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Friday, 22 November, 2024
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खेत हुए काले और आसमान में फैला धुआं, क्यों पराली जलाना बंद नहीं कर रहे हैं पंजाब के किसान

पंजाब में पराली जलाने में पिछले साल के मुकाबले 18.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच किसानों का कहना है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है तो वहीं कृषि अधिकारी अपने हाथ बंधे होने की बात कह रहे हैं.

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संगरूर/पटियाला: जले धान की पराली के बीचों बीच खडे किसान की आंखें लाल हैं और उनसे पानी आ रहा है. चारों और धुआं ही धुआं है. खेत में पराली जलाने में मशरूफ पंजाब के संगरूर जिले के गोबिंदपुरा गांव का ये किसान फिलहाल तो किसी भी तरह का कोई लेक्चर सुनने के मूड में नहीं था.

उन्होंने फसल कटने के बाद खेत में बची ठूंठ में आग लगाने के कुछ पल बाद कहा, ‘हमें पता है, पराली जलाना सेहत के लिहाज से बिल्कुल ठीक नहीं हैं. लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. हमारे पास कोई संसाधन नहीं है. सरकार सिर्फ बात करती है लेकिन मदद नहीं करती है.’ अपना नाम बताने से इनकार करते हुए वह धुएं के गुबार के बीच आगे बढ़ गया.

पराली जलाने का यह इकलौता मामला नहीं है. सैटेलाइट इमेज के मुताबिक, संगरूर में इस सीजन में पंजाब में पराली जलाने की सबसे ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई हैं.

जैसे ही नेशनल हाईवे से होते हुए आप हरियाणा से पंजाब में घुसेंगे, सड़क के दोनों ओर की तस्वीर एक देहाती सर्वनाश जैसी नजर आएगी. काले खेत, आग की लपटें, धुएं से अटा काले रंग का आसमान. ये नजारा मुख्यमंत्री भगवंत मान के गृह निर्वाचन क्षेत्र संगरूर जिले के नजदीक आने से बहुत पहले का है.

आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के उपग्रह आंकड़ों के मुताबिक, 15 सितंबर से 1 नवंबर के बीच पंजाब में पराली जलाने की 17,846 घटनाएं दर्ज की गईं. यह पिछले साल इस समय के दौरान की घटनाओं के मुकाबले 18.5 फीसदी ज्यादा है.

अन्य राज्यों में भी इस मौसम में ‘धान की फसल काटने के बाद बचे हुए अवशेषों या ठूंठ को जलाने की सक्रिय घटनाएं’ दर्ज की गईं हैं. लेकिन पंजाब की तुलना में वो ज्यादा नहीं है. हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कुल 2,083 घटनाएं दर्ज की गईं, जिसमें हरियाणा में 777, यूपी में 345 और मध्यप्रदेश में 972 घटनाएं थीं.

अकेले पंजाब ने मंगलवार को कुल 1.842 पराली जलाने की घटनाएं दर्ज कीं. पिछले पांच दिनों में से दो दिन तो 2,000 से ज्यादा पराली जलाई गई थी. राज्य के भीतर सबसे ज्यादा मामले संगरूर और पटियाला जिले से हैं.

पिछले साल की तुलना में संगरूर में खेतों में आग लगने की घटनाओं में 137 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. जबकि पटियाला में ऐसे मामले 70 फीसदी तक बढ़े हैं.

पटियाला के खेतों से उठता धुएं का गुबार | फोटो: दिशा वर्मा/दिप्रिंट

ऐसा क्यों है? जब दिप्रिंट ने दो जिलों का दौरा किया तो यह साफ था कि किसान पराली जलाने से होने वाले नुकसान से अनभिज्ञ नहीं हैं. विभिन्न जागरूकता अभियानों के जरिए उन्हें खराब होती स्थिति का अंदाजा था, लेकिन उन्हें पराली जलाने से रोकने के लिए इतना काफी नहीं है. उनके मुताबिक, धान की फसल काटने के बाद खेत में बचे अवशेषों या पराली से निपटान के वैकल्पिक तरीके काफी महंगे हैं. उनके लिए इसका खर्च उठा पाना आसान नहीं है.

उधर कृषि विभाग के अधिकारियों का दावा है कि जमीनी स्तर पर नियमों को लागू करना लगभग असंभव है. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और उच्च अधिकारियों की निष्क्रियता के कारण वे बलि का बकरा बन गए हैं.


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‘हम पैसे बचाने की कोशिश क्यों न करें?’

सुबह छह बजे से अपने खेत में मेहनत कर रहे संगरूर के किसान गुरमीत सिंह के हाथ-पैर कालिख से अटे पड़े हैं. उनका सपना एक दिन कनाडा जाने का है. वह कहते हैं कि उनके पास पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री है. उनके पास आगे बढ़ने का विकल्प है और वह अपना जीवन सुधार सकते हैं.

लेकिन जब धान के अवशेषों के खेतों से साफ करने और उन्हें अगले दौर की बुवाई के लिए तैयार करने की बात आती है, तो आधुनिक विकल्प उनके लिए काम नहीं करते हैं. इसकी वजह? लागत.

वह बताते हैं, ‘अगर हम पराली नहीं जलाते और इससे निपटने के लिए मशीनरी की तरफ जाते हैं तो हमारे पास कुछ बचेगा ही नहीं. इसपर काफी पैसा खर्च करना पड़ता है.’ वह आगे कहते हैं, ‘मजदूरों को दिए जाने वाला पैसा और डीजल की बढ़ी हुईं कीमतें भी हमें ऐसा करने से रोक देती हैं. वैसे भी, हमें खेती में कोई ज्यादा प्रॉफिट तो होता नहीं है. हमें सरकार से खुद को बचाने के लिए विरोध प्रदर्शन पर बैठना पड़ेगा.’

पटियाला के किसान गुरमिंदर सिंह को लगता है कि पराली जलाना तभी रुक सकता है जब सभी को सीडर मुहैया कराया जाए. सीडर वो मशीनें हैं जो पराली को उखाड़ सकती हैं और साफ की गई जमीन में बीज भी बो सकती हैं.

उन्होंने कहा, ‘पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से सबसे पहले किसान प्रभावित होते हैं लेकिन हम पहले से ही घाटे में चल रहे हैं और हम पैसे बचाने की कोशिश क्यों नहीं कर सकते? अगर सभी को सुपर सीडर मुहैया कराए जाएं, तो कोई भी पराली नहीं जलाएगा.’

कृषि विभाग के कुछ अधिकारियों का दावा है कि किसानों के लिए सीडर्स के लिए सब्सिडी दी गई है और इसे खरीदने में कुछ तेजी आई है. सरकार विभिन्न जिलों में बारी-बारी से किसानों को सुपर सीडर भी उपलब्ध कराती है.

संगरूर के कृषि विभाग के अधिकारी डॉ अमरजीत सिंह ने कहा, ‘हमने इस सीजन में किसानों को सब्सिडी के साथ 15-20 करोड़ रुपये की मशीनरी दी है. इसमें सुपर सीडर, हैप्पी सीडर जैसी कई मशीनें शामिल हैं.’

उन्होंने जोर देकर कहा कि जिले में स्थिति उतनी खराब नहीं है जितनी बताई जा रही है. उन्होंने बताया, ‘अगर खेती योग्य जमीन के प्रतिशत के संदर्भ में देखा जाए, तो संगरूर में पराली जलाने की घटनाओं की संख्या सबसे ज्यादा नहीं है. संगरूर में 2,91,000 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है.

पटियाला के मुख्य कृषि अधिकारी डॉ हरिंदर सिंह स्वीकार करते हैं कि मशीनरी की कीमत इसके लिए एक बड़ी और मुख्य बाधा है.

उन्होंने कहा, ‘अगर कोई किसान पराली को खत्म करने के वैकल्पिक तरीकों का इस्तेमाल करता है, तो उसकी लागत लगभग 3,000 रुपये प्रति एकड़ बढ़ जाएगी.’

पटियाला के खेतों से उठता धुएं का गुबार | फोटो: दिशा वर्मा/दिप्रिंट

हालांकि उन्हें उम्मीद है कि सीजन के अंत तक पटियाला का प्रदर्शन पिछले साल के मुकाबले बेहतर होगा. वह कहते हैं, ‘हम अभी भी पटियाला में पिछले साल की तुलना में पराली जलाने की घटनाओं में 50 फीसदी की कमी की उम्मीद कर रहे हैं. 80 प्रतिशत से ज्यादा खेतों की कटाई हो चुकी है.’

अमरजीत के मुताबिक, एक और संभावित विकल्प की जानकारी भी किसानों दी गई है. यह जैव-अपघटन प्रक्रिया है, जो फसल के अवशेषों को दो से तीन सप्ताह के भीतर खाद में बदल देती है. लेकिन कई किसानों के लिए यह अगली फसल की बुवाई के बीच का एक लंबा अंतराल है.

पराली को काटने और उनमें से गांठें निकालने का भी एक विकल्प है. लेकिन इस प्रोसेस में लाने– ले जाने की लागत के अलावा और भी कई मुश्किलें हैं. इन बचे हुए ठूंठ का इस्तेमाल करने वाले उद्योग, मसलन जैव-तापीय बिजली संयंत्र या जैव तेल उत्पादक, हर जगह पर मौजूद नहीं होते हैं.

उन्होंने स्वीकार किया कि किसानों के बीच जागरूकता फैलाने के अलावा, उनके जैसे अधिकारी कानूनों का पालन सुनिश्चित करने के मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं.

पटियाला के हरिंदर सिंह ने माना कि ‘समस्या यह है कि हम कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं कर सकते हैं. ऐसे में इस तरह की घटनाओं को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है.’


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‘सरकार चाहती है बदलाव, लेकिन किसानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं’

पंजाब सरकार और केंद्र सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप के बीच कृषि विभाग के अधिकारियों का दावा है कि किसानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने के कारण उनके हाथ बंधे हुए हैं.

पंजाब सरकार ने पराली जलाने की घटनाओं के मद्देनजर कृषि विभाग के अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की है. संगरूर के मुख्य कृषि अधिकारी हरबंस सिंह सहित कर्तव्य की कथित लापरवाही के लिए कई अधिकारियों को रविवार को निलंबित कर दिया गया था.

दिप्रिंट से बात करते हुए अन्य अधिकारियों ने कहा कि यह अनुचित था. उन्होंने गंभीर होती स्थिति के लिए ‘राजनीति’ और जिद्दी किसान संघों को दोषी ठहराया.

अमरजीत सिंह ने कहा, ‘हमारा काम जागरूकता फैलाना है. हमने शिविर आयोजित किए हैं. समय-समय पर लोगों से मिलने के लिए उन तक जाते रहे हैं. लेकिन सिर्फ प्रदूषण बोर्ड ही उन पर कार्रवाई कर सकता है.’

पटियाला में कृषि विभाग के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘हम बीच में फंस गए हैं. अजीब बात है कि सरकार बदलाव तो चाहती है लेकिन किसानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है.’

यह अधिकारी अपने साथियों के निलंबन से भी खफा था. उन्होंने बताया, ‘हम बहुत मेहनत करते हैं. उसके बाद भी हमें सस्पेंड कर दिया जाता है. अगर हमारे पास कार्रवाई करने की पावर नहीं है, तो हम बदलाव कैसे ला सकते हैं? राजनीति और वोट बैंक का खेल बदलाव में एक बड़ी बाधा है.’

उनके अनुसार, किसानों के विरोध के मद्देनजर केंद्र सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने से किसान संघों का उत्साह बढ़ा है. वह कहते हैं, ‘जब हम खेतों में जाते हैं, तो कितनी बार किसान हमें घेर कर खड़े हो जाते हैं और हमें जाने नहीं देते.’ पटियाला अधिकारी ने कहा, हमें वापस जाने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ती है.


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मानसिकता में धीमा बदलाव

पटियाला के कृषि विज्ञान केंद्र में सहायक प्रोफेसर डॉ. हरदीप सिंह सबखी ने कहा, पुरानी पीढ़ी अपने तरीके से चलना पसंद करती है, लेकिन युवा किसान उनके लिए अभी भी एक उम्मीद है.

उन्होंने कहा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए राजी करना मुश्किल काम है. लेकिन युवा पीढ़ी इसे रोकने के लिए नए तरीकों को अपनाने के लिए तैयार है. मानसिकता में सकारात्मक बदलाव आया है.’

उन्होंने कहा कि सरकार स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देने की भी कोशिश कर रही है जो मशीनरी खरीदने के लिए उनकी मदद कर सकते हैं. ये कम से कम युवा किसानों को इस ओर लाने के लिए आकर्षित तो कर रहे हैं.

हरदीप ने कहा, ‘पहले, किसान सुनने को तैयार नहीं थे, लेकिन अब कुछ युवा आगे आकर पराली जलाने से रोकने के तरीकों के बारे में पूछ रहे हैं.’ वह आगे बताते हैं, ‘ऐसे मामले हैं जब जागरूकता शिविरों के दौरान एक परिवार के बड़े लोग बदलाव के खिलाफ खड़े होते हैं. लेकिन जब शिविर खत्म हो जाते हैं, तो उसी परिवार के छोटे किसान पराली जलाने के विकल्पों को समझने के लिए हमसे संपर्क करते हैं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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