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Tuesday, 21 May, 2024
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लॉकडाउन के चलते गेहूं की ख़रीद में अब एक गज़ब की समस्या- जूट के बोरों की कमी

ये समस्या मुख्य रूप से मोदी सरकार और ममता सरकार के बीच तालमेल की कमी से सामने आई है, क्योंकि पश्चिम बंगाल देश में जूट के बोरों की 95% मांग पूरी करता है.

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नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी प्रशासन के बीच तालमेल ना होने से, एक अजीब सी समस्या खड़ी हो गई है, जिससे देशभर में गेंहू की ख़रीद बुरी तरह प्रभावित हो गई है. और ये समस्या है टाट के बोरों का अभाव, जो फसल को स्टोर करने और उसकी ढुलाई के लिए ज़रूरी हैं.

देशभर में जूट के 95 प्रतिशत बोरे पश्चिम बंगाल से आते हैं, लेकिन कोविड-19 लॉकडाउन के चलते, राज्य में इसकी सभी मिलें बंद कर दी गईं थीं, हालांकि जूट मिलें आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत आती हैं.

राज्य ने 20 अप्रैल से ये मिलें चालू कीं, लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से श्रमिकों की सीमित संख्या के साथ.

समस्या और बढ़ गई, जब उत्पादन में ठहराव को देखते हुए, मोदी सरकार की ओर से ख़रीद सीज़न के बीच, जिन राज्यों को गेहूं के लिए जूट के बोरों की ज़रूरत थी, उनके लिए परस्पर विरोधी एडवाइज़रीज़ जारी की गईं.

गेहूं ख़रीद का सीज़न अमूमन 1 अप्रैल से 15 मई तक रहता है. केंद्र गेहूं और दूसरी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य देता है लेकिन ख़रीद का काम राज्यों पर छोड़ देता है, जिसमें फसल की ख़रीद, पैकिंग और भारतीय खाद्य निगम के गोदामों तक, उसकी ढुलाई का काम शामिल हैं.

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बोरों की कमी से देशभर में गेहूं की खरीद में 18 प्रतिशत की कमी आ गई है. इस साल ये घटकर 8 मई तक 226.85 मीट्रिक टन पर आ गई है, जबकि पिछले साल इसी समय, ये 277.83 मीट्रिक टन थी.

मिसाल के तौर पर पंजाब और हरियाणा को लें, जो देश में गेहूं के दो सबसे बड़े उत्पादक हैं.

इस रबी सीज़न में पंजाब ने 135 एलएमटी गेहूं ख़रीद का लक्ष्य रखा था, लेकिन अभी तक वो 108 एलएमटी ही ख़रीद पाया है. हरियाणा का हाल और भी बुरा है, जो 100 एलएमटी के अपने लक्ष्य में से, केवल 57 एलएमटी ही ख़रीद पाया है.

दोनों राज्यों ने, जहां पहले मज़दूरों की कमी थी, ख़रीद की धीमी प्रक्रिया के लिए, जूट के बोरों की कमी को एक प्रमुख कारण बताया है.

पंजाब में खाद्य, नागरिक आपूर्ति व उपभोक्ता मामलों के विभाग के सचिव, केएपी सिन्हा ने अप्रैल के अंतिम सप्ताह में मीडिया को बताया, कि उनका राज्य जूट के बोरों की कमी से जूझ रहा है, क्योंकि पश्चिम बंगाल में जूट मिलें बंद थीं.

इसका प्रभाव पूरी चेन पर पड़ा है, और किसान शिकायत कर रहे हैं कि उनकी पैदावार को, मंडियों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जा रहा है.

पंजाब के मोंगा से एक किसान करनैल सिंह मान ने दप्रिंट को बताया, ‘यहां पर गेहूं ख़रीद के सारे इंतज़ाम हैं, लेकिन पिछले पांच दिनों में दूसरी बार टोकन लेने के बाद भी, जूट के बोरों की कमी के चलते मैं एक बार भी अपनी उपज मंडी में नहीं बेंच सका.’ ‘हमने अधिकारियों से कम से कम प्लास्टिक शीट्स देने की भी याचना की है, क्योंकि ट्रैक्टरों में रखी खुली फसल को, बारिश से नुक़सान पहुंच सकता है.’

मान ने बताया कि उन्होंने अब तक, क़रीब 480 क्विंटल गेहूं की कटाई की है, जिसे बेचा जाना बाक़ी है. उन्होंने ये भी कहा, ‘अगर प्रशासन जूट के बोरे उपलब्ध नहीं करा पाता, तो हमारे पास अपनी फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दामों पर, निजी व्यापारियों को बेचने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा.’

देशव्यापी लॉकडाउन के बावुजूद, इस साल रबी की फसल पिछले साल के लगभग बराबर ही रही है.

केंद्र की अल्टा-पल्टी ने राज्यों को मंझधार में छोड़ा

केंद्र सरकार ने गेहूं ख़रीद सीज़न के लिए, पहले जूट के बोरों के 20 लाख गठ्ठे आवंटित किए थे (एक गठ्ठे में 500 बोरे होते हैं). इसमें से 3.87 लाख गठ्ठे पंजाब, और 3.20 लाख गठ्ठे हरियाणा भेजे जाने थे.

लेकिन लॉकडाउन के 16 दिन के भीतर, पश्चिम बंगाल में बैकलॉग और धीमे उत्पादन का हवाला देते हुए, केंद्र ने राज्यों के जूट बैग आवंटन में बदलाव कर दिया.

दिप्रिंट के हाथ लगे 10 अप्रैल को लिखे एक पत्र के मुताबिक़, केंद्र के उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने बोरों की ऊपरी सीमा तय कर दी, जिसके हिसाब से हरियाणा को 2.94 लाख गठ्ठे, और पंजाब को 3.36 लाख गठ्ठे मिलने थे. कुल मिलाकर, मंत्रालय ने जूट बोरों के देशव्यापी आवंटन को घटाकर, 16.22 लाख गठ्ठे कर दिया.

फिर मंत्रालय ने राज्यों से कहा कि वो इस कमी को पॉलीमर बैग्स से पूरा करें, जिन्हें राज्यों को टेण्डर्स के ज़रिए स्वयं ख़रीदना था.

लेकिन इस प्रक्रिया की निगरानी करने वाले टेक्सटाइल मंत्रालय ने, देशभर के लिए पॉलीमर बैग्स की संख्या 6.21 लाख गठ्ठे तय कर दी. इसमें से हरियाणा को 0.61 लाख, और पंजाब को 0.40 लाख प्लास्टिक बैग्स आवंटित किए गए.

इस मुद्दे की जानकारी रखने वाले, पंजाब नागरिक आपूर्ति मंत्रालय के एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘केंद्र ने आख़िरी समय पर हमें बताया, कि कोविड-19 के बाद पश्चिम बंगाल में जूट मिलें बंद होने के कारण, जूट के बोरों की कमी रहेगी.’ ‘सरकार ने हमें ये भी कहा कि हमें प्लास्टिक बैग्स के ऑर्डर्स दे देने चाहिए.’

लेकिन अप्रैल के अंत तक संकट और बढ़ गया, जब पंजाब व हरियाणा की सरकारों ने जूट बैग्स के अपने ऑर्डर्स घटा दिए.


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30 अप्रैल को केंद्रीय टेक्सटाइल मंत्रालय ने एक पत्र के ज़रिए पश्चिम बंगाल की जूट मिलों को सूचित किया, कि वो जूट बैग्स के अपने ऑर्डर कैंसल कर रहा है, चूंकि हरियाणा ने गठ्ठों का पिछला अपना ऑर्डर, 2.94 लाख से घटाकर 2.49 लाख गठ्ठे कर लिया है. पत्र में ये भी कहा गया कि पंजाब ने भी अपना ऑर्डर, 3.36 लाख से घटाकर 2.51 लाख गठ्ठे कर लिया है.

लेकिन राज्यों के सामने एक और भी समस्या थी- पॉलीमर बैग्स के टेण्डर तो जारी हो गए थे, लेकिन वो अभी मिले नहीं थे.

ऊपर हवाला दिए गए पंजाब नागरिक आपूर्ति अधिकारी ने बताया, ‘आख़िरी समय पर ऑर्डर देने के कारण, ख़रीद के लिए प्लास्टिक बैग्स के आने में देरी हुई है.’ उन्होंने ये भी कहा, ‘केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने जूट बैग्स के ऑर्डर कैंसल किए, क्योंकि पश्चिम बंगाल से सप्लाई पूरी नहीं हो पाई थी.’

अधिकारी ने ये भी बताया कि पंजाब में गेहूं ख़रीद के लिए कम से कम 30-40 हज़ार बोरों की कमी है, क्योंकि राज्य के पास केवल 115 एलएमटी गेहूं के लिए जूट और प्लास्टिक बैग्स हैं, जबकि इसका लक्ष्य 135 एलएमटी का है.

संकट से उबरने के लिए, पंजाब स्टेट सिविल सप्लाइज़ कॉर्पोरेशन ने अब राज्य के शिक्षा विभाग को, प्रदेश के सरकारी स्कूलों से जूट के बोरे ख़रीदने के लिए कहा है. स्कूलों को मिड-डे मील्स स्कीम के लिए, गेहूं और चावल का अपना राशन जूट के बोरों में मिलता है.

स्कूलों से कहा गया है कि 25 रुपए के हिसाब से अपने ख़ाली बोरे विभाग के हवाले कर दें. जूट का नया बोरा 50 रुपए का आता है.

लेकिन ये समस्या सिर्फ पंजाब और हरियाणा की नहीं है.

उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के एक गेहूं किसान, गया प्रसाद ने दिप्रिंट को बताया, ‘मेरे गांव में 70 प्रतिशत फसल काटी जा चुकी है लेकिन अभी यह आधी भी बिकी नहीं है. हालांकि सरकार ने ऐलान किया है कि मंडियों तथा खरीद केंद्रों पर गेहूं की ख़रीद की जा रही है लेकिन जूट के बोरों की कमी के चलते ये प्रक्रिया ठहर गई है.’

उन्होंने ये भी कहा, ‘ख़रीद केंद्र के इंचार्ज से अक्सर कहा-सुनी हो जाती है, और हम अपनी उपज वापस वहां नहीं ले जा सकते. ‘इसका मतलब होगा कि ख़रीद ना होने की वजह से, अपने किराए के वाहन को खाली करके अगर हम उसमें फिर से गेहूं लादेंगे, तो मज़दूरी और ढुलाई पर दोगुना ख़र्च आ जाएगा.’

प्रसाद ने ये भी कहा कि ख़रीफ का बुवाई सीज़न भी नज़दीक आ रहा है, और बीज तथा दूसरी चीज़ें खरीदने के लिए, किसान को गेंहूं बेंचकर पैसा हासिल करना होगा.

पश्चिम बंगाल के उद्योग मुसीबत में

मुसीबत की जड़ दरअस्ल पश्चिम बंगाल में है, जहां आश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत आने के बाद भी, सरकार ने जूट मिलों को चलने नहीं दिया. तृणमूल कांग्रेस सरकार ने 20 अप्रैल से इन मिलों को चलाने की इजाज़त दी लेकिन केवल 15 प्रतिशत श्रमिकों के साथ, जिसका मतलब है 30 से 50 मज़दूर.

मिलों के न चलने से इंडस्ट्री ने, राज्य और केंद्र, दोनों सरकारों से मदद की गुहार लगाई थी.

27 अप्रैल को, इंडियन जूट मिल एसोसिएशन (आईजेएमए) ने टेक्सटाइल मंत्रालय के सचिव रवि कपूर को पत्र लिखा, ‘पश्चिम बंगाल में पूरी तरह बंद जूट मिलों में फिर से कामकाज चालू करने के लिए, तुरंत दख़लअंदाज़ी’ करने की मांग की.

एसोसिएशन ने ये भी कहा कि राज्य सरकार ‘असंभव शर्तें’ लगा रही है. उसने ये भी कहा कि जूट मिल में 1000 से 1500 श्रमिकों की ज़रूरत होती है लेकिन केवल 30 से 50 मजदूरों को ही काम करने की अनुमति दी जा रही है.

केंद्र से मिले ऑर्डर रद्द किए जाने के बाद भी एसोसिएशन ने 2 मई को पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव राजीवा सिन्हा को पत्र लिखकर अपील की, ‘पश्चिम बंगाल की जूट मिलों में पूरे श्रमिकों के साथ, फिर से उत्पादन शुरू करने की अनुमति दी जाए.’

पत्र में उल्लेख किया गया कि गृह मंत्रालय की अनुमति के बाद भी, कि ‘सोशल डिस्टेंसिग और शिफ्टों में अंतर के साथ काम किया जाए’, राज्य का जूट उद्योग, श्रम मंत्री मोलॉय घटक की सलाह पर कमोबेश बंद है, और केवल 25 मिलों को फिर से उत्पादन शुरू करने की अनुमति मिली थी.

पत्र में ये भी कहा गया कि जूट मिलों में सोशल डिस्टेंसिग के पालन को लेकर, प्राइस वॉटरहाउस कूपर्स (पीडब्लूसी) की एक स्टडी भी, 16 अप्रैल को पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव के सामने पेश की गई थी, और 18 अप्रैल को उस पर एक प्रेज़ेंटेशन भी दिया गया लेकिन अभी तक कोई एक्शन नहीं लिया गया है.

आईजेएमए के एक सदस्य संजय कजारिया ने बताया, ‘हमारे पास केंद्र सरकार की ओर से जूट के 20 लाख गट्ठों का ऑर्डर था, जिसमें से हमने केवल 8 लाख गट्ठे सप्लाई किए हैं. 6 लाख बेल्स का ऑर्डर पहले ही रद्द किया जा चुका है, जिसकी क़ीमत 1,400 करोड़ रुपए है’. ‘बाक़ी का ऑर्डर भी अब कैंसल होने वाला है, जिससे केंवल केंद्र की तरफ से 2,800 करोड़ रुपए का नुक़सान होगा.’

कजारिया का कहना है कि पश्चिम बंगाल में जूट उद्योग का कुल कारोबार 12,000 करोड़ रुपए है, जिसमें इस साल 30 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है. उन्होंने ये भी कहा, ‘अभी भी, प्रदेश की कुल 60 मिलों में से केवल 7-8 मिलें, 30 से 50 श्रमिकों के सहारे चल रही हैं. श्रमिकों की इतनी कम संख्या के साथ मिल के अंदर, निर्माण प्रक्रिया के सभी चरणों को चलाना संभव नहीं है.’

उद्योगों का ये भी कहना है कि लॉकडाउन ने, श्रमिकों की जीविका पर भी बुरा असर डाला है.


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पश्चिम बंगाल में जूट मिल वर्कर्स यूनियन के एक सदस्य नाबा दत्ता के कहा, ‘मुनाफा कमाने के लिए एक मिल को कम से कम 70 प्रतिशत श्रमिक चाहिए होते हैं’. उनका कहना है, ‘राज्य सरकार द्वारा श्रमिकों की संख्या सीमित करने से, मिल मालिक मिलें खोलने में झिझक रहे हैं. पूरे पश्चिम बंगाल के जूट उद्योग में कम से कम 3 लाख पंजीकृत, और 4 लाख ग़ैर-पंजीकृत श्रमिक हैं, जो इसकी वजह से मुसीबत झेल रहे हैं.’

दत्ता ने बताया कि एक जूट मज़दूर प्रतिदिन 200 से 500 रुपए तक कमा लेता है. उन्होंने ये भी कहा, ‘ज़्यादातर के पैसे ख़त्म हो गए हैं, और गुज़ारे के लिए अब उन्हें उधार लेना पड़ेगा. लॉकडाउन के बाद से उन्हें प्रबंधन की ओर से कोई पैसा नहीं मिला है, क्योंकि उनमें से अधिकांश ठेका मज़दूर हैं, जिनके लिए प्रॉविडेंट फंड या सोशल सिक्योरिटी का प्रावधान नहीं है.

दिप्रिंट ने पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव राजीवा सिन्हा, और श्रम सचिव सैयद बाबा की टिप्पणी लेने के लिए, कई बार उनसे सम्पर्क करने की कोशिश की. उनका जवाब आने पर इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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