नई दिल्ली: राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए)—जिन्हें अब और अधिक परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देने का अधिकार मिल गया है—की दक्षता पर चिंता जाहिर करते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने केंद्र से कहा है कि एक तीन सदस्यीय समिति गठित करें जो राज्य अधिकरणों की तरफ से अमल में लाए जाने वाले सुरक्षा उपायों और दिशा-निर्देशों को तैयार करे.
एनजीटी अध्यक्ष जस्टिस ए.के. गोयल और न्यायिक सदस्य जस्टिस सुधीर अग्रवाल और विशेषज्ञ सदस्य प्रो. ए.सेंथिल वेल की पीठ ने 7 दिसंबर को जारी आदेश में कहा, ‘इन टिप्पणियों के आलोक में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) अपने अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित कर सकता है, जिसमें दो अन्य सदस्य सीपीसीबी से और राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) के निदेशक हों. समिति एक माह के भीतर बैठक कर सकती है और ऐसे दिशा-निर्देश/सुरक्षा उपाय को तैयार कर सकती है जिनका एसईआईएए पालन करें.’
एनजीटी एक गैर-लाभकारी संगठन (एनजीओ) सोशल एक्शन फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट (सेफ) की तरफ से दायर किए गए एक आवेदन पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें दो अधिसूचनाओं के क्लॉजेज को चुनौती दी गई थी. इसमें एक अधिसूचना 20 अप्रैल को और दूसरी 9 मई को जारी की गई थी.
अधिसूचनाओं के माध्यम से सरकार ने पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना 2006 में संशोधन कर पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया को ‘विकेंद्रीकृत’ कर दिया है. इसके तहत ‘श्रेणी बी’ में शामिल परियोजनाओं और गतिविधियों में बदलाव किया गया है, और अब राज्य के प्राधिकरणों से ही पर्यावरण मंजूरी लेने की आवश्यकता होती है.
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उदाहरण के तौर पर इससे श्रेणी बी परियोजनाओं में संशोधन हुआ है. इसमें सभी लघु खनिज खनन पट्टे शामिल किए गए हैं, जिसका मतलब है कि खनन पट्टे का साइज कोई भी हो इन परियोजनाओं का मूल्यांकन अब राज्य प्राधिकरणों की तरफ से किया जाएगा. साथ ही, प्रमुख खनिज (कोयला और गैर-कोयला) पट्टों के संबंध में श्रेणी बी परियोजनाओं के तौर पर मूल्यांकन के लिए खनन पट्टा क्षेत्र की सीमा काफी बढ़ा दी गई है. इसका मतलब है कि ऐसी और भी परियोजनाएं अब राज्य प्राधिकरण की मंजूरी के दायरे में आएंगी.
अप्रैल की अधिसूचना ने जहां पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति के बजाय राज्य के अधिकरणों को कुछ परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी देने की शक्ति प्रदान की, वहीं मई की अधिसूचना ने पुनर्निर्धारित सार्वजनिक सुनवाई की अवधि को छोटा कर दिया और सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट को जन सुनवाई के संचालन का अधिकार दे दिया.
इसे लेकर एनजीओ ने आरोप लगाया कि अधिसूचनाएं पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 और इसके तहत बनाए गए नियमों के खिलाफ हैं. इसने दावा किया कि बड़ी परियोजनाओं के मूल्यांकन की शक्ति का विकेंद्रीकरण करना और ऐसी शक्ति राज्य स्तर के अधिकारियों को सौंपना पर्यावरण के हितों के खिलाफ होगा, क्योंकि इन प्राधिकरणों के पास ऐसी मंजूरी के साथ न्याय करने की दक्षता और पर्याप्त संसाधन नहीं हैं.
हालांकि, ट्रिब्यूनल ने महसूस किया कि अधिसूचनाओं को रद्द करने के बजाय यह केंद्र को आवेदनकर्ता की तरफ से राज्य प्राधिकरणों की दक्षता को लेकर उठाई गई चिंताओं को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करने को कह सकता है, और इसलिए, इसके बजाय एक समिति नियुक्त करने का निर्देश दिया. अपनी पहली बैठक के बाद समिति को तीन महीने में कम से कम एक बार प्रगति की समीक्षा करनी होगी.
राज्य प्राधिकरणों को अपर्याप्त माना
हालांकि, पर्यावरण मंजूरी देना हमेशा से अधिकरणों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के बीच विवाद का विषय रहा है, एनजीटी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ऐसी मंजूरी एक औपचारिकता मात्र नहीं हो सकती है.
इसी आवेदन पर जुलाई में सुनवाई के दौरान न्यायाधिकरण ने पर्यावरण पर किसी परियोजना के प्रभाव के मूल्यांकन के उद्देश्य पर जोर दिया था. इस पर ट्रिब्यूनल ने विस्तार से कहा था, ‘इस तरह का मूल्यांकन करने के लिए पर्यावरण विनियमन तंत्र प्रभावी होना चाहिए. ऐसे मूल्यांकन करने वाले प्राधिकरण/एजेंसी के पास अपेक्षित क्षमता होनी चाहिए. इसके अभाव में इस तरह बड़े पैमाने पर विकेंद्रीकरण सतत विकास के उद्देश्य को नाकाम कर सकता है और मूल्यांकन प्रक्रिया महज एक औपचारिकता बनकर रह जाएगी.’
एनजीटी ने उल्लेख किया कि उसने इससे इतर दो अन्य मामलों में महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में अधिकरणों के प्रदर्शन को ‘नाकाफी’ पाया था जब उनके प्रदर्शन को ऑडिट किया गया था. इसके बाद इसने कहा कि ‘यद्यपि पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण पर तो किसी तरह की आपत्ति नहीं हो सकती है, लेकिन इसके लिए उचित तरह से मूल्यांकन की पर्याप्त क्षमता होनी चाहिए…और यह सुनिश्चित करना जरूरी है.’
इस पर, मंत्रालय की तरफ से 13 अक्टूबर को बाकायदा एक जवाब दायर करके दावा किया गया कि वह समय-समय पर राज्य के अधिकरणों के कामकाज की समीक्षा कर रहा है, और न्यायाधिकरण को बताया कि उसने भारत के प्रशासनिक स्टाफ कॉलेज जैसी विशेषज्ञ एजेंसियों के माध्यम से राज्य के अधिकरणों के लिए दक्षता बढ़ाने संबंधी कार्यक्रम आयोजित किए हैं. इसने हलफनामे में यह भी बताया कि राज्य के अधिकारियों ने ‘पर्यावरण मंजूरी के लिए मूल्यांकन प्रक्रिया में पिछले 15 वर्षों में पर्याप्त अनुभव हासिल किया है.’
हालांकि, 7 दिसंबर के आदेश के अनुसार, आवेदक ने दावा किया कि एमओईएफएंडसीसी का रुख ‘जमीनी हकीकत के विपरीत है.’
इस पर ट्रिब्यूनल ने छत्तीसगढ़, केरल, गुजरात, तेलंगाना, तमिलनाडु, पंजाब, महाराष्ट्र, एमपी, झारखंड, कर्नाटक और यूपी जैसे कई राज्यों के राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरणों (एसईआईएए) और राज्य विशेषज्ञ मूल्यांकन समितियों (एसईएसी) की संरचना पर ध्यान दिया. इसने कहा कि जहां एसईआईएए के तीन सदस्य हैं, वहीं एसईएसी के पास 8 से 15 सदस्य हैं. कुछ राज्यों में दो या तीन एसईएसी बनाई गई हैं.
ट्रिब्यूनल ने कहा, ‘एमओईएफएंडसीसी को कानून पर प्रभावी तरह से अमल के लिए जरूरी है कि ऐसे प्राधिकरणों और समितियों के लिए योग्यता और अनुभव निर्धारित करे, साथ ही वैज्ञानिक और तकनीकी कर्मचारियों के स्तर पर भी सहयोग दे.’
(अनुवाद : रावी द्ववेदी | संपादन : इन्द्रजीत)
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