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Saturday, 20 April, 2024
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रुपया मज़बूत करना है तो श्रम आधारित गतिविधियां बढ़ानी होंगी

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जब भारतीय अर्थव्यवस्था चीन समेत तमाम अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में तेज वृद्धि हासिल कर रही थी तो भी रुपया कमजोर क्यों हुआ?

आर्थिक सिद्धांत कहते हैं कि किसी देश की मुद्रा तब महंगी होती है (अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में) जब अन्य देशों की तुलना में उत्पादकता का स्तर बढ़ता है. इसकी वजह उन वस्तुओं और सेवाओं की तुलना है जिनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार किया जा सकता है या नहीं किया जा सकता है. विशेष रूप से कार का कारोबार संभव है जबकि बाल काटने का नहीं. अगर मारुति कंपनी में उत्पादकता (प्रति कर्मचारी) बढ़ती है तो बाल कटाने की लागत इससे कहीं अधिक तेजी से बढ़ेगी क्योंकि बाल काटने वाला अपनी उत्पादकता उतनी तेजी से नहीं बढ़ा सकता है जितने तीव्रता से कार कंपनी बढ़ा सकती है. यही वजह है कि अधिक आय वर्ग वाले देशों, जैसे अमेरिका आदि में बाल कटाने का मूल्य भारत जैसे देशों की तुलना में अधिक है.

मुद्रा की कीमतों में उतार-चढ़ाव उत्पादकता के अलावा अन्य वजहों से भी होता है. मिसाल के तौर पर मुद्रास्फीति दर, कच्चे माल के रूप में लगने वाला संसाधन और अर्थव्यवस्था की विदेशी पूंजी जुटाने की क्षमता. अगर मुद्रास्फीति की दर अधिक हो या पूंजी आने के बजाय बाहर जा रही हो या फिर व्यापार घाटा अधिक हो तो देश की मुद्रा का अवमूल्यन होगा. ऐसे में देखा जाए तो बेहतर प्रबंधन वाली अर्थव्यवस्था की मुद्रा मजबूत होगी जबकि खराब प्रबंधन वाली अर्थव्यवस्था में वह कमजोर होगी. बीते दशक के दौरान सबसे खराब प्रदर्शन उन मुद्राओं का रहा है जिनके देश संकट से दो चार रहे हैं. अर्जेंटीना, तुर्की और रूस इसका उदाहरण हैं. ब्राजील का प्रदर्शन भी अच्छा नहीं रहा है.

उस दृष्टि से देखा जाए तो भारत का प्रदर्शन कैसा रहा है? अगर एशियाई संदर्भ में देखें तो बहुत अच्छा नहीं है. बीते एक दशक के दौरान रुपये के मूल्य में श्रीलंकाई या पाकिस्तानी रुपये के संदर्भ में जहां बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है, वहीं सभी प्रमुख एशियाई मुद्राओं की तुलना में गिरा है. इनमें बांग्लादेश और चीन की मुद्राएं भी शामिल हैं. एक दशक पहले बांग्लादेश की मुद्रा यानी टका 69 पैसे के बराबर थी वहीं अब यह 86 पैसे के बराबर है. फिलीपीनी पेसो, मलेशियाई रिंगिट, थाई बहत या वियतनामी डॉन्ग के मुकाबले भी रुपये का मूल्य 2008 के बाद से गिरा है. रुपये के कीमत में यह गिरावट अपेक्षाकृत कम हो सकती थी, अगर रुपये में आई हालिया गिरावट के पहले तुलनात्मक अध्ययन कर लिया गया होता. हालांकि गिरावट तब भी होती.

किसी विकसित अर्थव्यवस्था की तुलना में उभरते बाजार में उत्पादकता में इजाफे की संभावना अधिक है. ऐसे में एक व्यवस्थित उभरते बाजार को चाहिए कि वह अन्य उभरती मुद्राओं की तुलना में न केवल अपनी मुद्रा की तेजी को सुनिश्चित करे बल्कि यह कोशिश करे की विकसित देशों की मुद्राओं की तुलना में भी उसकी मुद्रा मजबूत रहे. यही वजह है कि बीते एक दशक में थाई, बहत, डॉलर और यूरो से भी मजबूत रहा जबकि चीनी युआन मजबूत डॉलर से कदम से कदम मिलाकर चलता रहा. रिंगिट भी यूरो के साथ-साथ चलता रहा जबकि फिलीपींस की मुद्रा पेसो यूरो के मुकाबले मजबूत हुई. स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो रुपया दुनिया की दोनों प्रमुख मुद्राओं के समक्ष कमजोर हुआ है.

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जब भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के अलावा इन तमाम अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में तेज गति से वृद्धि हासिल कर रही थी तो ऐसा क्यों हुआ? इसका एक स्पष्टीकरण तो यह हो सकता है कि विनिर्माण और कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा. एक अन्य बात यह है कि आर्थिक वृद्धि कई कारणों से तय होती है. इनमें जनसंख्या वृद्धि भी शामिल है. जरूरी नहीं कि इसमें उत्पादकता वृद्धि का कारण शामिल हो. ऐसे में देश की श्रमशक्ति का करीब आधा हिस्सा अभी भी कम उत्पादक गतिविधि यानी कृृषि से जुड़ा है. देश में इस क्षेत्र से होने वाली आय गैर- कृषि क्षेत्र से होने वाली आय के छठे हिस्से के बराबर है.

इतना ही नहीं देश का निर्यात अभी भी उन क्षेत्रों से अधिक हो रहा है जहां श्रम की लागत कम है और देश इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी बना हुआ है. विशेष तौर पर हीरे की कटिंग और वस्त्र क्षेत्र. तुलनात्मक दृष्टि से चीन खिलौनों और वस्त्र से आगे बढ़कर रोबोट आदि जैसी उच्च मूल्य गतिविधियों से जुड़ गया है.

कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत को फिलहाल कृषि से अलग श्रम आधारित गतिविधियां बढ़ाने की आवश्यकता है. ऐसा करके ही वह कृषि से इतर श्रमशक्ति का इस्तेमाल कर सकेगा. इससे उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलेगी. ऐसा बदलाव जरूरी गति से हो रहा है अथवा नहीं, यही तय करेगा की अगले कुछ वर्षों में रुपया कहां नजर आता है.

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