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Monday, 25 November, 2024
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क्या WFH भारत की कम महिला श्रम भागीदारी का समाधान है? अर्थशास्त्री कहते हैं, नहीं

सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस, अशोका यूनिवर्सिटी के अश्विनी देशपांडे का कहना है कि 'वर्क फ्रॉम होम' कई लोगों के लिए संभव नहीं है क्योंकि भारत की 90% श्रम शक्ति अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती है.

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नई दिल्ली: क्या दूर से काम करना भारत की सबसे स्थायी समस्याओं में से एक का समाधान हो सकता है – इससे महिला कार्यबल की भागीदारी कम होगी? अर्थशास्त्री और अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस के निदेशक अश्विनी देशपांडे के अनुसार इस सवाल का जवाब सिर्फ हां या ना में नहीं दिया जा सकता है.

नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस के पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के अनुसार, भारत की महिला श्रम बल भागीदारी (एफएलएफपी) 2017-18 में 17.5 प्रतिशत से बढ़कर 2020-21 में 25 प्रतिशत हो गई.

हालांकि, यह आंकड़ा भी कम है, खासतौर से विश्व बैंक 2022 के एक अध्ययन के अनुसार जिसमें पाया गया कि भारत में प्रति व्यक्ति आय 3,500 डॉलर से अधिक होने के बाद एफएलएफपी गिर गया.

समस्या के समाधान के रूप में अक्सर वर्क फ्रॉम होम करने की पेशकश की जाती रही है लेकिन देशपांडे के अनुसार, यह अपने दायरे में सीमित है. विशेष रूप से यह देखते हुए कि भारत का अनौपचारिक क्षेत्र का कार्यबल कितना बड़ा है.

देशपांडे ने दिप्रिंट को बताया, ‘जैसा कि हम देखते हैं, वर्क फ्रॉम होम, महिला कर्मचारियों के एक बहुत छोटे हिस्से पर लागू होता है.’ ‘उपलब्ध रोजगार के अवसरों में, बहुत सीमित संख्या में नौकरियां हैं जो हमें उस तरह के वर्क फॉर होम करने की अनुमति देती हैं जैसा हम सोचते हैं.’

देशपांडे सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस (सीईडीए) के एक शोधकर्ता द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन के बारे में दिप्रिंट से बात कर रही थीं. ध्रुविका धमीजा द्वारा किए गए अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि महिलाओं ने कारखानों में केवल 19 प्रतिशत कार्यबल का गठन किया और ज्यादातर कपड़े, बीड़ी, चमड़ा और ऐसे अन्य कम-मौद्रिक उत्पादन क्षेत्रों में श्रम-गहन उद्योगों में दिखाई दीं.

देशपांडे ने कहा कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ की धारणा – जिसे ऑफिस से दूर रह कर काम करने के लिए अक्सर इस्तेमाल किया जाता है – के एक से अधिक अर्थ हैं.

‘घर पर काम करने वाले कामगार हमेशा से महिलाएं रही हैं, चाहे वह बिंदी के पैकेट या माचिस या अगरबत्ती या ऐसी ही चीजें बनाना हो. ये बहुत कम भुगतान वाले, अक्सर शोषक और अत्यधिक कमजोर अनुबंध-आधारित नौकरियां हैं जो महिलाएं थोड़े से पैसे के लिए करती हैं. यह भी ‘वर्क फ्रॉम होम’ है, (सिर्फ) उसी तरह नहीं जैसे हम मध्यवर्गीय भारतीय वर्क फ्रॉम होम के बारे में सोचते हैं.’


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आर्थिक उत्पादन की लागत

उच्च गुणवत्ता वाले सेवा क्षेत्र की नौकरियों से स्टिग्मा को हटाने में वर्क फ्रॉम होम के प्रभाव को स्वीकार करते हुए, देशपांडे ने कहा: ‘कोविड -19 ने औपचारिक क्षेत्र में नियोक्ताओं को उस तरह का काम दिखाया है जो हम करते हैं, जहां हम संभवतः घर से काम कर सकते हैं. इसने उन्हें दिखाया है कि घर से काम किया जा सकता है और इस हद तक कि यह महिलाओं को स्टिग्मा से बचाता है.’

लेकिन, उन्होंने आगाह भी किया, ‘हमें महिलाओं की कम श्रम शक्ति भागीदारी दर के समाधान के रूप में घर से काम करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए.’

यह औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की संख्या के कारण है.

उन्होंने आगे कहा,’हमें अपनी श्रम शक्ति के बारे में सोचना होगा, जिनमें से 90 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं – कृषि, निर्माण कार्य, फुटपाथ पर चीजें बेचना. इस प्रकार की नौकरियों के लिए घर से काम करना कारगर नहीं होता है. काम करने के लिए कार्यस्थल पर पहुंचना पड़ता है.’

तो भारत के कार्यबल में महिलाओं की कम भागीदारी की आर्थिक कीमत क्या है?

देशपांडे ने कहा, ‘गणना करते समय अलग-अलग लोग अलग-अलग धारणाएं बनाते हैं, लेकिन आप संभवतः भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 25-30 प्रतिशत की वृद्धि के बारे में सोच सकते हैं – अगर बाकी सब कुछ समान होता और काम पर महिलाओं का योगदान बढ़ जाता.’

संभावित रूप से यह वर्तमान की तुलना में बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था है ‘क्योंकि इसकी महिलाएं उस हद तक उत्पादक कार्यों में शामिल नहीं हैं जो वे हो सकती हैं या उन्हें होनी चाहिए या वे बनना चाहेंगी.’

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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