नयी दिल्ली, छह नवंबर (भाषा) भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका सहित जी-20 की नौ प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं को कम-कार्बन भविष्य की ओर बढ़ने के लिए ‘‘असहनीय’’ लागत का सामना करने की धारणा गलत है। एक नई रिपोर्ट में यह बात सामने आई।
‘क्लाइमेट फाइनेंस नीड्स ऑफ नाइन जी20 इमर्जिंग मार्केट इकोनॉमीज: वेल विदिन रीच’ शीर्षक वाली यह रिपोर्ट शोध संस्थान सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस ने जारी की है।
रिपोर्ट इस धारणा को चुनौती देती है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ‘‘असहनीय’’ लागत का सामना करना पड़ रहा है। इसमें अर्जेंटीना, ब्राजील, चीन, भारत, इंडोनेशिया, मैक्सिको, रूस, दक्षिण अफ्रीका और तुर्किये जैसे देशों को केंद्र में रखा गया है जो सामूहिक रूप से जी-20 के अधिकतर उभरते बाजारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, इन नौ देशों को 2022 से 2030 के बीच हर साल औसतन 255 अरब डॉलर की आवश्यकता होगी ताकि वे बिजली, परिवहन, इस्पात और सीमेंट क्षेत्रों को कार्बन उत्सर्जन रहित बना सकें। इन देशों के कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग आधा हिस्सा इन चार क्षेत्रों से उत्पन्न होता है।
चीन के अलावा भारत सहित शेष आठ अर्थव्यवस्थाओं के लिए आवश्यकता 854 अरब अमेरिकी डॉलर या उनके संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.5 प्रतिशत है।
रिपोर्ट लिखने वाले जनक राज और राकेश मोहन का कहना है कि यद्यपि कुल अनुमानित आवश्यकता निरपेक्ष रूप से बड़ी है लेकिन यह इन अर्थव्यवस्थाओं के सकल घरेलू उत्पाद का केवल एक छोटा सा हिस्सा है। इसलिए यदि बहुपक्षीय और निजी वित्त द्वारा समर्थित हो तो यह ‘‘पहुंच के भीतर’’ है।
रिपोर्ट में साथ ही कहा गया कि बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद है लेकिन उनका वर्तमान योगदान बहुत कम है।
इसमें पूंजी प्रवाह की सीमाओं और व्यापक आर्थिक जोखिमों के कारण कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं को बाह्य जलवायु वित्त को अवशोषित करने में आ रही कठिनाइयों को लेकर भी आगाह किया गया है।
भाषा योगेश निहारिका
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