबों के लिए परिवहन साधन के तौर पर इस्तेमाल वाहनों के पंजीकृत नंबर स्कूटरों और एक तेल टैंकर के निकले थे.

संवाददाता ने तर्क दिया, ‘मैं शिमला में छुट्टी पर था जब यह बात मेरी जानकारी में आई. आप विशुद्ध पत्रकारिता से जुड़े काम के पीछे कोई निहित उद्देश्य होने की बात कैसे कह सकते हैं.’

तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा, ‘झूठ मत बोलो. यह अनुराग (बीजेपी के अनुराग ठाकुर) का काम होना चाहिए.’ उनका स्वर तेज और तीखा हो गया था.

संवाददाता ने वहां से जाने के लिए उठते हुए कहा, ‘आप मेरी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा सकते. यदि आपको इसके पीछे कोई साजिश नजर आती है, तो यह आपकी समस्या है. इस पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है.’

वीरभद्र सिंह ने गुस्से में लगभग कांपते हुए कहा. ‘ठीक है, आप जा सकते हैं. लेकिन इस इंटरव्यू के मेरे किसी भी शब्द का इस्तेमाल न करें. मैंने आपको कोई इंटरव्यू नहीं दिया है.’

वीरभद्र के साथ यह मेरी आमने-सामने की आखिरी बातचीत थी, जिनका गुरुवार सुबह कोविड के बाद की स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं के कारण निधन हो गया. वह 87 वर्ष के थे.

वो मुलाकात भले ही बुरी तरह बिगड़ गई हो, लेकिन वह वो वीरभद्र सिंह नहीं थे, जिसके बारे में हिमाचल प्रदेश के लोग जानते हैं. उनकी छवि एक सज्जन व्यक्ति की थी और वह सामूहिक स्तर पर अपने व्यक्तिगत जुड़ाव के लिए जाने जाते थे और यह उनके राजनीतिक प्रोफाइल में भी साफ झलकता है- वह छह बार मुख्यमंत्री, नौ बार विधायक और पांच बार सांसद रहे.

उस मुलाकात के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने शिमला में कुछ पत्रकारों के सामने इस पर रोना भी रोया था, ‘उसने मेरे खिलाफ लिखा, जबकि मैं उसे आशीर्वाद भी देने गया था जब उसकी यहां शादी हुई थी.’

ऐसा ही कुछ मुझे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत से भी सुनना पड़ा था, जब हिंदुस्तान टाइम्स में मेरी रिपोर्ट छपी थी कि कैसे तत्कालीन उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को ‘खून में तौला’ गया (रक्तदान शिविर में).

वीरभद्र सिंह और शेखावत की पीढ़ी के राजनेता दरअसल व्यक्तिगत संबंधों को बहुत अहमियत देते थे, जो ईमानदारी से अपना काम कर रहे पत्रकारों के साथ तो मेल नहीं खाता था लेकिन लोगों को वास्तव में यह सब खूब भाता था. यही सब उन्हें जननेता बनाता था. और इसी बात ने वीरभद्र सिंह को लेकर कांग्रेस आलाकमान को परेशान कर रखा था.

जैसा कि कुछ साल पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार ने एक अलग संदर्भ में कहा था, वह ऐसे व्यक्ति हैं जो ‘दिल्ली दरबार के आगे झुकेंगे नहीं.’


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कांग्रेस आलाकमान के साथ तनातनी

1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सुखराम को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे और उन्होंने कांग्रेस के निर्वाचित विधायकों से बात करने के लिए पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को केंद्रीय पर्यवेक्षक के तौर पर शिमला भेजा.

देर रात तक चली बैठक के बाद बेअंत सिंह ने कहा कि मुख्यमंत्री पर फैसले की घोषणा बाद में दिल्ली में की जाएगी. इस पर वीरभद्र सिंह ने बेअंत सिंह से कहा, ‘सरदार जी, फैसला यहीं करके जाओ. फैसला आलाकमान नहीं करेगा.’ बाद में उनके आगे कांग्रेस आलाकमान को झुकना पड़ा.

हिमाचल की तत्कालीन बुशहर रियासत के वंशज वीरभद्र सिंह राज्य के सबसे बड़े कांग्रेसी नेता थे. लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें हमेशा कांग्रेस आलाकमान से लड़ना पड़ता था.

इंदिरा गांधी जैसी शक्ल-सूरत वाली विद्या स्टोक्स ने 2003 में सोनिया गांधी की पसंद होने का इस्तेमाल मुख्यमंत्री बनने के लिए करना चाहा. लेकिन जब वह मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पर सोनिया गांधी का समर्थन हासिल करने दिल्ली पहुंची तो अपना साथ देने के लिए सिर्फ चार विधायकों को ही जुटा पाईं. कांग्रेस आलाकमान को एक बार फिर पीछे हटना पड़ा.

अपने स्तर पर पूरी तैयारी के बाद वीरभद्र सिंह ने हिमाचल प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने और 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग की. लेकिन सोनिया गांधी एक नए चेहरे को लाने के अपने फैसले पर अडिग रहीं. वीरभद्र सिंह उस समय कमजोर नजर आए.

उसी वर्ष जून में भ्रष्टाचार के एक मामले में आरोपित होने के बाद उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था. बहरहाल, वीरभद्र सिंह दिल्ली दरबार के आगे झुकने वाले नहीं थे. जल्द ही यह बात फैल गई कि एनसीपी प्रमुख शरद पवार के आवास पर पार्टी में वीरभद्र सिंह के स्वागत के लिए टेंट लग गए हैं.

कांग्रेस आलाकमान ने तुरंत अपना रुख नरम किया और एक दूत उनके पास भेजा. उन्हें जल्द ही राज्य कांग्रेस प्रमुख नियुक्त किया गया और उन्होंने कुछ महीनों बाद चुनाव में पार्टी को जीत भी दिलाई.

कांग्रेस आलाकमान के साथ अपनी तकरार चलते रहने के बावजूद वीरभद्र सिंह हमेशा पार्टी के प्रति वफादार रहे. वे अक्सर कहते हैं, ‘मैं कांग्रेस के लिए पैदा हुआ था और मरते दम तक कांग्रेस का रहूंगा.’

हिमाचल प्रदेश में लोग अक्सर ही पहाड़ी राज्य में बुनियादी ढांचे के विकास- सड़क, अस्पताल, स्कूल, हर गांव में बिजली आदि- में उनके योगदान को याद करते हैं. लेकिन जैसा कि पार्टी में वीरभद्र सिंह के सहयोगी कहते हैं, उन्हें अपने ‘राजा साहब’ के बारे में जो बात सबसे ज्यादा याद रहेगी वह है लोगों के साथ उनका ‘व्यक्तिगत जुड़ाव.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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