नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पीठ ने पिछले सप्ताह अपने परिवारों और पुलिस उत्पीड़न से सुरक्षा की मांग करने वाले अंतरधार्मिक जोड़ों की 17 याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि विशेष विवाह अधिनियम (स्पेशल मैरिज एक्ट -एसएमए) वर्तमान समाज के बदलते रवैये, जरूरतों और अपेक्षाओं को न तो मानता है न ही उनकी पूर्ति करता है.
उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021 का उल्लेख करते हुए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह भी माना कि ‘वैध धर्मान्तरण’ के प्रमाण पत्र की अनुपस्थिति का उपयोग ऐसे विवाह को पंजीकृत नहीं करने के लिए एक बहाने के रूप में नहीं किया जा सकता है.
हालांकि सिविल मैरिज को मान्यता प्रदान करने वाले इस कानून (स्पेशल मैरिज एक्ट) को एक धर्मनिरपेक्ष अधिनियम के रूप में माना जाता है, फिर भी न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि एसएमए की कठोर शर्तें किसी भी विवाह के दो भागीदारों में से एक को तत्काल विवाह के लिए धर्म परिवर्तन का सहारा लेने के लिए मजबूर करती हैं.
अदालत के समक्ष पेश किये गए 17 मामलों में से प्रत्येक में महिलाओं ने अपने साथी के धर्म में परिवर्तन कर लिया था ताकि उन धर्मों से संबंधित पर्सनल लॉ के तहत शादी की जा सके. जहां आठ हिंदू लड़कियों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था, वहीं नौ मुस्लिम लड़कियों ने हिंदू धर्म अपनाया था.
अदालत ने सभी 17 शादियों का तत्काल पंजीकरण करने का आदेश दिया और साथ ही पुलिस को इन सभी जोड़ों को सुरक्षा मुहैया कराने का भी निर्देश दिया.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला ऐसे समय में आया है जब स्पेशल मैरिज एक्ट की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाने वाली याचिकाएं दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित हैं.
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‘निजी मामलों को अनिवार्य रूप से सार्वजनिक किया जा रहा है’
एसएमए को 1954 में अंतरधार्मिक विवाहों को विनियमित और पंजीकृत करने हेतु अधिनियमित किया गया था. अंतरधार्मिक और पर्सनल लॉ के तहत अनुबंधित विवाहों सहित सभी विवाह एसएमए के तहत पंजीकृत किए जा सकते हैं.
यह अधिनियम विवाह हेतु इच्छुक किसी एक पक्ष के अपने साथी के धर्म में परिवर्तन किए बिना अंतरधार्मिक विवाह की अनुमति देने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसके लिए शर्तें ऐसी हैं कि यह उसी चीज को प्रोत्साहित करती है जिससे छुटकारा दिलाने के लिए इसे असल में बनाया गया था.
इस अधिनियम के तहत शादी करने के इच्छुक जोड़ों द्वारा जिला विवाह अधिकारी को लिखित में नोटिस देना आवश्यक है. नोटिस की तारीख के तीन महीने बाद ही विवाह समारोह आयोजित किया जा सकता है. यह तीन महीने की नोटिस अवधि किसी भी व्यक्ति को इस विवाह से सम्बन्धी आपत्ति हेतु विवाह अधिकारी से संपर्क करने की अनुमति देने के लिए है. अधिनियम आगे कहता है कि विवाह के दोनों भागीदारों में से किसी एक को कम से कम 30 दिनों के लिए उस जिले का निवासी होना चाहिए, जहां वह जोड़ा शादी करना चाहता है.
ये शर्तें, विशेष रूप से तीन महीने की नोटिस अवधि, कई अंतरधार्मिक जोड़ों को पर्सनल लॉ के तहत तत्काल विवाह की अनुमति के लिए धर्मांतरण का सहारा लेने हेतु मजबूर कर देती है.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ के अनुसार, एसएमए में उल्लिखित ये शर्तें, विशेष रूप से आपत्तियों को आमंत्रित करने वाली उद्घोषणा, वैवाहिक संबंधों को सार्वजनिक निगरानी के अधीन करने के सामान है. अदालत के विचार में, यह संविधान के तहत प्रदत्त स्वतंत्रता और निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है.
यह निर्देश देते हुए कि उसके आदेश की एक प्रति केंद्र सरकार को भेजी जाए, अदालत ने आगे कहा: ‘दो व्यक्तियों के बीच एक नितांत निजी और व्यक्तिगत संबंध को अनिवार्य रूप से सार्वजनिक कर दिया गया है. यह आग्रह किया जाता है कि विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधान जोड़ों को विशेष विवाह अधिनियम के तहत अनिवार्य रूप से होने वाली विलंबित और लंबी प्रक्रिया की जद्दोजहद से बचने के लिए पर्सनल लॉ के तहत तत्काल धर्मान्तरण का सहारा लेने हेतु मजबूर करने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं.
इस 65 साल पुराने कानून के समय के साथ पुराने हो जाने पर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने कहा कि एसएमए के बनने के बाद से समाज में अभूतपूर्व बदलाव आये हैं.
न्यायिक ढांचे के उद्देश्य की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि किसी भी कानून का उद्देश्य समाज की सेवा करना है. मगर साथ ही अदालत ने यह भी जोड़ा कि यह देखना भी उतना ही जरूरी है कि यह समाज में होने वाले प्रत्यक्ष परिवर्तनों के साथ विकसित होता रहे.
एसएमए का उल्लेख करते हुए अदालत ने कहा कि ‘यह कानून ‘अपने उद्देश्य को पूरा करने में बुरी तरह से विफल रह जाता है’ और अंतरधार्मिक विवाह में भारी वृद्धि के साथ बदली हुई परिस्थितियों के प्रति निश्चित रूप से संवेदनशील नहीं है.’ अदालत ने कहा कि यह न केवल धर्मांतरण के लिए मजबूर करता है, बल्कि उसे प्रोत्साहित भी करता है.
‘वैध धर्मान्तरण प्रमाणपत्र अनिवार्य नहीं’
इसी मामले में, उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021 के एक प्रावधान के संबंध में एक और महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसके तहत जिला मजिस्ट्रेट द्वारा ‘वैध धर्मांतरण’ की पुष्टि करने के लिए एक प्रमाण पत्र जारी किया जाता है.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक, अंतरधार्मिक जोड़ों द्वारा उनके विवाह के पंजीकरण के लिए आवेदन हेतु ऐसा कोई प्रमाण पत्र पेश करना अनिवार्य नहीं है और यह भी कि विवाह अधिकारी या रजिस्ट्रार जिला प्राधिकरण से धर्मांतरण की मंजूरी के अभाव में किसी भी विधिवत विवाह को पंजीकृत करने से इंकार नहीं कर सकता है.
अदालत ने कहा, ‘गैर-कानूनी धर्मांतरण अधिनियम, 2021, अपने आप में अंतर्धार्मिक विवाह को प्रतिबंधित नहीं करता है. हालांकि, विवाह पंजीयक/अधिकारी के पास केवल इस कारण से कि पार्टियों ने जिला प्राधिकरण से धर्मांतरण की आवश्यक स्वीकृति प्राप्त नहीं की है, विवाह के पंजीकरण को रोकने के लिए पर्याप्त शक्ति का अभाव है, ऐसी स्वीकृति निर्देशिका (डायरेक्टरी) है और अनिवार्य नहीं है. यदि इसकी किसी अन्य स्वरूप में व्याख्या की जाती है, तो यह अधिनियम तर्कसंगतता और निष्पक्षता की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा, और संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के तहत मानदंडों को पूरा करने में विफल होगा.’
अदालत ने कहा कि शादी और शादी के पंजीकरण से जुड़े तथ्य भिन्न और अलग-अलग हैं. पंजीकरण केवल पार्टियों के बीच हुए विवाह के तथ्य का प्रमाण है, जबकि विवाह की वैधता का मामला, चाहे वह अमान्य हो या अमान्य किये जाने योग्य, यह पीड़ित पक्ष के लिए किसी निर्दिष्ट मंच या अदालत के समक्ष कानून के अनुसार हल अथवा तय करने के लिए होता है.
अदालत ने कहा कि दोनों भागीदारों में से किसी एक के परिवार द्वारा की गयी आपत्ति स्वयमेव तरीके से विवाह को रद्द नहीं कर सकेगी, बशर्ते यह वैध हो और दोनों भागीदार वयस्क हों. साथ ही उसने केंद्र सरकार से विवाह और पंजीकरण से सम्बंधित कानूनों की बहुलता को समाप्त करने के लिए एक समान नागरिक संहिता को लागू करने पर विचार करने के लिए एक समिति के गठन के लिए भी कहा है.
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