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Thursday, 25 April, 2024
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कैसे कानूनी प्रक्रिया ने पार्किसंस के मरीज स्टेन स्वामी के सिपर और स्ट्रॉ से फुटबॉल जैसा खेल खेला

एनआईए की एक विशेष अदालत ने जांच एजेंसी को जवाब देने के लिए 20 दिन का समय देने के बाद पार्किंसन के मरीज फादर स्टेन स्वामी के सिपर और स्ट्रा उपलब्ध कराए जाने के अनुरोध को खारिज कर दिया था.

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नई दिल्ली/मुंबई: क्या किसी कैदी को बुनियादी जरूरत की चीजें पाने के लिए एक महीने का इंतजार करना जरूरी होता है, जैसे किसी पार्किंसन मरीज को सिपर और स्ट्रॉ आदि चाहिए हो तो? यह महत्वपूर्ण सवाल पिछले हफ्ते उस समय सामने आया जब मुंबई स्थित विशेष एनआईए अदालत ने भीमा कोरेगांव मामले में कथित संलिप्तता को लेकर पिछले माह गिरफ्तार झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता और पादरी 83 वर्षीय स्टेन स्वामी की तरफ से एक सिपर और स्ट्रा मुहैया कराने के लिए दायर आवेदन पर सुनवाई स्थगित कर दी.

वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस पर सवाल खड़े करते हुए पार्किंसन के मरीज स्वामी के मामले में विशेष एनआईए अदालत के न्यायाधीश की तरफ से अपनाए गए रुख को ‘असंवेदनशील रवैया, ‘अमानवीय दृष्टिकोण’ और यहां तक कि ‘सम्मान के साथ जीने के संवैधानिक अधिकार से संबंधित अनुच्छेद 21 का उल्लंघन’ करार दिया है.

कई लोग तो स्वामी की स्थिति के लिए जेल प्रशासन को जिम्मेदार ठहराते हैं, क्योंकि वे जेल मैनुअल का पालन करने में नाकाम रहे हैं जिसमें कैदियों के खानपान, कपड़े और अन्य बुनियादी जरूरतों से जुड़े विस्तृत दिशानिर्देश होते हैं.


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अनुरोध खारिज क्यों किया गया

स्वामी की तरफ से सिपर और स्ट्रा उपलब्ध कराने के लिए कोर्ट के समक्ष एक लिखित आवेदन गिरफ्तारी के एक माह बाद 6 नवंबर को भेजा गया था. स्वामी का कहना था कि एनआईए ने ये दोनों चीजें उनके पास से उस समय जब्त कर लीं जब उसके अधिकारियों ने उन्हें हिरासत में लिया था.

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सिपर और स्ट्रा एक बैग में रखे कुछ जरूरी सामानों में शामिल थे, जो स्वामी को रांची स्थित जेस्यूट सोशल रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेंटर बागीचा में उनके सहयोगियों की तरफ से दिया गया था. स्वामी को 8 अक्टूबर को विशेष एनआईए कोर्ट में पेश किए जाने के बाद उसी दिन तलोजा जेल में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था.

उनके वकील शरीफ शेख ने दिप्रिंट को बताया कि सिपर और स्ट्रा के लिए स्वामी के आवेदन पर सुनवाई करने वाले जज ने ही उन्हें हिरासत में जेल भेजने का फैसला सुनाया था.

उन्होंने बताया, ‘स्वामी ने जब इन चीजों की जरूरत बताई तो हमने एक आवेदन दायर किया. चूंकि यह सामान एक बैग में उन्हें दिया गया था इसलिए हमने सोचा कि एनआईए के जो अधिकारी उन्हें मुंबई ले गए थे, वह उनके पास ही होगा.’

कोर्ट ने एनआईए को यह बताने के लिए 20 दिन का समय दिया कि क्या ये चीजें एजेंसी के पास हैं. 26 नवंबर को एनआईए की तरफ से लिखित जवाब देकर इन दोनों चीजों को जब्त किए जाने की बात से इनकार किया गया.

उसने कोर्ट के समक्ष पंचनामा या जब्ती मेमो भी रखा, जिसके बाद स्वामी के आवेदन को खारिज कर दिया गया.

अदालत ने अपने एक लाइन के आदेश में कहा, ‘इस विवाद के संदर्भ में कोई सामान उपलब्ध न होने के मद्देनजर इस आवेदन को खारिज किया जाता है.’

शेख ने बताया कि इसके तुरंत बाद उन्होंने तुरंत स्वामी को निजी खर्च पर ये वस्तुएं उपलब्ध कराने के लिए अदालत की अनुमति के संदर्भ में एक नया आवेदन दायर कर दिया.

शेख ने कहा, ‘जब अदालत ने मुझसे पूछा कि स्वामी को सिपर और स्ट्रा की जरूरत क्यों है तो मैंने उन्हें याद दिलाया कि वह पार्किंसन रोग से पीड़ित हैं, जैसा कि न्यायाधीश को उस दिन भी सूचित किया गया था जब गिरफ्तारी के बाद उन्हें उनके सामने पेश किया गया था.’

इसके बावजूद भी, अदालत ने जेल अधिकारियों से रिपोर्ट देने को कहा था.

वहीं, एनआईए ने स्पष्ट किया कि अदालत ने कभी भी स्वामी के अनुरोध पर एजेंसी से जवाब नहीं मांगा. अपना नाम न छापने की शर्त पर एनआईई के एक वकील ने कहा, ‘उसने बस इतना पूछा था कि क्या एनआईए के अधिकारियों ने इन चीजों को कब्जे में लिया है. हमने जवाब दिया कि हमने ऐसा नहीं किया. एनआईए स्वामी के पास ये दोनों चीजें रहने के खिलाफ नहीं है. अब, यह जेल अधिकारियों और अदालत के बीच का मामला है.’

एजेंसी की तरफ से जारी एक आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि ऐसी खबरें कि स्वामी की याचिका पर जवाब देने में 20 दिन का समय लग गया ‘झूठी, गलत और भ्रामक’ हैं.

‘बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन’

दिप्रिंट ने इस मामले में जब विशेषज्ञों से बात की तो उनका कहना था कि बुनियादी जरूरतों से जुड़ी चीजों के बारे में अगर किसी अदालत को इतना समय लगे तो यह संबंधित न्यायाधीश में सहानुभूति और समझ की गहरी कमी को दर्शाता है.

वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश का हवाला दिया जिसमें तिहाड़ जेल प्रशासन को जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कयूम को तत्काल गर्मी के कपड़े और आवश्यक सामान मुहैया कराने को कहा था, जिन्हें सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया था, जस्टिस संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पीठ ने उसी दिन यह निर्देश दे दिया था जब दवे ने इसके लिए मौखिक अनुरोध किया.

दवे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ अदालतों पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है.

दवे ने कहा, ‘ऐसे मामलों में जब बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो और सम्मान से जीने के मूलभूत सिद्धांत से समझौता किया जा रहा हो तो उन्हें सहजता से दखल देना चाहिए या फिर जरूरत पड़ने पर स्वत: संज्ञान लेते हुए आवश्यक दिशानिर्देश जारी करने चाहिए.’

वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने इससे सहमति जताते हुए कहा, ‘एक कट्टर आतंकी के लिए भी इस तरह की उचित दलील स्वीकारने में एक मिनट का समय लगेगा, फिर स्टेन स्वामी जैसे किसी व्यक्ति की तो बात छोड़ ही दें जिनके खिलाफ आरोप पूरी तरह निराधार नजर आ रहे हैं.’

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय पारेख ने इसे ‘सरासर उत्पीड़न का मामला’ करार दिया.

पारेख ने कहा, ‘वी.के. शशिकला, सुब्रत रॉय, संजय चंद्रा, लालू प्रसाद यादव और इस तरह के अन्य हाई-प्रोफाइल कैदियों को जेल में तरजीह मिली. किसी को घर का बना खाना मिला है; कुछ अन्य के लिए अलग रसोई बनाई गई; व्यवसायियों को कोर्ट के निर्देश पर कार्यालय सुविधाएं दी गईं. मुझे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि पार्किंसन के मरीज स्वामी को तत्कालिक जरूरत आधार पर एक सिपर और स्ट्रा नहीं मिलना चाहिए.

‘ऐसी मिसाल हैं, लेकिन जेल अधीक्षकों को जानकारी नहीं’

स्वामी का मामला कोई अनूठा नहीं है. हाल में दिल्ली दंगों के मामले में आरोपी व्यक्तियों ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत से शिकायत की थी कि उन्हें तिहाड़ जेल में बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं.

इस पर 3 नवंबर को सुनवाई के दौरान जज ने जेल प्रशासन को चेतावनी दी कि यदि अगली सुनवाई से पूर्व आरोपियों के मुद्दों या समस्याओं का समाधान नहीं होता तो वह खुद वहां का निरीक्षण करने जाएंगे.

ऐसे ही एक अन्य मामले में दिल्ली दंगों के केस में आपराधिक साजिश के आरोप में गिरफ्तार 17 में से एक आरोपी गुलफिशा फातिमा ने जेल प्रशासन पर मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगाया था. इस पर जस्टिस रावत ने आदेश जारी किया कि जेल अधीक्षक उस वार्ड में ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों को बदले जहां फातिमा को रखा गया है.

तिहाड़ जेल के पूर्व लॉ ऑफिसर अधिकारी सुनील गुप्ता के अनुसार, जेल मैनुअल दोषियों को वो बुनियादी सुविधाएं लेने की अनुमति देता है, जो उन्हें घर पर मिलती हैं.

दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जेल के बारे में जानकारियां देने वाली किताब ब्लैक वारंट: कन्फेशंस ऑफ ए तिहाड़ जेलर के सह-लेखक गुप्ता ने यह भी कहा कि ऐसी कई मिसाल हैं जहां जेल प्रशासन ने कैदियों के लिए बुनियादी सुविधाओं को बढ़ाया है—कुछ अदालत के निर्देश के साथ, और कुछ इसके बिना भी.

गुप्ता ने कहा कि जेल मैनुअल की पूरी तरह जानकारी न रखना जेल अधीक्षकों की तरफ से कैदियों के आग्रह खारिज किए जाने की एक बड़ी वजह है. उन्होंने कहा, ‘कैदियों को बुनियादी सुविधाएं मिलना सुनिश्चित कराना जेल अधीक्षकों का काम है न कि अदालत का.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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