पिरामिड के निचले भाग में निम्न आय स्तर, सटीक उपभोग डेटा की निराशाजनक कमी और आय वृद्धि के सीमित रास्ते का मतलब है कि भारत अधिक प्रभावी और दीर्घकालिक उपायों के बजाय सब्सिडी और ‘मुफ्त (Freebies)’ के माध्यम से गरीबी से लड़ने में फंस गया है.
आय के स्तर में वृद्धि करके लोगों को कम गरीब बनाने के बजाय, उन्हें कम खर्च करने में मदद करने का प्रयास किया जा रहा है और आगे भी किया जाएगा. यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है.
सब्सिडी को वापस लेना राजनीतिक रूप से कठिन है, और हर अगले साल सरकारी वित्त पर बोझ बढ़ता जाता है. सरकारी योजनाओं के माध्यम से किए गए सुधार जिनमें लगातार सब्सिडी दिए जाने की व्यवस्था नहीं होती, उनमें सब्सिडी के खत्म होने के बाद स्थितियों के पहले जैसा होने का जोखिम होता है – जैसा कि शौचालयों के निर्माण और दिए गए गैस कनेक्शन के साथ हुआ है.
किसी भी मामले में, आवश्यक वस्तुओं पर खर्च कम करने की कोशिश करके, सरकार गरीबों को वास्तव में गरीबी से बाहर निकालने के बजाय उन्हें जीवित रहने में मदद कर रही है.
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गरीबी उन्मूलन मुफ्तखोरी से जुड़ा है
समस्या, जैसा कि नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के अपडेट से पता चलता है, यह है कि गरीबी कम करने में हुई अधिकांश प्रगति उन क्षेत्रों में हुई है जो केंद्र और राज्य स्तर पर सब्सिडी और योजनाओं से भारी लाभ उठाते हैं. इनमें खाना पकाने के ईंधन, स्वच्छता, पेयजल, बिजली, आवास और बैंक खातों तक पहुंच शामिल है.
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे संकेतक – जिनमें से दोनों का दीर्घकालिक गरीबी उन्मूलन पर अधिक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है – में चिंताजनक रूप से निम्न स्तर का सुधार देखा गया है.
सबसे तीव्र सुधार – 2015-16 और 2019-20 के बीच 21.8 प्रतिशत अंकों की कमी – स्वच्छता श्रेणी में देखा गया है, जो आधुनिक शौचालय तक विशेष पहुंच से वंचित परिवारों के प्रतिशत को मापता है. इस सुधार का एक बड़ा श्रेय खुले में शौच को खत्म करने के लिए केंद्र द्वारा 2014 में शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान को देना अतिश्योक्ति नहीं होगी. कई राज्यों ने भी इसे प्राथमिकता के तौर पर लिया है.
दूसरा सबसे बड़ा सुधार खाना पकाने के ईंधन श्रेणी में था, 2015-16 में 58.5 प्रतिशत आबादी वंचित थी जो 2019-20 तक 43.9 प्रतिशत वंचित थी. यहां भी, सुधार का एक बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) को दिया जा सकता है, जिसे गरीब परिवारों को गैस कनेक्शन प्रदान करने के लिए मई 2016 में लॉन्च किया गया था.
अब, बात यह है कि, लोगों को केवल ये सुविधाएं प्रदान करने से उनके जीवन की गुणवत्ता में बहुत लंबे समय तक सुधार नहीं होता है, अगर इसके साथ शिक्षा या लगातार मिलने वाली वित्तीय सहायता नहीं है. इसलिए, देश भर से कई रिपोर्ट्स सामने आईं कि स्वच्छ भारत शौचालय बिना प्रयोग के वैसे ही खाली पड़े हैं, और कुछ मामलों में तो उन्हें दुकानों में भी बदल दिया गया था. बेशक, शौचालयों से लोगों के जीवन स्तर में औसतन सुधार हुआ है, लेकिन उनका प्रभाव कम हो गया है.
गैस की बढ़ती कीमतों का मतलब यह भी है कि पहला मुफ्त सिलेंडर खत्म होने के बाद पीएमयूवाई के तहत दिए गए कई गैस कनेक्शनों का नवीनीकरण नहीं किया गया. लोगों को लकड़ी की आग या कोयले के बजाय गैस का उपयोग जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, सरकार को एक काफी महंगा सब्सिडी कार्यक्रम जारी रखना पड़ा है.
यह एक साधारण बात है. मध्यम वर्ग या अमीर गैस की कीमत के बारे में शिकायत क्यों नहीं कर रहे हैं? क्योंकि गैस बिल पर उनकी कुल आय का बस एक छोटा सा हिस्सा ही खर्च होता है. अगर सरकार चाहती है कि गरीब बिना सब्सिडी दिए गैस पर खर्च करना जारी रखें, तो उनकी आय बढ़ाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है, और इसीलिए सब्सिडी का बोझ जारी रहेगा – इसकी ज़रूरत है.
अन्य बहुआयामी गरीबी संकेतक जहां भारत ने पर्याप्त, भले ही मामूली सुधार देखा है, वे हैं बिजली तक पहुंच (जहां केंद्र ने बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराने पर खर्च किया है लेकिन कई राज्यों ने वास्तविक बिजली पर सब्सिडी दी है), बैंक खाते (पीएम जन-धन योजना), आवास (पीएम आवास योजना और अन्य राज्य स्तरीय योजनाएं), और पानी (जिस पर कई राज्यों में भारी सब्सिडी भी दी जाती है).
सब्सिडी यहां क्यों बनी रहती है?
एक महत्वपूर्ण बात यह कही जानी चाहिए कि गरीबी उन्मूलन का मतलब सिर्फ बुनियादी जरूरतें उपलब्ध कराना और चीजों को वहीं छोड़ देना भर नहीं है. हां, सिर पर छत, बिजली, पीने का पानी और रसोई गैस तक पहुंच हर किसी के लिए बिल्कुल जरूरी है. लेकिन आकांक्षाएं यहीं खत्म नहीं होतीं.
लोग और अधिक चाहते हैं, जैसा ऐसा होना भी चाहिए, और यह उनकी आय में वृद्धि के बिना नहीं होने वाला है. वे ख़ुद को ग़रीब ही मानते रहेंगे और आधिकारिक आंकड़ों के बिना, शायद यही हमारे पास मौजूद सबसे सटीक माप है.
गरीबी के सबसे महत्वपूर्ण और सटीक उपायों में से एक सरकार का घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण है, जो घरेलू आय के साथ-साथ व्यय को भी मापता है.
उपलब्ध नवीनतम डेटा एक दशक से अधिक पुराना है—2011-12 के लिए. सरकार ने 2019 में 2017-18 के लिए किए गए सर्वेक्षण के नतीजों को रद्द कर दिया था.
यहां तक कि सुरजीत भल्ला, करण भसीन और अरविंद विरमानी द्वारा बार-बार ज़िक्र (और जिसका खंडन किया गया) किए गए आईएमएफ पेपर में भी यह बताने के लिए कि महामारी के कारण लगे लॉकडाउन से गरीबी और असमानता प्रभावित नहीं हुई है, कोविड-19 महामारी के दौरान सरकार द्वारा मुफ्त भोजन हस्तांतरण को शामिल करना पड़ा.
आधिकारिक डेटा की इस कमी का मतलब है कि विश्लेषकों को यह देखने के लिए अन्य मेट्रिक्स पर ध्यान देना होगा कि आर्थिक सीढ़ी के निचले पायदान पर मौजूद लोग कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं. ऊपरी स्तर कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं, यह देखने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत करने की कोई आवश्यकता नहीं है. इसे विशिष्ट उपभोग कहा जाता है.
लेकिन गरीबी को अभावों से मापा जाता है – उदाहरण के लिए दोपहिया वाहनों या छोटी कारों की बिक्री का अभाव. अगर किसी परिवार को लगता है कि वह अभी दोपहिया वाहन नहीं खरीद सकता, तो इसकी पूरी संभावना है कि वह खुद को गरीब मानता है. और यदि वह खुद को गरीब मानता है, तो ज़ाहिर है वह वर्तमान स्थिति से खुश नहीं है. यह मौजूदा राजनेताओं के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
जबरदस्त बात यह है इस अहसास का होना कि भारत का निचला आधा हिस्सा बिल्कुल भी अच्छा नहीं कर रहा है. वे बस काम ही करने वाले हैं, और जल्द ही किसी सुधार की गुंजाइश बहुत कम है. इसका मतलब है कि सब्सिडी जारी रहेगी. चिंता की बात यह है कि इसका मतलब यह भी है कि सब्सिडी खर्च बढ़ने की संभावना है क्योंकि राजनेता तरह-तरह की कई मुफ्त सुविधाओं के माध्यम से अनेक आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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