वित्त मंत्रालय ने वार्षिक बजट निर्माण की प्रक्रिया 10 अक्टूबर से शुरू कर दी है. नरेंद्र मोदी मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह अंतिम पूर्ण बजट होगा. इसलिए भारी-भरकम खर्चों वाली बड़ी योजनाओं की घोषणा करने का लालच हो सकता है, लेकिन अगले बजट में वित्तीय विवेकशीलता पर जोर देने की जरूरत है.
निरंतरता का पालन करने वाली मध्यावधि फिस्कल पॉलिसी फ्रेमवर्क को फिर से लागू करना बेहद अहम है. यह मुद्रा के मामले में हाथ कसने और वैश्विक उथल पुथल के कारण आर्थिक वृद्धि में आने वाली सुस्ती के लिए तैयार होने, और कार्रवाई में लचीलापन बरतने में मदद करेगा.
वित्तीय मजबूती भारतीय रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति पर काबू पाने पर जोर देने की क्षमता प्रदान करेगी. इसके विपरीत, बड़े खर्चों के कारण कर्ज में वृद्धि रिजर्व बैंक को उचित लागत पर सरकार के कर्जों और महंगाई पर काबू रखने की दोहरी चुनौतियों को कठिन बना देगी.
यह भी पढ़ें: तानाशाही की बात पुरानी, हमारे जीवन, कला और मनोरंजन पर अपनी सोच थोप रही BJP सरकार
वित्तीय घाटे का लक्ष्य
सरकार ने तय किया है कि वर्ष 2025-26 तक वह अपने वित्तीय घाटे को कम करके जीडीपी के 4.5 प्रतिशत के बराबर लाएगी. 2020-21 में यह घाटा बढ़कर जीडीपी के 9.5 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया था. 2021-22 में यह घटकर 6.7 प्रतिशत के आंकड़े पर पहुंचा. अब चालू वर्ष में सरकार इसे 6.4 प्रतिशत पर लाना चाहती है. घाटा कोविड के दौरान की चढ़ाई से उतरा तो है मगर अभी भी ज्यादा है.
इस साल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की उगाही काफी अच्छी रही है लेकिन वह खाद्य तथा उर्वरक सब्सिडी में वृद्धि को निष्प्रभावी करने के लिए पर्याप्त नहीं है. वित्तीय घाटे के 6.4 फीसदी के लक्ष्य को कायम रखने के लिए सरकार गैर प्राथमिकता वाले खर्चों में कटौती करने के रास्ते तलाश रही है.
सरकार सिंगल नोडल एजेंसी (एसएनए) डैशबोर्ड के जरिए फंड्स के कुशल इस्तेमाल के तरीके भी खोज रही है. एसएनए डैशबोर्ड फंड्स पर नजर रखने में अच्छी मदद करता है, जैसे केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं से संबंधित फंड्स. इन सुधारों से इस चुनौतीपूर्ण समय में वित्तीय घाटे को काबू में रखने में मदद मिलती है.
वित्तीय मजबूती के लिए उड़ान पथ
मध्यावधि घाटे के 4.5 फीसदी के लक्ष्य का अर्थ है अगले तीन वर्षों में जीडीपी में 2 फीसदी की कमी. कठिन और अनिश्चित आर्थिक माहौल में यह बेहद कठिन काम होगा. इस लक्ष्य को हासिल करना तब और जटिल हो जाएगा जब सरकार आगामी बजट में लोकलुभावन उपायों की घोषणा करने के फैसला करेगी. इस तरह के उपायों पर खर्च के लिए बाजार से और कर्ज लेना पड़ेगा और इसका अर्थ होगा ब्याज के बोझ में और बढ़ोतरी.
ब्याज पीआर भुगतान की मात्रा बढ़ेगी, तो पूंजीगत खर्चे करने की सरकारी क्षमता कमजोर पड़ेगी. खर्चे बढ़ाने के वादों और राजस्व आमद (प्रत्यक्ष करों से उगाही में 24 फीसदी की वृद्धि हुई और उसका आंकड़ा 8 अक्टूबर तक 8.98 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका था) में उछाल के बावजूद सरकार ने स्वागत योग्य कदम उठाते हुए घोषणा की है कि उसने चालू वित्त वर्ष 2022-23 में कर्ज उगाही में 10,000 करोड़ रुपए की कमी करके उसे 14.21 लाख करोड़ के अंदर रखने का लक्ष्य तय किया है. इसमें से 5.92 लाख करोड़ वह अक्तूबर-मार्च के बीच सरकारी बॉन्डों से उगाहेगी.
2025-26 के लिए घाटे का लक्ष्य जीडीपी के 4.5 फीसदी के बराबर रखने के उपायों से वित्तीय मजबूती के सरकारी उपायों को विश्वसनीयता हासिल होगी. 15वें वित्त आयोग ने घाटे और कर्ज के संभावित परिदृश्य का खाका प्रस्तुत किया है लेकिन उसने रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते होने वली गड़बड़ियों का हिसाब नहीं रखा है.
आगामी बजट में घाटे और कर्ज के मध्यावधि अनुमान के सूचकांक प्रस्तुत किए जाने चाहिए. वित्त विधेयक में संशोधित वित्तीय लक्ष्यों को दर्शाने के लिए वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) एक्ट में संशोधन भी प्रस्तावित किया जाना चाहिए. 2021-22 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने घोषणा की थी कि वे एफआरबीएम एक्ट में संशोधन करेंगी ताकि 2025-26 के लिए घाटे का लक्ष्य जीडीपी के 4.5 फीसदी के बराबर रखने के केंद्र सरकार के लक्ष्य को पूरा किया जा सके. एक्ट में संशोधन बाकी है.
यह भी पढ़ेंः ‘नेताजी’ मुलायम सिंह यादव—SP के संस्थापक जिनके सहयोगी, प्रतिद्वंद्वी हमेशा अटकलें लगाते रह जाते थे
आर्थिक वृद्धि के लिए कठिन दौर में बजट निर्माण
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने वैश्विक उथल-पुथल के मद्देनजर इस साल के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि की भविष्यवाणी में कटौती की है और उसे जुलाई के 7.4 प्रतिशत से घटाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया है. अगले साल के लिए यह अनुमान अभी 6.1 फीसदी पर स्थिर है. उसकी रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि 2023 में वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक तिहाई भाग में सिकुड़न आएगी. दूसरे शब्दों में, स्थिति 2023 में और बुरी होने वाली है. आर्थिक सर्वे 2022-23 के मुताबिक भारत की जीडीपी में अगले वर्ष 6-7 फीसदी की वृद्धि का अनुमान है.
अनिश्चित माहौल के कारण सरकार को अपने वित्तीय प्रबंधन में विवेक का प्रयोग करने की जरूरत है. ताकि वह उभरते संकटों का प्रभावी रूप से जवाब दे सके और कर्ज के कारण पैदा होने वाली कमजोरियों को दूर कर सके.
ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति के सबक
1972 के बाद सबसे बड़ी टैक्स कटौती की घोषणा के बाद जो आर्थिक अराजकता फैली उससे भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं टैक्स में कटौतियों और अमीरों को आयकर में 45 फीसदी की छूट की घोषणा के कारण डॉलर के मुकाबले पाउंड की कीमत में अभूतपूर्व गिरावट आ गई, सरकारी बॉन्डों की कीमतों में कमी आ गई और लाभांश में वृद्धि हो गई. अगर घोषणाओं को लागू कर दिया जाता तो सरकार की आय घाट जाती और कर्ज बढ़ जाते.
बैंक ऑफ इंग्लैंड जब ब्याजदारों में कटौती, करके महंगाई को काबू में करने की कोशिश कर रहा था, तब टैक्सों में कटौती और सरकारी खर्चों में वृद्धि मौद्रिक नीति को लागू करने में बाधा बनती और महंगाई के अलावा कर्ज का स्तर भी ऊपर चला जाता. यह भारत जैसे देशों के लिए महत्वपूर्ण सबक है, जिनके कर्जे का स्तर पारंपरिक रूप से ऊंचा ही रहता है.
मैक्रो स्थिरता पर जोर
बाज़ारों को स्थिरता, मजबूत आर्थिक वृद्धि को मैक्रो-आर्थिक स्थिरता तथा नीतिगत विश्वसनीयता चाहिए. अनिश्चितता के माहौल में बजट को तात्कालिक र्रोप से मैक्रो-आर्थिक स्थिरता और आर्थिक वृद्धि की मांगों के बीच संतुलन बिठाना चाहिए और मैक्रो-आर्थिक स्थिरता पर ज़ोर देना चाहिए. मैक्रो-आर्थिक स्थिरता का अर्थ है कि बजट वित्तीय मजबूती पीआर तो जोर दे, मौद्रिक नीति का जोर महंगाई को कम करने पर हो. यह बाजारों में भी अपेक्षित शांति कायम करेगा.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
राधिका पांडेय और कृति वट्टल नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
यह भी पढ़ें: PFI पर पाबंदी काफी नहीं, सिमी पर बैन से इंडियन मुजाहिदीन बनने का उदाहरण है सामने