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Friday, 22 November, 2024
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इन्फ्लेशन टार्गेटिंग कितना कारगर? IMF ने RBI सहित अन्य देशों के सेंट्रल बैंकों की पॉलिसी पर जताया संदेह

ये निष्कर्ष खासकर RBI के लिए प्रासंगिक हैं, जिसने 2016 से मुद्रास्फीति पर काबू पाने संबंधी नीतियों का पालन करना शुरू किया, लेकिन दिसंबर 2022 में उसे सरकार को यह बताना पड़ा कि मुद्रास्फीति निर्धारित लक्ष्य से अधिक क्यों हो गई है.

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नई दिल्ली: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की तरफ से प्रकाशित एक नए पेपर में कहा गया है कि यह दर्शाने वाला कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं है कि केंद्रीय बैंकों की इन्फ्लेशन टार्गेटेड पॉलिसी यानी मुद्रास्फीति (महंगाई) को काबू में रखने के लक्ष्य के साथ निर्धारित नीतियां वास्तव में महंगाई को घटाने में कारगर होती हैं.

यह भारत के लिए खास तौर पर मायने रखता है क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को पिछले महीने सरकार को यह बताना पड़ा था कि उसकी नीतियां मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने में विफल क्यों रही हैं.

आईएमएफ के सोमवार को प्रकाशित ‘मैक्रो इफेक्ट्स ऑफ फॉर्मल एडॉप्शन ऑफ इन्फ्लेशन टार्गेटिंग’ शीर्षक वाले वर्किंग पेपर में लेखकों सुरजीत एस. भल्ला, करण भसीन और प्रकाश लौंगानी ने पाया कि यदि 2000 से पहले की अवधि की बात करें तो इन्फ्लेशन टार्गेटिंग (आईटी) अपनाने वाले सभी देशों ने इसे अपनाने के बाद संबंधित मुद्रास्फीति दरों में गिरावट देखी, हालांकि, यह नीति अपनाने वाले केवल आधे देश ही मुद्रास्फीति पर काबू पाने में सफल हो पाए.

पेपर में आगाह करते हुए कहा गया है कि यद्यपि, केंद्रीय बैंकों के पास इन्फ्लेशन टार्गेटिंग फ्रेमवर्क को आगे बढ़ाने के अपने कारण हो सकते हैं लेकिन उन्हें ‘ग्रुपथिंक के खतरों’ से सावधान रहना चाहिए, और इसके बजाय पूरी गंभीरता के साथ इस पर ध्यान देना चाहिए कि क्या ऐसी नीति वास्तव में कारगर साबित होती है.

सबसे अहम बात, लेखकों का यह भी कहना है कि उन्हें कुछ ऐसे ‘सीमित साक्ष्य’ मिले हैं कि इन्फ्लेशन टार्गेटिंग धीमी आर्थिक वृद्धि की ओर ले जाती है, जिस वजह से ही ऐसी नीतियों की बार-बार आलोचना की जाती है.

इन्फ्लेशन टार्गेटिंग केंद्रीय बैंकों की तरफ से अपनाई जाने वाली एक मौद्रिक नीति है जिसमें वे मुद्रास्फीति दर के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं, इसे सार्वजनिक करते हैं, और यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी नीतियों में सुधार करते हैं कि महंगाई लक्षित स्तर पर बनी रहे. मई 2016 में आरबीआई ने एक ‘फ्लेक्सिबल इन्फ्लेशन टार्गेटिंग’ फ्रेमवर्क अपनाया, जब वैधानिक तौर पर ऐसी नीति अपनाने के लिए आरबीआई अधिनियम में संशोधन किया गया.

नीति इस वजह से भी ‘लचीली’ है कि आरबीआई ने इसके लिए एक बैंड ऑफ कंफर्ट भी तय कर रखा है—जिसके तहत 4 फीसदी के टार्गेट के 2 फीसदी ऊपर या नीचे के आंकड़े को सही माना जाता है. दूसरे शब्दों में, आरबीआई के लिए मुद्रास्फीति की दर तब तक बहुत चिंताजनक नहीं है, जब तक कि यह आंकड़ा 2 से 6 प्रतिशत के बीच है.

बहरहाल, पिछले महीने ही केंद्रीय बैंक ने सरकार को पत्र लिखकर बताया था कि 2022 के दौरान लगातार तीन तिमाहियों में मुद्रास्फीति की दर इस स्तर से ऊपर क्यों रही थी.


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इन्फ्लेशन टारर्गेटिंग की भूमिका स्पष्ट नहीं है

पेपर में कहा गया है, ‘चूंकि आईटी अपनाने और न अपनाने वाले देशों के बीच औसत मुद्रास्फीति, मुद्रास्फीति अस्थिरता, और मुद्रास्फीति थमने की सीमा में औसतन कोई बहुत अंतर नहीं पाया गया है, इसलिए यह पता लगाना आसान नहीं कि अच्छे परिणाम सुनिश्चित करने में इन्फ्लेशन टार्गेंटिंग ने क्या भूमिका निभाई.’

पेपर के मुताबिक, ‘देश-दर-देश हमारा विश्लेषण दर्शाता है कि इंफ्लेशन टार्गेटिंग अपनाने से कुछ देशों में मुद्रास्फीति पर काबू पाने की दिशा में लाभ होता है, लेकिन हमारे सैंपल विशाल बहुमत के साथ इसकी पुष्टि नहीं करते. कुल मिलाकर, हमारे परिणाम हमें इस निष्कर्ष पर ले जाते हैं कि मुद्रास्फीति घटाने की कोशिशों के तौर पर इन्फ्लेशन टार्गेटिंग अपनाना न तो आवश्यक है और न ही पर्याप्त.’

इन लेखकों ने 190 देशों के मुद्रास्फीति आंकड़ों का विश्लेषण किया, जिनमें 24 को 1990 से 2019 की अवधि में उन्नत अर्थव्यवस्थाओं (एई) और शेष को उभरते बाजारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (ईएमडीई) के रूप में वर्गीकृत किया गया था.

इस दौरान उन्होंने यही पाया कि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में औसत मुद्रास्फीति दर पिछले तीन दशकों से नीचे की ओर रही है, भले ही उन्होंने औपचारिक तौर पर इन्फ्लेशन टार्गेटिंग को अपनाया हो या नहीं. ईएमडीई के लिए, औसत मुद्रास्फीति दर 1990 के दशक के दौरान उच्च बनी रही, लेकिन 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद एक सीमित अवधि को छोड़कर, नीचे ही जा रही है.

लेखकों ने पिछले शोध का भी हवाला दिया जो दर्शाता है कि काफी पहले ही इन्फ्लेशन टार्गेटिंग को अपनाने वाले देशों में नीतिगत ढांचे की वजह से औसतन मुद्रास्फीति में गिरावट अधिक हो सकती है. दूसरे शब्दों में कहें तो, उन्होंने पाया कि मुद्रास्फीति के स्तर में वृद्धि के बाद उसके फिर घटकर अपने औसत स्तर पर लौटने की संभावना अधिक थी, क्योंकि नीतिगत हस्तक्षेप उन्हें नीचे लाने में कारगर रहा.

इसे समझाने के लिए उन्होंने 2004 में प्रकाशित एक किताब, द इन्फ्लेशन-टार्गेटिंग डिबेट, में एल.एम. बॉल और एन. शेरिडन की तरफ से लिखे गए एक चैप्टर का हवाला दिया है, जो कहता है, ‘जिस तरह छोटे कद के लोगों के बच्चे औसतन उनसे लंबे होते हैं, असामान्य रूप से उच्च और अस्थिर मुद्रास्फीति वाले देश भी इन समस्याओं से उबरते दिखते हैं, भले ही उन्होंने इन्फ्लेशन टार्गेटिंग को अपनाया हो या नहीं.’

आईएमएफ पेपर के लेखक अपने विश्लेषण के बाद इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं कि ‘औसतन पूर्व स्तर पर वापसी’ उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में इन्फ्लेशन टार्गेटिंग के स्पष्ट प्रभावों की प्रबल संभावनाएं दर्शाती है और इसके अलावा, उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी इसे मजबूती से साबित करती है.’

ग्रोथ पर असर

ग्रोथ पर इन्फ्लेशन टार्गेटिंग के प्रभाव के बारे में अर्थशास्त्रियों की राय बंटी हुई है. जहां कुछ का कहना है कि कम मुद्रास्फीति आमतौर पर उच्च विकास से जुड़ी है, वहीं दूसरों का तर्क है कि मुद्रास्फीति घटाने के लिए उठाए गए कदम विकास दर को भी घटाते हैं.

आईएमएफ पेपर के लेखकों का कहना है कि उनके विश्लेषण से पता चलता है कि मुद्रास्फीति पर काबू पाने से जुड़ी नीतियों का आउटपुट पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, हालांकि परिणाम काफी निर्णायक नहीं रहे हैं.

पेपर में कहा गया है, ‘ग्रोथ पर आईटी के प्रभावों को लेकर हमारे साक्ष्य मिश्रित हैं. अपने पैनल डेटा विश्लेषण में हमने आईटी अपनाने वाले और न अपनाने वाले देशों के बीच औसतन थोड़ा ही अंतर पाया. लेकिन देशों के स्तर पर एससीएम (सिंथेटिक कंट्रोल मेथड) विश्लेषण कुछ हद तक इस बात का सबूत है कि जिन देशों में आईटी अपनाने से मुद्रास्फीति में गिरावट आई, वहां उत्पादन में भी बड़ी गिरावट देखी गई.’

लेखकों ने कहा, ‘इसलिए कुछ हद तक यह चिंता जायज है कि मुद्रास्फीति नियंत्रित करने का फायदा उत्पादन की कीमत पर ही मिलता है.’

केंद्रीय बैंकों को सजग रहना चाहिए

लेखकों ने अपने निष्कर्ष में आगे यह भी कहा है कि केंद्रीय बैंकों को इन्फ्लेशन टार्गेटिंग फ्रेमवर्क को आगे बढ़ाने के दौरान कुछ सावधानियां जरूर बरतनी चाहिए.

पेपर कहता है, ‘केंद्रीय बैंकों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आईएफआई) के लिए इन्फ्लेशन टार्गेटिंग अपनाने के लाभों पर जोर देना आम हो गया है. हम इससे इनकार नहीं करते कि ये दावे कभी-कभी अधिक बेहतर निर्णय पर टिके होते हैं. हालांकि, केंद्रीय बैंकों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को आईटी संबंधी साक्ष्यों पर अधिक आलोचनात्मक नजरिया अपनाए बिना ज्यादा लाभ नहीं हो सकता है. जैसा कि ग्रुपथिंक की वजह से इन संस्थानों के लिए संभावित खतरों के सामने आने से स्पष्ट है.’

हालांकि, लेखकों का कहना कि उनके परिणाम ‘इन्फ्लेशन टार्गेटिंग का फुल कॉस्ट-बेनेफिट एनालिसिस’ प्रदान नहीं करते हैं और ऐसी नीतियों के कई संभावित लाभ हैं जिन पर इस पेपर में विचार नहीं किया गया है.

उन्होंने साथ ही बताया, ‘इन्फ्लेशन टार्गेटिंग को अपनाना भी नीतिगत गलतियों का कारण बन सकता है यदि नीति निर्माता अन्य उद्देश्यों पर कोई ध्यान दिए बिना सिर्फ मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लक्ष्य पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं.’ और आगे यह भी जोड़ा कि वे भारत में इन्फ्लेशन टार्गेटिंग अपनाने के लाभ-हानि पर इसके साथ ही एक अन्य पेपर भी जारी करेंगे.

इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: अलमिना खातून)


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