नई दिल्ली: केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) से चुनावी राज्य गुजरात में आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से को फायदा पहुंचने की उम्मीद है. सरकारी आंकड़ों से यह बात सामने आई है. इस योजना को पिछले सप्ताह अगले तीन महीने यानी दिसंबर 2022 तक के लिए बढ़ा दिया गया है.
सरकारी आंकड़ों के दो सेटों का विश्लेषण – 2020 के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण और पीएमजीकेएवाई लाभार्थियों की सरकार की अपनी सूची – से पता चलता है कि गुजरात की 53.5 प्रतिशत आबादी और हिमाचल की 38.4 प्रतिशत आबादी को इस योजना से फायदा पहुंचेगा.
ये आंकड़े काफी मायने रखते हैं क्योंकि दोनों राज्यों में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों राज्य में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है. पार्टी ने हाल के पांच विधानसभा चुनावों में से चार में जीत हासिल की है. इन चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा) में से तीन में आबादी का बड़ा हिस्सा पीएमजीकेएवाई योजना के लिए पात्र है.
विशेषज्ञों के अनुसार, सरकारी लाभ कार्यक्रमों और मतदाता व्यवहार के बीच एक कड़ी देखी गई है.
दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर स्टडीइंग डेवलपिंग सोसाइटीज के प्रोफेसर संजय कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘विकास कार्यों पर खर्च किए गए किसी भी पैसे के अपने राजनीतिक फायदे होते हैं, बशर्ते कि यह अंतिम उपयोगकर्ता तक पहुंचे.’ वह आगे कहते हैं, ‘हमारा ऑब्जर्वेशन यही बताता है कि जो लोग ग्रामीण क्षेत्रों से हैं और जिन्हें लगातार लाभ दिया जाता रहा है, वे एक राजनीतिक दल के प्रति वफादार बनने की प्रवृत्ति दिखाते हैं.’
मूल रूप से यह योजना अप्रैल से जून 2020 तक कोविड की पहली लहर के दौरान लॉकडाउन के प्रभाव को कम करने में मदद करने के लिए शुरू की गई थी. इस स्कीम में उन लोगों को अतिरिक्त 5 किलो खाद्यान्न दिया जाता है जो पहले से ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए), 2013 के तहत सब्सिडी वाले राशन (2रुपये प्रति किलो चावल और 3 रुपये प्रति किलो गेहूं ) पाने के पात्र हैं. सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 80 करोड़ भारतीय एनएफएसए के तहत रियायती राशन प्राप्त करने के पात्र हैं.
पीएमजीकेएवाई को अब तक छह बार बढ़ाया जा चुका है. यह स्कीम 30 सितंबर को खत्म हो रही थी. इसे 28 सितंबर को फिर से बढ़ा दिया गया. अभी यह सातवें चरण में है.
गुजरात की आधी से ज्यादा आबादी को इस योजना से फायदा मिल सकता है- यह आंकड़े उस समय सामने आए हैं, जब चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक दलों की ओर से लोगों को मुफ्त में रेवड़ी बांटने की संस्कृति पर तीखी बहस चल रही है. इसने इस बात पर भी बहस बढ़ा दी है कि क्या सरकारों की तरफ से शुरू की गई कल्याणकारी योजनाएं भी एक फ्रीबी हो सकती हैं.
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बड़ा फायदा, लेकिन सरकारी खजाने पर बढ़ता भार
पिछले हफ्ते जारी एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि इस योजना का विस्तार किया जा रहा है ताकि आने वाले प्रमुख त्योहारों जैसे नवरात्रि, दशहरा, मिलाद-उन-नबी, दीपावली, छठ पूजा, गुरुनानक देव जयंती, क्रिसमस आदि के लिए समाज के गरीब और कमजोर वर्गों का सहारा दिया जा सके. स्कीम के विस्तार से वो त्यौहारों को समुदाय के साथ हंसी-खुशी मना सकते हैं.’
आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में अनुमानित 61.9 प्रतिशत आबादी मुफ्त खाद्यान्न योजना से लाभान्वित होती है. राज्य में चुनावी जीत के बाद मार्च में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा सरकार को दूसरा कार्यकाल मिला है.
मणिपुर और उत्तराखंड में भी जहां इस साल चुनाव हुए हैं, यह अनुपात क्रमश: 64.6 फीसदी और 55.1 फीसदी है.
सत्तारूढ़ दल भाजपा ने तीनों राज्यों में सहज अंतर से जीत हासिल की है.
दूसरी ओर पंजाब (46.9 फीसदी) और गोवा (33.5 फीसदी) में पीएमजीकेएवाई योजना से लाभान्वित होने वाले लोगों का अनुपात कम है. हालांकि बीजेपी ने गोवा में जीत हासिल की, लेकिन वह पंजाब में सिर्फ दो सीटों पर ही कामयाब रही.
लेकिन ये राजनीतिक लाभ एक बड़ी कीमत पर आते हैं. लेखा महानियंत्रक के डेटा से पता चलता है कि भारत का खाद्य सब्सिडी बिल, जो महामारी से पहले के पांच वर्षों में औसतन लगभग 1 लाख करोड़ रुपये हुआ करता था, वित्तीय वर्ष 2020-21 में बढ़कर 5.4 लाख करोड़ रुपये हो गया.
योजना का विस्तार ऐसे समय में हुआ है जब सरकार का दावा है कि भारत की अर्थव्यवस्था महामारी के प्रभाव से अच्छी तरह से उबर रही है.
यहां एक और बात महत्वपूर्ण है कि सरकार के भीतर पीएमजीकेएवाई विस्तार को लेकर आपत्तियां थीं. व्यय विभाग की ओर से खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग को भेजे गए एक कार्यालय ज्ञापन से इसे जाना जा सकता है.
व्यय विभाग के एक उप निदेशक रबी रंजन के हस्ताक्षर वाले पत्र में लिखा था, ‘महामारी काफी हद तक खत्म हो गई है और जिस संकट के लिए यह राहत दी गई थी, वह प्रासंगिक नहीं है. इसके अलावा लंबे समय तक इसे जारी रखना इसके स्थायी होने या अनिश्चितकाल तक निरंतर बने रहने का आभास दे सकता है और फिर इसे बंद करना मुश्किल हो जाएगा.’
इन आपत्तियों के बावजूद योजना के विस्तार ने यह सवाल उठाया है कि क्या वित्त पर बढ़ते भार पर राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता दी जा रही है.
इस विचार के बावजूद कि इस तरह की स्कीम से राजनीतिक लाभ मिलता है, सीएसडीएस के संजय कुमार का मानना है कि पीएमजीकेएवाई के तहत मुफ्त भोजन योजना के तहत दिया गया विस्तार सिर्फ राजनीतिक नहीं है. उनका मानना है कि यह गुजरात जैसे राज्य के लिए विशेष रूप से सच है.
कुमार ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि यह कदम सिर्फ राजनीतिक हितों के लिए उठाया गया है. यह ज्यादा से ज्यादा संख्या में उन गरीब परिवारों की मदद कर पाएगा जो महामारी के दौरान कर्ज तले दब गए थे.’ कुमार सीएसडीएस लोकनीति के सह-निदेशक भी हैं. यह एक शोध कार्यक्रम है जो लोकतांत्रिक राजनीति पर केंद्रित है. उन्होंने आगे बताया, ‘खास तौर पर गुजरात जैसे समृद्ध राज्य में आपको चुनाव जीतने के लिए इससे ज्यादा की जरूरत होगी.’
‘खुद का बनाया गया जाल’
सोशल एकाउंटेबिलिटी फोरम फॉर एक्शन एंड रिसर्च (SAFAR) की प्रमुख और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में विजिटिंग फैकल्टी रक्षिता स्वामी के अनुसार, पीएमजीकेएवाई योजना का विस्तार करने का जाल सरकार का खुद का बनाया हुआ है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यह लोगों अधिकार है जिसे वह सहायता बताते हैं’ वह आगे कहते हैं, ‘राजनीतिक वर्ग इसका इस तरह से प्रचार करता है ताकि यह धारणा बना सके कि यह खासतौर पर गरीबों के लिए किया जा रहा है. जबकि यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत उनका कानूनी अधिकार है.’
उन्होंने समझाया कि समस्या यह है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन – 2013 की केंद्र प्रायोजित योजना जिस पर पीएमजीकेएवाई लाभार्थी आबादी आधारित है – अभी भी 2011 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल करती है. नतीजतन 2013 की योजना में वे लोग शामिल नहीं हैं जो हाल ही में गरीबी में शामिल हुए हैं और जो अन्यथा सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों के तहत स्वत: समावेश के लिए पात्र होंगे.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘अगर सरकार ने समय पर जनगणना की होती और एनएफएसए के तहत लाभार्थियों की संख्या की गणना के लिए नए जनसंख्या के आंकड़ों का इस्तेमाल किया होता, तो उसे पीएमजीकेएवाई योजना का विस्तार नहीं करना पड़ता.’
इस तरह के पुराने डेटा का इस्तेमाल करने से पैदा हुई विसंगतियों में से एक यह है कि गुजरात अभी भी अपनी आबादी के इतने बड़े हिस्से (53.5 प्रतिशत) के लिए खाद्य सब्सिडी पर निर्भर है, जोकि भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है.
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