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Friday, 17 May, 2024
होमदेशदूसरे एम्स की 'हत्या' और डॉक्टरों की भारी कमी के बीच 'बहार' को तरसता 'बीमार बिहार'

दूसरे एम्स की ‘हत्या’ और डॉक्टरों की भारी कमी के बीच ‘बहार’ को तरसता ‘बीमार बिहार’

प्राथमिक स्तर पर 6000 लोगों की कमी और ख़ाली पड़े तमाम पदों जैसी बातें इस ओर इशारा करती हैं कि बिहार कि स्वास्थ्य व्यवस्था की आंखें 'बहार' के इंतज़ार में पथरा गई हैं.

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नई दिल्ली: ईद के जश्न के ठीक बाद मोहम्मद तैयाब की बेटी शगुफ्ता बीमार पड़ गई. 9 जून को वो अपनी तीन साल की बेटी को मुज़फ्फरपुर श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज (एसकेएमसीएच) ले गए. एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से जूझ रही उनकी नन्हीं बेटी ने 11 तारीख़ को दम तोड़ दिया. मुआवज़े की प्रक्रिया से जूझ रहे तैयाब ने कहा, ‘ऐसे अस्पताल से आख़िर क्या उम्मीद करते जहां न तो पीने का पानी था और न ही बुख़ार से तपते बच्चों के लिए पंखा.’

बिहार में इंसेफेलाइटिस ने अपने कहर से अब तक 150 से ज़्यादा परिवारों को तैयाब जैसा मातम मनाने को मजबूर कर दिया. बच्चों की इन मौतों ने राज्य की पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. लोकसभा में सूबे के स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े जो आंकड़े आए हैं, वो इसके तार-तार होने पर मुहर लगाते हैं.

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में कहा कि जागरूकता और सही जानकारी की कमी ने इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की जान ले ली. मुज़फ्फरपुर में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत से साफ होता है कि अगर प्राथमिक सुविधा केंद्र और आंगनवाड़ी जैसी व्यवस्था को दुरुस्त रखा जाता तो इतने बच्चों की मौत नहीं होती.


यह भी पढ़ें : इंसेफेलाइटिस से 131 की मौत, जागरूकता फैलाने वाले धन का 30% भी खर्च नहीं कर पाई नीतीश सरकार


लोकसभा के ताज़ा आंकड़ों में बिहार

संसद में हुए सवाल-जवाब में जो आंकड़े सामने आए वो आईएमए द्वारा जागरूकता और सही जानकारी की कमी के अलावा प्राथमिक सुविधा केंद्र और आंगनवाड़ी जैसी व्यवस्था की दुर्गति जैसी बातों की तस्दीक करते हैं.

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  • प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों के 292 पद ख़ाली हैं.
  • सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 518 विशेषज्ञों की कमी है.
  • प्राथमिक-सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 1762 फार्मासिस्टों की कमी है.
  • प्राथमिक-सामुदायिक हेल्थ सेंटरों में तकनीकी काम से जुड़े 1438 लोगों की कमी है.
  • प्राथमिक-सामुदायिक हेल्थ सेंटरों में 1738 नर्सिंग स्टाफ की कमी है.

ये लोग कस्बे और गांवों की स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ का काम करते हैं. ये सारे नंबर जोड़ दें तो प्राथमिक स्तर पर इन पदों से जुड़े लगभग 6000 स्वास्थ्य कर्मियों की कमी है. दिप्रिंट को पता चला है कि जागरूकता फैलाने में सबसे अहम रोल निभाने वाली आंगनवाड़ी की पूरी व्यवस्था इसलिए चरमराई गई क्योंकि 2014 के बाद से 2018 तक इंसेफेलाइटिस शांत पड़ गया. इसकी वजह से राज्य सरकार ने इन्हें गैरज़रूरी समझकर दरकिनार कर दिया.

नीति आयोग ने भारत के राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़ा जो हेल्थ इंडेक्स जारी किया है उसमें बिहार नीचे से दूसरे नंबर पर है. इसके मुताबिक प्रजनन दर, जन्म के समय कम वज़न, जन्म के समय लिंग अनुपात, संस्थागत प्रसव, टीबी के इलाज में सफलता जैसे तमाम पैमानों पर ये राज्य फेल हुआ है और स्वास्थ्य के मामले में राज्य का प्रदर्शन पहले से और गिरा है. नेशनल हेल्थ मिशन से जुड़ी रकम तक समय से ज़रूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंचाई जा सकी. इस इंडेक्स को स्वास्थ्य से जुड़े 23 पैमानों की कसौटी पर कसा जाता है जिसमें नतीज़ों के मामले में प्रदर्शन सबसे अहम बात होती है.

आंगनवाड़ी के कमज़ोर पड़ने से ग़रीब परिवारों तक बीमारी से जुड़ी जानकारी ठीक से नहीं पहुंची और नतीजा सबके सामने है. बिहार स्वास्थ्य व्यवस्था पर काम रहीं एक सरकारी अधिकारी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ‘ज़िला स्तर पर आंगनवाड़ी कर्मियों द्वारा ज़रूरतमंद परिवारों तक पहुंचने वाली ग्लूकोज़ और अन्य ज़रूरत की चीज़ें भ्रष्टाचार की बली चढ़ गईं.’

इसी पर बात करते हुए सुनील मांझी कहते हैं, ‘जनवरी में जब बीमारी ने अपना असर दिखाना शुरू किया था तब से लेकर इसके कहर बनने तक आंगनवाड़ी वाले नहीं आते थे.’ वो आगे कहते हैं कि अब आंगनवाड़ी वाले आ रहे हैं और उन्हें ज़रूरत की चीज़ें भी मिल रही हैं. सुनील का पांच साल का बेटा आशिक 5 जून को एसकेएमसीएच में एडमिट हुआ था. दिप्रिंट से बातचीत में सुनील राहत के साथ बताते हैं कि उनका बच्चा स्वस्थ है.

नवजातों को बचाने में भी फिसड्डी बिहार सरकार

नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम) के तहत आने वाली जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) सुरक्षित मातृत्व से जुड़ी होती है. इसका उद्देश्य नवजात मृत्यु दर को कम करना होता है. इसके तहत दलित, आदिवासी और बीपीएल महिलओं को सरकारी मदद पहुंचाई जाती है. बिहार को इस योजना में बुरा प्रदर्शन करने वाले राज्यों की सूची में रखा गया है. जननी सुरक्षा योजना के तहत बिहार को जो धन मिला उसे भी पूरी तरह ख़र्च नहीं किया गया-

  • 2016-17 में 34339.71 लाख़ मिले लेकिन महज़ 27286.25 लाख़ ही ख़र्च हुए.
  • 2017-18 में 34414.71 लाख़ मिले लेकिन महज़ 27842.74 लाख़ ही ख़र्च हुए.
  • 2018-19 में (अनुमानित आंकड़ों) बिहार को 34318.71 लाख़ मिले लेकिन 27504.59 लाख़ ही ख़र्च हुए.

हाल ही में इंसेफेलाइटिस से पीड़ित ज़्यादातर बच्चों से जुड़ी ये बात सामने आई कि इनमें से लगभग सभी कुपोषित थे. ऐसे में सरकार द्वारा जेएसवाई के स्तर पर असफलता इस बात की तस्दीक करती है कि जो सरकार केंद्र द्वारा दी गई रकम को पूरा ख़र्च नहीं कर पाई वो अपने स्तर पर जानकारी फैलाने और प्राथमिक स्वास्थ्य या अन्य सुविधाओं को पहुंचाने को लेकर कितनी गंभीर रही होगी?

एएन सिन्हा मेडिकल इंस्टीट्यूट की असिस्सटेंट प्रोफेसर संध्या महापात्रा के मुताबिक, ‘स्वास्थ्य समस्या के पीछे पैसों की कमी को एक बड़ी वजह माना जाता है. लेकिन राज्य सरकार को केंद्र से जो पैसे मिलते हैं, अक्सर उसका 40% हिस्सा खर्च नहीं हो पाता.’ नीतीश सरकार को जवाब देना चाहिए कि वो ऐसा क्यों नहीं कर पाती?


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दूसरे एम्स की ‘हत्या’ के बीच सूबे के बड़े अस्पतालों का हाल

क्या बेहतर अस्पताल बीमार पड़ी बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था का हल हो सकते हैं? अगर हां, तो यहां भी हालत ठीक नहीं है. बिहार की राजधानी पटना में जो एम्स है उसके बारे में राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था पर नज़र रखने वालों का कहना है कि 1925 में बना पटना मेडिकल कॉलेज (पीएमसीएच) फिलहाल इससे कई गुना बेहतर काम कर रहा है. नीति आयोग ने हेल्थ इंडेक्स वाली अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘बिहार की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में डॉक्टरों के ख़ाली पदों की दर काफी ज़्यादा है, जिसकी वजह से राज्य को मेडिकल कॉलेज या ज़िला अस्पतालों पर बहुत ज़्यादा निर्भर होना पड़ता है और इसकी वजह से भीड़ बढ़ जाती है.’

2015 में केंद्र सरकार ने बिहार को एक और एम्स दिया. लेकिन 2019 तक बिहार सरकार इसके लिए ज़मीन तक नहीं तलाश पाई. ऐसी ख़बरें थीं कि दूसरा एम्स स्वास्थ्य राज्य मंंत्री अश्विनी चौबे के गृहनगर भागलपुर में बनेगा. लेकिन बिहार के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुख्य सचिव संजय कुमार ने दिप्रिंट से कहा, ‘2018 में केंद्र को ये बताया गया है कि राज्य के पास दूसरे एस्म के लिए दरभंगा मेडिकल कॉलेज के पास 200 एकड़ की ज़मीन है.’ हालांकि, ये मामला अभी भी फाइलों में फंसा हुआ है.

ऐसी अपुष्ट जानकारी भी है की इन तमाम पचड़ों के मद्देनज़र दरभंगा मेडिकल कॉलेज को ही दूसरे एम्स के तौर पर विकसित किया जा सकता है. केंद्र सरकार की जानकारी के मुताबिक दरभंगा मेडिकल कॉलेज के अपग्रेडेशन के लिए केंद्र ने बिहार सरकार को 120 करोड़ देने वाली है जिसमें से 81.80 करोड़ पहले ही दिए जा चुके हैं. ऐसे में दरभंगा मेडिकल कॉलेज को दूसरे एम्स की तर्ज पर विकसित करने की बात को इसकी ‘हत्या’ के तौर पर देखा जा रहा है.

श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज मुज़फ्फरपुर का निर्माण कार्य लंबे समय से चल रहा है. वहां बन रही वायरॉलजी लैब के बारे में जितने मुंह उतनी बातें हैं. 16 जून को मुज़फ्फरपुर पहुंचे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा था कि ये एक साल में चालू होगा.


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प्राथमिक स्तर पर 6000 लोगों की और एम्स में ख़ाली पड़े 467 पद से लेकर ‘टूटी कमर’ के साथ काम कर रही आंगनवाड़ी व्यवस्था और पांच साल में एस्म के लिए नहीं मिल पाई ज़मीन जैसी तमाम बातें इस ओर इशारा करती हैं कि बिहार कि स्वास्थ्य व्यवस्था की आंखें ‘बहार’ के इंतज़ार में पथरा गई हैं.

मुज़फ्फरपुर में हुई 150 से अधिक बच्चों की मौतें नीतीश सरकार के लिए किसी अलार्म की तरह हैं जिसे सुनकर सरकार को जाग जाना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था वेंटिलेटर पर चली जायेगी. हालांकि, सीख लेने के बजाए बिहार सरकार प्रदर्शन कर रहे पीड़ित परिवारों को ख़िलाफ़ केस दर्ज करने में व्यस्त है!

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