नई दिल्ली: 36 वर्षीय ममता देवी दक्षिणी दिल्ली के एक घर में काम करती है, जिसे अपने तीन बच्चों को पढ़ाना है, लेकिन सीमित साधनों के साथ.
महामारी में उसकी स्थिति और बिगड़ गई है. सिक्योरिटी गार्ड का काम करने वाले उसके पति की, पिछले एक साल में कई बार नौकरी छूटी, जिससे उनकी पारिवारिक आय, पहले के 1.5 लाख से घटकर, सिर्फ एक लाख से कुछ ज़्यादा पर आ गई.
आय में कमी का मतलब ये हुआ है, कि देवी अब राष्ट्रीय राजधानी में कम बजट वाले निजी स्कूलों का ख़र्च नहीं उठा सकती, जो 500 से 1,200 रुपए मासिक तक लेते हैं. और एक लाख से कुछ अधिक सालाना पारिवारिक आय का, ये भी मतलब है कि उनके बच्चे, निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) कोटा के पात्र नहीं थे, जो सिर्फ एक लाख रुपए से कम वार्षिक आय वालों के लिए है.
ममता देवी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) कोटा के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाए, क्योंकि हमारे वेतन 1 लाख रुपए से कुछ ज़्यादा हैं. उससे हमें मामूली फीस देने का फायदा मिल जाता. हमने दिसंबर से अपने बेटे की स्कूल फीस अदा नहीं की है. निजी शिक्षा का ख़र्च उठाना, मुश्किल होता जा रहा है. छठी क्लास के बाद से हम उसका दाख़िला, सरकारी स्कूल में कराने जा रहे हैं’.
लड़का अपनी बड़ी बहनों के पास पहुंच जाएगा, जो पहले ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ रही हैं.
देवी संख्या में बढ़ रहे उन कम आय वाले पेरेंट्स में से है, जो महामारी की वजह से अपने बच्चों को, दिल्ली के कम बजट वाले निजी स्कूलों से, निकालने को मजबूर हो गए हैं.
दिप्रिंट ने ऐसे कई पेरेंट्स से बात की, जिनकी सालाना आमदनी महामारी से पहले 2-3 लाख रुपए की रेंज में थी, लेकिन अब गिरकर 70,000 रुपए से एक लाख से कुछ अधिक के बीच रह गई है. पहले ये पेरेंट्स अपने बच्चों को, सस्ते निजी स्कूलों में भेजने का ख़र्च उठा लेते थे, लेकिन अब वो उन्हें सरकारी स्कूलों में दाख़िल कराने की सोच रहे हैं.
उन्हीं में से एक है 30 वर्षीय गीता, जिसका छह लोगों का परिवार, महामारी में मुश्किल से अपना पेट भर पा रहा है. इस गृहिणी ने दिप्रिंट से कहा, कि उनकी आय से परिवार मुश्किल से पल रहा है, इसलिए अब वो अपने दो बच्चों को, किसी सरकारी स्कूल में दाख़िल कराने की सोच रहे हैं.
उसने कहा, ‘पहले मेरे पति इंश्योरेंस सेल्समेन थे, अब हमारी गुज़र-बसर के लिए उन्हें सब्ज़ियां बेंचनी पड़ रही हैं. हम स्मार्टफोन का ख़र्च नहीं उठा सकते, इसलिए पिछले डेढ़ साल से, मेरे बच्चे पढ़ाई नहीं कर पाए हैं. हमने पिछले साल की स्कूल फीस भी अदा नहीं की है’.
इन दिनों परिवार की वार्षिक आय, 70,000 रुपए से कुछ अधिक है, जो पहले एक लाख रुपए से अधिक होती थी.
उसने आगे कहा, ‘मैं उम्मीद कर रही हूं कि सरकारी स्कूल और मुफ्त शिक्षा से, मेरे बच्चों को कुछ तकनीकी सहायता मिलेगी, जिससे उन्हें पढ़ाई में मदद होगी’.
बजट स्कूलों में भी यही कहानी
राष्ट्रीय राजधानी में बजट स्कूलों ने भी पुष्टि की है, कि बहुत से माता-पिता फीस नहीं दे पा रहे हैं.
दिल्ली में ऐसे क़रीब 2,000 स्कूल हैं, जिनमें से बहुत से स्कूलों का कहना है, कि उनके यहां पिछले साल कोई नए दाख़िले नहीं हुए, और ऊपर से मौजूदा छात्र भी स्कूल छोड़ रहे हैं.
दिल्ली के उत्तम लगर में आइडियल रेडिएंट पब्लिक स्कूल के संस्थापक, चंद्रकांत सिंह ने कहा, ‘महामारी की सबसे अधिक मार, निचले मध्यम वर्ग, और कम आय वर्गों पर पड़ी है. और आबादी का यही वो हिस्सा है, जो अपने बच्चों को सस्ते स्कूलों में भेजता है’. उन्होंने आगे कहा ‘हमारे फीस संग्रह पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है. जहां हर ग्रेड में हम तीन सेक्शन चलाते थे, अब हमारे पास केवल 13-15 बच्चे हैं, जो हमारे ऑनलाइन सेशंस लेते हैं.’
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सिंह ने कहा कि महामारी से पहले के समय में, उनके पास 800 बच्चे थे, जो 8वीं तक की कक्षाओं में पढ़ रहे थे. उन्होंने आगे कहा, ‘अब हमारे पास सिर्फ 400 के क़रीब छात्र बचे हैं, बाक़ी अब हमारे संपर्क में नहीं हैं. या तो उन्होंने अपनी फीस नहीं भरी है, या फिर वो अपने पतों पर मौजूद नहीं रहे हैं’.
सिंह ने ये भी कहा, कि ज़्यादा से ज़्यादा पेरेंट्स, सरकारी स्कूलों की ओर जा रहे हैं. ‘हम ऐसे बहुत से पेरेंट्स को जानते हैं, जो अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिफ्ट करने की तैयारी कर रहे हैं’.
उन्होंने ये भी कहा, कि एक चौथाई से अधिक पेरेंट्स उनके संपर्क में हैं, और अपनी आर्थिक समस्याएं उनसे साझा कर रहे हैं, लेकिन भी तक वो उनकी कोई मदद नहीं कर पाए हैं.
उन्होंने कहा, ‘हमने ज़्यादातर बच्चों के लिए अपनी ऑनलाइन क्लासेज़ जारी रखी हैं, जिनके पेरेंट्स ने फीस अदा नहीं की है. हम उन्हें 2-3 महीने का समय देते हैं, कि कम से कम फीस का कुछ हिस्सा ही अदा कर दें’.
उनके विचारों का हीरालाल पाण्डेय ने भी समर्थन किया, जो उत्तरी दिल्ली में नवादा मेट्रो स्टेशन के पास, भारती मॉडल स्कूल के मैनेजर हैं.
उन्होंने कहा, ‘प्री-प्राइमरी और प्राइमरी ग्रेड्स के लिए, हमारी मासिक फीस 600-750 रुपए, और 6, 7, 8, ग्रेड्स के लिए फीस 11,000 रुपए है. हर साल हमारे यहां नर्सरी समेत 300 दाख़िले होते थे, लेकिन इस साल ये संख्या गिरकर सिर्फ तीन छात्रों पर आ गई है’.
पाण्डेय ने आगे कहा: ‘फिलहाल परिवारों के लिए सरकारी स्कूल एक आकर्षक विकल्प बन रहे हैं, जहां मुफ्त राशन और किताबों का वादा किया जाता है. लेकिन अगर शैक्षिक ढांचे में सभी छात्रों को समेटने की सामर्थ्य होती, तो हमारे जैसे स्कूलों को, शुरू करने की ज़रूरत ही न पड़ती’.
दिप्रिंट ने दिल्ली के शिक्षा निदेशक उदित प्रकाश से, संदेशों और फोन कॉल्स के ज़रिए, टिप्पणी लेने के लिए संपर्क किया, लेकिन कोई जवाब हासिल नहीं हुआ.
EWS दाख़िलों पर असर
छात्रों के दाख़िले की कमी का, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) के दाख़िलों पर भी व्यापक असर पड़ा है, जो सालाना एक लाख रुपए से कम आय वाले परिवारों के बच्चों को, निजी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा सुनिश्चित कराते हैं.
महामारी ने हाल ही में बहुत से परिवारों को, ईडब्लूएस वर्ग में शामिल कर दिया है, लेकिन अभी उनके पास इस कैटेगरी के लिए क्वालिफाई करने का सर्टिफिकेट नहीं है, जिसकी वजह से वो मुफ्त पढ़ाई के विकल्प का फायदा नहीं उठा सकते. जो लोग पहले से ही इस वर्ग में हैं, उन्हें दाख़िला मिलना मुश्किल है, जब तक कि सामान्य श्रेणी में, पर्याप्त आवेदक नहीं हो जाते.
शिक्षा का अधिकार (आरटीई) एक्ट 2009 के अनुसार, निजी स्कूलों की प्रवेश-स्तर की कक्षाओं- नर्सरी, किंडरगार्टन , और क्लास 1- में, कम से कम 25 प्रतिशत सीटें ईडब्लूएस या वंचित समूहों (22 प्रतिशत), और विकलांग बच्चों (3 प्रतिशत) के लिए, आरक्षित रखनी होती हैं.
लेकिन, दिप्रिंट से बात करने वाले अधिकतर स्कूलों ने कहा, अगर सामान्य श्रेणी में पर्याप्त आवेदन नहीं हैं, तो ये आरक्षण नहीं दिया जा सकता.
पहले के 200-300 सामान्य श्रेणी दाख़िलों के विपरीत, दिप्रिंट से बात करने वाले कम बजट वाले स्कूलों ने दावा किया, कि इस साल लगभग ज़ीरो दाख़िले हुए हैं. कम बजट वाले स्कूलों में, दाख़िलों की घटती संख्या का मतलब ये भी है, कि ये स्कूल ईडब्लूएस श्रेणी के छात्रों की सहायता नहीं कर पाएंगे.
दिल्ली सरकार ने 15 जून को, ईडब्लूएस, वंचित समूहों, और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए, प्रवेश-स्तरीय दाख़िलों की प्रक्रिया शुरू की थी.
विकासनगर में राजधानी पब्लिक स्कूल के मैनेजर, उमेश त्यागी ने कहा, ‘दिल्ली सरकार से ईडब्लूएस छात्रों के लिए जारी फंड्स में भी, अकसर देरी हो जाती है, इसलिए शुरू में वो ख़र्च हमें ही उठाना पड़ता है. महामारी से पहले के समय में, इसका इंतज़ाम हो जाता था, लेकिन अब हमारे संसाधनों पर भी बहुत दबाव है. सामान्य छात्रों या फंड्स के न होने की स्थिति में, हम इस छात्रों को कैसे समायोजित करें?’
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