कोविड-19 के कारण लॉकडाउन ने व्यवसायों को भारी चोट पहुंचाई और कर्जों का भुगतान करना मुश्किल कर दिया. चूंकि यह सरकारी नीति के कारण हुआ इसलिए सरकार से किसी तरह की मदद अपेक्षित थी. इसलिए सरकार ने छह महीने की ‘मोरेटोरियम’ (ऋण स्थगन) की अवधि में बकाया कर्जों के ऊपर बकाया हुए ब्याज को माफ करने के लिए बैंकों को दिशनिर्देश जारी किए हैं. यह माफी 2 करोड़ रुपये तक के कर्ज पर मिलेगी पर सबको मिलेगी जिन्होंने छह महीने की ‘मोरेटोरियम’ का लाभ उठाया या नहीं उठाया.
इस स्कीम के तहत कर्जदाता को 5 नवंबर से पहले तक के कर्जदार के ऋण खाते में चक्रवृद्धि और साधारण ब्याज के अंतर को जमा करना होगा.
अब सवाल यह उठता है कि क्या इस तरह की छूट केवल उन कर्जदारों को दी जानी चाहिए जो भुगतान करने में सक्षम नहीं हैं? सरकार के वित्तीय संकट के कारण कोई भी सोच सकता है कि ऐसा ही होना चाहिए. लेकिन ऐसा करने से उन लोगों से दंड जैसा वसूला जाता, जिन्होंने समय पर भुगतान किया. इससे नैतिक संकट पैदा होता. अगर यह पता चल जाए कि सरकार कर्ज या ब्याज के भुगतान को माफ कर देगी, तो कर्जदार लोग भुगतान ही बंद कर देंगे. इससे ‘क्रेडिट कल्चर’ पर बुरा असर पड़ेगा.
इसलिए, जब भुगतान करने में अक्षम कर्जदार की पहचान करना निश्चित समय सीमा में मुश्किल हो, तब बेहतर रणनीति यही है कि स्कीम सबके लिए लागू कर दी जाए.
यह कृषि ऋण माफी से अलग है
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि कृषि ऋण माफी ‘क्रेडिट कल्चर’ को खराब करती है. लेकिन यह स्कीम केवल ब्याज पर ब्याज के लिए है, पूरे मूल कर्ज या पूरे ब्याज के लिए नहीं है. इसलिए इसका आकार कृषि कर्ज माफी के आकार से बहुत छोटा है.
29 फरवरी 2008 को तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने छोटे तथा सीमांत किसानों (एक-दो एकड़ की जोत वाले किसान) केल लिए अभूतपूर्व कर्ज माफी स्कीम घोषित की थी. इस स्कीम के अंदर 1997 से 2007 के बीच कॉमर्शियल तथा सहकारी बैंकों द्वारा दिए गए सभी अधिकृत कृषि ऋणों को शामिल किया गया था. इससे सरकारी खजाने पर 72,000 करोड़ रु. का बोझ पड़ा था. 31 दिसंबर 2007 तक पुराना बकाया या पुनर्गठित सभी ऋणों और 28 फरवरी 2008 तक जारी रहे पुराने बकाया ऋणों को माफ किया गया. इस तरह की माफी की आगे भी उम्मीद रखने नैतिक संकट पैदा करती है और भुगतान को जानबूझकर रोकने को प्रेरित करती है. उधर कर्जदाताओं के खेमे में, बैंकों ने उन जिलों में कर्ज देने में सुस्ती कर दी जहां कर्ज माफी की रहे के सबै वे सबको इस तरह की पिछले तीन महीने में भारत में पूंजी की संभावना ज्यादा थी.
कृषि ऋण पर रिजर्व बैंक की एक आंतरिक कार्यदल रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014-15 के बाद से इन ऋणों को माफ करने के मामले राज्यों में अभूतपूर्व गति से बढ़े हैं. इस योजना का मकसद तो कर्ज से पैदा होने वाले संकट से राहत देना है, मगर प्रायः यह क्रेडिट कल्चर को ही चोट पहुंचाती है.
कुछ लोगों का तर्क है कि कृषि ऋण माफी के कारण राज्यों के बजट और क्रेडिट कल्चर पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों के बारे में तो बहुत बहस की जाती है, कॉर्पोरेट कर्जों के भुगतान में चूकों के बारे में भी बहस जरूरी है. नैतिक संकट तो बेशक दोनों मामलों से जुड़ा है, लेकिन इससे निबटने के उपाय कृषि ऋणों के लिए अलग होंगे और कॉर्पोरेट कर्जों के लिए अलग होंगे.
कॉर्पोरेट कर्जों के मामलों में बैंकों के पास ‘इनसॉलवेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड’ (आइबीसी) और कॉर्पोरेट कर्जों के पुनर्गठन जैसे उपाय तो हैं, लेकिन कृषि ऋणों की माफी का सीधा वित्तीय असर सरकार पर पड़ता है. कोई कंपनी जब कर्ज भुगतान में चूकती है तब आइबीसी के तहत, नियंत्रण शेयरधारकों/प्रोमोटरों से हटकर कर्जदाताओं की कमिटी के हाथ में चला जाता है और वह तय करती है कि कर्ज कैसे वसूला जाएगा. चूक करने वाला समय पर भुगतान नहीं करता तो वह अपनी कंपनी से ही हाथ धो सकता है.
आइबीसी की शर्तों पर रोक सही है
व्यसायों को सहायता देने के उपायों के रूप में सरकार ने आइबीसी के कई प्रावधानों पर अस्थायी रोक लगाने का फैसला किया है ताकि कोविड-19 महामारी के कारण आर्थिक संकट के चलते कर्ज भुगतान में चूक करने वाली कंपनी को राहत मिले. यह विवेकसम्मत कदम है, क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण कर्जदाताओं को तब तक पर्याप्त खरीदार या निवेशक नहीं मिलेंगे जब तक मूल्य में पर्याप्त कमी नहीं की जाती. ऐसे स्थिति में कर्जदाताओं को काफी छंटाई करनी पड़ेगी.
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रिजर्व बैंक ने कर्ज के एक बार के पुनर्गठन की जो स्कीम घोषित की है वह कंपनियों को संकट से पार पाने में मदद करेगी. यह स्कीम कर्जदाताओं को निजी कर्ज के भुगतान की लचीली योजना बनाने की छूट देती है, जिसमें भुगतान की नयी अवधि तय की जा सकती है, ब्याज को अलग कर्ज में तब्दील किया जा सकता है, ‘मोराटोरियम’ आदि लागू की जा सकती है. कर्ज के भुगतान की प्रक्रिया के लिए किसे चुना जाएगा और उसकी अवधि क्या होगी, इन सबके बारे में फैसला कर लिया गया है. कर्ज पुनर्गठन प्रक्रिया में कर्जदार के खाते को घटिया या खराब नहीं घोषित किया जाएगा. इससे बैंकों के बैलेंसशीट पर दबाव घटेगा, भले ही उन्हें पुनर्गठन के लिए ज्यादा पूंजी अलग करने पड़ेगी.
पिछले स्तम्भ में हमने इस कठिन दौर में सरकारी बैंकों की मुश्किलों का जिक्र किया था और कहा था कि वे ऐसा करने से हिचक सकते हैं. अगर इन स्कीमों को सफल होना है और अर्थव्यववस्था को पटरी पर लाना है तो बैंक अधिकारियों की चिंताओं का समाधान करना होगा .
इस दौर में कर्जदारों की मदद के लिए तो कई कदम उठाए गए हैं. इन कदमों के स्वरूप और क्रियान्वयन से नैतिक संकट का भी समाधान होना चाहिए. इसके बिना बैंक कर्ज देने से हिचकेंगे और क्रेडिट ग्रोथ कुप्रभावित होग. अदरह स्थिति तो यही होगी कि अधिकतर कर्जों की शर्तों को फिर से तय किया जाए.
(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)
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