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Thursday, 11 December, 2025
होमदेशHC ने दिए चेन्नई मंदिर की वित्तीय जांच के आदेश: 1999 का 'सार्वजनिक या निजी' टेस्ट और यह क्यों है अहम

HC ने दिए चेन्नई मंदिर की वित्तीय जांच के आदेश: 1999 का ‘सार्वजनिक या निजी’ टेस्ट और यह क्यों है अहम

इस मामले में चेन्नई के श्री प्रसन्ना वेंकट नरसिम्हा पेरुमल मंदिर में कथित वित्तीय अनियमितताओं और क्या तमिलनाडु सरकार उनकी जांच कर सकती है, यह सवाल शामिल था.

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नई दिल्ली: मद्रास हाई कोर्ट ने कहा है कि अगर कोई मंदिर जनता से दान लेता है, तो हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्त (HR&CE) विभाग उस मंदिर की जांच और निरीक्षण कर सकता है. यह टिप्पणी चेन्नई के श्री प्रसन्ना वेंकटा नरसिम्हा पेरुमल मंदिर में कथित वित्तीय अनियमितताओं के मामले में की गई है.

जस्टिस एस. सुब्रमणियम और जस्टिस मोहम्मद शफीक की बेंच ने HR&CE के आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे अतिरिक्त आयुक्त से कम रैंक के अधिकारी को नियुक्त न करते हुए एक “व्यापक जांच” कराएं. अदालत ने सभी पक्षों को सुनने के लिए चार हफ्ते की समयसीमा तय की है, जिसके बाद विभाग कार्रवाई कर सकता है.

अदालत ने माना कि यह मंदिर “सार्वजनिक संस्था” है और इसलिए कुप्रबंधन के मामलों में राज्य सरकार की निगरानी में आता है. डिवीजन बेंच ने आयुक्त से यह भी कहा है कि वे सुप्रीम कोर्ट के 1999 के ‘मरुआ दई बनाम मुरलीधर नंदा’ फैसले के आधार पर यह तय करें कि मंदिर सार्वजनिक है या निजी. वित्तीय अनियमितता मिलने पर वे आगे की कार्रवाई शुरू कर सकते हैं.

मामले का बड़ा सवाल यह रहा कि क्या बालिजा चेत्ती समुदाय का यह मंदिर निजी श्राइन माना जाए या सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है. डिवीजन बेंच यह फैसला डॉक्टर के.जे. रेनुका की उस अपील पर सुन रही थी, जो जून 2024 के एकल-न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दायर की गई थी.

एकल-न्यायाधीश के सामने मूल याचिका में लीज डीड के पंजीकरण की मांग की गई थी. एकल-न्यायाधीश ने निर्देश दिया था कि नई लीज डीड रजिस्टर की जाए क्योंकि मौजूदा डीड में शर्तें नहीं थीं.

डॉ. रेनुका ने अपनी अपील में कहा कि मौजूदा डीड में तय किराया सैदापेट क्षेत्र की बाजार दर से बहुत कम है और इसे रजिस्टर करने पर मंदिर को भारी वित्तीय नुकसान होगा.

अब डिवीजन बेंच ने एकल-न्यायाधीश का आदेश रद्द कर दिया है और मंदिर के कामकाज की जांच के निर्देश दिए हैं.

मंदिर और तमिलनाडु सरकार का पक्ष

श्री प्रसन्ना वेंकटा नरसिम्हा पेरुमल मंदिर का कहना है कि वह एक ‘डिनॉमिनेशन टेंपल’ है यानी किसी धार्मिक संप्रदाय द्वारा संचालित, न कि आम जनता या सरकार द्वारा.

तमिलनाडु सरकार ने कहा है कि अगर कुप्रबंधन, गैरकानूनी काम या अनियमितता होती है तो वह मंदिर का प्रबंधन संभाल सकती है और आवश्यक कार्रवाई कर सकती है.

मंदिर ने संविधान के अनुच्छेद 26 का हवाला दिया, जो धार्मिक संप्रदायों को अपने धार्मिक मामलों, संस्थानों और संपत्ति पर अधिकार देता है.

लेकिन राज्य सरकार ने कहा कि इस अधिकार में कुप्रबंधन की अनुमति शामिल नहीं है.

हाई कोर्ट ने कहा कि मंदिर के खिलाफ कई शिकायतें आई हैं. आरोप है कि सैदापेट में मंदिर की 140 आवासीय और 40 वाणिज्यिक संपत्तियां हैं. इसके बावजूद, कोर्ट ने आगे कहा कि HR&CE डिपार्टमेंट ने मंदिर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की थी.

मरुआ दई में तय किया गया टेस्ट

1999 के मरुआ दई बनाम मुरलीधर मामले से पहले, सुप्रीम कोर्ट इस बात को लेकर लंबे समय तक असमंजस में था कि किसी मंदिर को सार्वजनिक या निजी कैसे माना जाए. बाद में, अदालत ने तय किया कि अगर कोई धार्मिक संस्था “सार्वजनिक चरित्र” अपना लेती है, तो उसे “सार्वजनिक संस्था” घोषित किया जा सकता है. अदालत ने यह निष्कर्ष 1970 के सुप्रीम कोर्ट के गोस्वामी श्री महालक्ष्मी वहुजी बनाम रंच्छोड़दास कालिदास फैसले पर भरोसा करते हुए निकाला.

सुप्रीम कोर्ट ने 1970 में कहा था कि यह जांचने के लिए कि कोई मंदिर सार्वजनिक है या नहीं, कुछ सवालों का जवाब हां में होना जरूरी है. पहला सवाल था कि क्या मंदिर जनता द्वारा बनवाया गया था या जनता ने उसे खड़ा किया था. दूसरा सवाल था कि क्या मंदिर में आम लोगों को पूजा करने की अनुमति थी.

इसी के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने 1979 के आदेश में यह भी साफ किया था कि अगर कोई मंदिर शुरू से निजी था या उसके शुरुआती स्रोत स्पष्ट नहीं हैं, तो उसे सार्वजनिक घोषित करने के लिए ठोस सबूत होने चाहिए. ये सबूत इस बात से जुटाए जा सकते हैं कि मंदिर कैसे बना था—सार्वजनिक धन से या नहीं—और क्या वह सार्वजनिक योगदान से संचालित या प्रबंधित होता था.

1999 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक दूसरे फैसले पर भी भरोसा किया था, जो 1919 के लक्ष्मणा बनाम सुब्रमणिया मामले में आया था. इसमें एक न्यायिक समिति उस मंदिर पर विचार कर रही थी, जो शुरुआत में निजी मंदिर था.

मंदिर के ‘महंत’ ने सप्ताह में कुछ निश्चित दिनों पर मंदिर को हिंदू जनता के लिए खोल दिया था. लोग मंदिर के अधिकांश हिस्से में स्वतंत्र रूप से पूजा कर सकते थे, लेकिन एक हिस्से में प्रवेश के लिए शुल्क देना पड़ता था. महंत इस आय का इस्तेमाल मुख्य रूप से मंदिर के खर्चों को पूरा करने में करते थे, जबकि बची हुई राशि से उनका और उनके परिवार का गुजारा चलता था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 1999 के आदेश में कहा था, “प्रिवी काउंसिल ने तब कहा था कि महंत के आचरण से यह पता चलता है कि उन्होंने हिंदू जनता के सामने यह प्रस्तुत किया कि मंदिर एक सार्वजनिक मंदिर है, जहां सभी हिंदू पूजा कर सकते हैं, इसलिए यह निष्कर्ष निकला कि उन्होंने मंदिर को जनता के लिए समर्पित कर दिया था.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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