भारत के बैंकिंग क्षेत्र के एक जाल में फंसने की संभावना बनती जा रही है. यह थोड़ी राहत की बात है कि यह जाल इसका खुद का बुना नहीं है, मगर आने वाली समस्या को टाला जाना मुश्किल सा लगता है. संयोगवश जो परिस्थितियां बनी हैं उनमें से अधिकांश बैंकिंग क्षेत्र के नियंत्रण में नहीं हैं. इससे जल्द ही ऐसी स्थिति पैदा हो सकती जहां बैंकों के पास उधार देने के लिए लिक्विडिटी तो होगी, लेकिन उनके लिए उधार लेने वालों को ढूंढना मुश्किल हो जायेगा. ऐसे समय में जब वैश्विक विकास तेजी से गिर रहा है और भारत का विकास भी गति नहीं पकड़ पर रहा है, बैंक के ऋण वितरण में मंदी वह आखिरी चीज होगी जिसकी हमें जरूरत हो.
आइए एक नजर डालते हैं कि पिछले एक दशक से बैंकिंग क्षेत्र में हो क्या हो रहा है. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के अंतिम वर्षों में ही गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (नॉन परफॉमिंग एसेस्ट्स या एनपीए) की स्थिति पहले से ही खराब होने लगी थी. उन वर्षों के दौरान दिए गए अंधाधुंध उधार की वास्तविक तस्वीर बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं थी. बैंकिंग क्षेत्र एनपीए से जुड़ी जिस भयावह स्थिति से जूझ रहा था, उसकी वास्तविक प्रकृति को उजागर करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की साल 2015 की परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (एसेट क्वालिटी रिव्यु) की आवश्यकता पड़ी.
इसके निष्कर्ष चौंकाने वाले थे: मार्च 2018 में बैंकों के एडवांस (कर्ज के रूप में दी गयी अग्रिम राशि) के प्रतिशत के रूप में सकल एनपीए बढ़कर 11.5 प्रतिशत हो गया, जो एक असहनीय उच्च स्तर है. यही वह चीज है कि हमें उस पहले पहलू की तरफ ले गयी जिसकी वजह से बैंकिंग क्षेत्र अब एक जाल में फंसता जा रहा है. एनपीए संकट के जवाब में, नरेंद्र मोदी सरकार ने बैंकों को अपने उधार देने के तौर-तरीके में भारी बदलाव करने के लिए मजबूर किया, और बाद में बैंक खुद कॉरपोरेट्स (व्यापार जगत) को उधार देने के प्रति बेहद सावधान हो गए. उन्होंने अपने ऋण के लिए उपलब्ध राशि को निजी ऋणों में स्थानांतरित करना शुरू कर दिया. इसके पीछे का तर्क था कि हजार छोटे ऋण, मुट्ठी भर बड़े कॉरपोरेट ऋणों की तुलना में बहुत कम जोखिम वाले होते हैं.
भले ही एनपीए की स्थिति अब पहले से कहीं बेहतर है और बैंक एक बार फिर से मुनाफे में हैं, लेकिन उद्योग जगत को उधार देने में आयी कमी का चलन अब भी जारी है.
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बैंकों की बदलती भूमिका
जैसा कि दिप्रिंट के इस विश्लेषण से पता चलता है, बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए गए कुल ऋण के अनुपात के रूप में उद्योग जगत को दिए गए ऋण का हिस्सा कम हो रहा है. निजी ऋण श्रेणी में ऋण की हिस्सेदारी भी उसी अनुपात में बढ़ रही है. दूसरी तरफ, कॉरपोरेट्स जगत के लोग बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों से ऋण लेने के बजाय बॉन्ड और डिबेंचर जारी करके ऋण बाजार से अपने फंड को तेजी से बढ़ा रहे हैं.
निजी क्षेत्र के वित्त पोषण (जो ज्यादातर पूंजी निवेश के लिए उपयोग की जाती है) के स्रोत के रूप में बैंकों की भूमिका अब बदल रही है. बैंक अब विकास के एक अलग इंजन को बढ़ावा दे रहे हैं जो है: व्यक्तिगत उपभोग. इसके पीछे मोटे तौर पर दो कारण हैं. सबसे पहले, महामारी के दौरान लोगों की आय निर्विवाद रूप से कम हो गई थी. कई लोगों को एकमुश्त वेतन कटौती का सामना करना पड़ा था. हालांकि अब इस तरह की कटौतियां वापस ले ली गयी हैं, मगर लोगों को उनकी वास्तविक आय में गिरावट का सामना करना पड़ा है क्योंकि मुद्रास्फीति उनके पैसे के मूल्य को कम कर दे रही है. और इसी वजह से, व्यक्तिगत उपभोग को बड़ी तेजी से ऋणों के माध्यम से फंड किया गया है.
जहां तक बैंकों का सवाल है, हालांकि हाल की त्योहारी अवधि और नकदी की उच्च मांग का अर्थ यह है कि बैंकिंग सिस्टम में मौद्रिक तरलता (लिक्विडिटी) अस्थायी रूप से ‘कम’ हो गई है, मगर इसे जल्द ही हाल की उस ‘सामान्य स्थिति’ में वापस आ जाना चाहिए जहां बैंक लिक्विडिटी के लिहाज से काफी सहज रहे हैं. सरकारी निवेश- जो तरलता को बढ़ावा देने वाला एक प्रमुख कारक है – के इस वित्तीय वर्ष की चौथी तिमाही में बढ़ने की संभावना है, जैसा कि आमतौर पर होता है. जनवरी तक नकद निकासी पर त्योहारी सीजन का असर भी खत्म हो जाने की संभावना है.
बढ़ती महंगाई और ब्याज दरें
दूसरी समस्या, जो अब अच्छी तरह से जड़ें जमा चुकी है, वह है मुद्रास्फीति (महंगाई). मोदी सरकार इससे यह कहकर मुंह फेर ले रही है कि भारत की अधिकांश मुद्रास्फीति की समस्या ‘आयातित’ (बाहरी कारणों की वजह से) है. इसका मतलब है कि वैश्विक मुद्रास्फीति, विशेष रूप से ऊर्जा की कीमतों में आई उछाल, भारत में फैल रही है और यहां भी असुविधाजनक रूप से ऊंची कीमतों का कारण बन रही है. वास्तव में, इस समस्या की गंभीरता ऐसी है कि आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (मॉनिट्री पॉलिसी कमिटी – एमपीसी) ने हाल ही में सरकार को एक पत्र भेजा है जिसमें बताया गया है कि मुद्रास्फीति ने लगातार तीन तिमाहियों (या नौ महीने) के लिए 6 प्रतिशत की ऊपरी सीमा का उल्लंघन क्यों किया है.
हालांकि, इस पत्र की विषय वस्तु तब तक गुप्त रहेगी जब तक सरकार ऐसा करना ज़रूरी मानती है, मगर उसमें कोई आश्चर्य की बात होने की संभावना नहीं है. भारत में मुद्रास्फीति मुख्य रूप से यूक्रेन में हो रहे युद्ध और डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमतों में आई कमी से प्रेरित तेल और गैस की आसमान छूती कीमतों के कारण है.
हालांकि, इसका नतीजा यह हुआ है कि आरबीआई सहित दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों को अपनी ब्याज दरों में तेजी से वृद्धि करनी पड़ी है. पिछले हफ्ते, अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में लगातार चौथी बार 75 आधार अंकों (बेसिस पॉइंट-बीपीएस) की बढ़ोत्तरी की. बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी पिछले सप्ताह अपनी ब्याज दरों में 30 वर्षों की सबसे बड़ी वृद्धि की और यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने अक्टूबर में (सितंबर की तरह ही) अपनी ब्याज दरों में 75 बीपीएस की वृद्धि की. इसका अर्थ न जानने वालों के लिए, एक आधार बिंदु ब्याज दरों और अन्य प्रतिशत के लिए उपयोग किया वाला एक मानक पैमाना है. इस तरह, 75 आधार अंक का अर्थ 0.75 प्रतिशत है और 100 आधार अंक 1 प्रतिशत के बराबर होता है.
आरबीआई ने अपनी तरफ से अप्रैल 2022 के बाद से की गई चार बढोत्तरियों के तहत ब्याज दरों में 190 बीपीएस की वृद्धि की है. वैश्विक परिदृश्य और लगातार बनी हुई मुद्रास्फीति का अर्थ है कि निकट भविष्य में भी इसमें कुछ बढ़ोतरी की संभावना है, हालांकि वह उतनी अधिक नहीं होगी. इसका मतलब यह है कि कर्ज अधिक महंगे हो गए हैं, जबकि जमा खाते अधिक लाभकारी हो गए हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो यह बैंक में पैसे जमा करने का एक अच्छा समय है और ऋण लेना तेजी के साथ एक महंगा मामला होता जा रहा है.
तो, इन सब को एक साथ करने परे हमें क्या मालूम पड़ता है? बैंकों को अब पता चल रहा है कि उधार देने के उनके रास्ते पहले की तुलना में अधिक कम हो गए हैं क्योंकि कॉरपोरेट ऋण अब उनका फोकस एरिया (ध्यान देने वाला क्षेत्र) नहीं रहा हैं. इसके बजाय, वे अपना ध्यान निजी ऋण पर केंद्रित कर रहे हैं. बैंकों के पास आसानी से उपलब्ध लिक्विडिटी भी है, इसलिए उनके पास उधार देने के लिए काफी पैसा है. मगर, ब्याज दरें बढ़ती जा रही हैं तथा ऋण और अधिक महंगे होते जा रहे हैं. लोगों की आय पर अभी भी जारी दबाव के साथ, जो लोग आमतौर पर निजी ऋण लेते हैं, वे तेजी से उच्च ब्याज दरों और पैसे को बैंक में ही छोड़ने के प्रति आकर्षण महसूस कर रहे होंगे.
दुर्भाग्य से, इस जंजाल से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है. विकास का स्तर इतना मजबूत नहीं है कि कॉरपोरेट्स को बैंक ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके, और महंगाई अभी कहीं जाने वाली नहीं है, इसलिए ब्याज दरें ऊंची ही रहेंगी. इसका मतलब है कि निजी खपत के इंजन में जल्द कोई तेजी नहीं आने वाली. भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह एक निराशाजनक खबर है. आशा करते हैं कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और उनकी टीम आगामी बजट में कुछ नया सोच सकें.
(अनुवादः रामलाल खन्ना)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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