नई दिल्ली: आर्थिक मामलों के सचिव अजय सेठ ने दिप्रिंट को बताया कि सार्वजनिक क्षेत्र के जो बैंक वर्तमान में 25 प्रतिशत की न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं, वे इस समस्या को हल करने के लिए “अगले कुछ महीनों में” बाज़ार में उतरेंगे.
दिप्रिंट द्वारा किए गए विश्लेषण में पाया गया है कि 12 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से आधे, बाज़ार नियामक भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा निर्धारित न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं.
हालांकि यह नियमों का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि सरकार ने 2023 में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) को इन आवश्यकताओं से छूट देने का अधिकार खुद को दिया था, लेकिन बाज़ार के विशेषज्ञों का कहना है कि कम सार्वजनिक शेयरधारिता से शेयर मूल्य में हेरफेर की संभावना बढ़ सकती है.
सेठ ने दिप्रिंट को दिए एक साक्षात्कार में कहा, “हां, कुछ बैंक 25 प्रतिशत पर नहीं हैं, और हमें उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में, जो बैंक 25 प्रतिशत से कम सार्वजनिक शेयरधारिता वाले हैं, वे बाजार में आ जाएंगे.”
उन्होंने कहा, “उनमें से कुछ के लिए एक बार में 25 प्रतिशत तक पहुंचना संभव नहीं होगा.” “इसमें कुछ साल लगेंगे, लेकिन यह हमारा प्रयास है और सरकार के साथ-साथ उन बैंकों के मैनेजमेंट के साथ हमारी बातचीत भी है.”
सेबी के नियमों के अनुसार, एक प्रमोटर किसी कंपनी में अधिकतम 75 प्रतिशत शेयर रख सकता है, और 25 प्रतिशत हिस्सेदारी फ्री फ्लोट होनी चाहिए या दूसरे शब्दों में, शेयर जनता के पास होने चाहिए.
केरल स्थित निवेश सेवा कंपनी जियोजित फाइनेंशियल सर्विसेज के मुख्य निवेश रणनीतिकार डॉ. वी. के. विजयकुमार ने दिप्रिंट को बताया कि न्यूनतम 25 प्रतिशत सार्वजनिक फ्लोट की आवश्यकता महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे शेयर मूल्य में हेरफेर को रोकने में मदद मिलती है.
विजयकुमार ने कहा, “इसके पीछे तर्क यह है कि यदि प्रमोटर की हिस्सेदारी अधिक है और सार्वजनिक हिस्सेदारी बहुत कम है, तो शेयर की कीमतों में हेरफेर किया जा सकता है. आप रिलायंस, भारती एयरटेल, इंफोसिस या आईसीआईसीआई बैंक जैसी बड़ी कंपनी के शेयरों में हेरफेर नहीं कर सकते क्योंकि सार्वजनिक फ्लोट बहुत बड़ा है, और भले ही बड़े ऑपरेटर एक साथ मिल जाएं, वे कीमत में हेरफेर नहीं कर सकते,”.
उन्होंने कहा कि पारदर्शिता के लिए, यह ज़रूरी है कि सार्वजनिक फ्लोट लगभग 25 प्रतिशत होना चाहिए.
ऑडिट फर्म ग्रांट थॉर्नटन भारत के पार्टनर विवेक अय्यर ने कहा कि न्यूनतम शेयरधारिता नियम यह सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित किए गए हैं कि अन्य निवेशकों द्वारा बड़ी निजी हिस्सेदारी के कारण सार्वजनिक शेयरधारक हितों को कम न किया जाए. साथ ही, फ्री फ्लोट शेयर पर्याप्त प्राइस डिस्कवरी सुनिश्चित करते हैं, जिससे उद्यम का पर्याप्त मूल्य प्रतिबिंबित होता है.
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वित्तीय और गैर-वित्तीय पीएसयू
बैंकों के अलावा, तीन अन्य वित्तीय पीएसयू हैं – एलआईसी, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी और जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया – जिनकी सार्वजनिक हिस्सेदारी कम है. तीनों में सरकार की हिस्सेदारी 85 प्रतिशत से अधिक है, जिसका मतलब है कि सार्वजनिक हिस्सेदारी 15 प्रतिशत से कम है.
इसके अलावा 62 गैर-वित्तीय पीएसयू भी हैं, जो स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध हैं. इनमें से नौ कंपनियां, जिनमें एसजेवीएन, एमएमटीसी, मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स, इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉरपोरेशन (आईआरएफसी) और इंडिया टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (आईटीडीसी) शामिल हैं, कम से कम 25 प्रतिशत फ्री फ्लोट शेयरों के लिए सेबी के दिशा-निर्देशों को पूरा नहीं करती हैं.
भारतीय शेयर बाजारों में जोरदार तेजी के बीच, स्वतंत्र बाजार विश्लेषक अजय बोडके ने कहा कि ऐसे उत्साह के समय में लाखों खुदरा निवेशकों की सुरक्षा के लिए नियामक अधिकारियों और जांच एजेंसियों के बीच सतर्कता की आवश्यकता है.
उन्होंने कहा कि वर्तमान में चल रही ऐसी ही एक हेराफेरी, जो खुदरा निवेशकों को खतरे में डालती है, में कम फ्लोटिंग स्टॉक वाली कंपनियों को निशाना बनाना शामिल है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “कई सरकारी स्वामित्व वाले पीएसयू और छोटे सरकारी स्वामित्व वाले बैंक (पीएसबी) ऐसी रैंप-अप योजनाओं के लिए पसंदीदा खेल का मैदान बन गए हैं.”
उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सट्टेबाजों को भरोसा है कि शेयरों की बड़े पैमाने पर आपूर्ति और उसके बाद शेयर की कीमतों में गिरावट की संभावना नहीं है, क्योंकि शेयरों की आगे की बिक्री के लिए अनुमोदन प्रक्रिया लंबी, थकाऊ है और इसमें कई स्तर शामिल हैं.
उन्होंने यह भी बताया कि कई पीएसबी के शेयर अब अपने बड़े, अधिक कुशल और लाभदायक सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय साथियों की तुलना में काफी अधिक मूल्यांकन पर कारोबार कर रहे हैं, जो अपने बड़े फ्लोटिंग स्टॉक के कारण बड़े पैमाने पर सट्टा कारोबार से सुरक्षित रहते हैं.
इसी तरह के विचार व्यक्त करते हुए विजयकुमार ने कहा, “स्टॉक के मामले में, जहां भारत सरकार 75 प्रतिशत से अधिक की मालिक है, चूंकि फ्लोटिंग स्टॉक बहुत कम है, इसलिए कुछ ऑपरेटर कीमतें बढ़ा सकते हैं. और यही कारण है कि इनमें से कुछ के मामले में, स्टॉक में 5-10 गुना की वृद्धि देखी गई है. यह पिछले कुछ वर्षों में 500-1000 प्रतिशत की वृद्धि होगी. यह वांछनीय नहीं है.”
अय्यर ने कहा कि सार्वजनिक उपक्रम, काफी हद तक, सरकार की प्राथमिकताओं को क्रियान्वित करते हैं, जो राष्ट्रीय हित में हैं, एक स्थायी पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण पर दीर्घकालिक ध्यान केंद्रित करते हैं, और जरूरी नहीं कि वे अल्पावधि में लाभप्रदता पर ध्यान केंद्रित करें.
उन्होंने कहा, “यह कहने के बाद, वे यह भी नहीं चाहते कि सार्वजनिक शेयरधारक दीर्घकालिक विकास में भागीदारी करने से चूक जाएं. इसके अलावा, पीएसयू शेयरों का बड़े पैमाने पर कम मूल्यांकन किया जाता है, जो दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अच्छे निवेश होते हैं और इसलिए, न्यूनतम शेयरधारिता नियम से छूट से उत्पन्न होने वाले जोखिमों की भरपाई करते हैं.”
डीमैट खातों में वृद्धि
डीमैट खातों में बढ़ोत्तरी इस बात का संकेत है कि अधिक लोग इक्विटी में निवेश कर रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में शेयरों का व्यापार करने और उन्हें रखने के लिए आवश्यक डीमैट खातों की संख्या इस साल मार्च में 150 मिलियन का आंकड़ा पार कर गई, जो मार्च 2020 के अंत में 40.8 मिलियन डीमैट खातों से लगभग तीन गुना वृद्धि है.
यह पूछे जाने पर कि क्या सरकार के लिए अब उन कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने का सही समय है, जिनमें उसके पास 75 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी है, क्योंकि उनका प्रदर्शन अच्छा रहा है, अय्यर ने कहा कि पीएसयू होल्डिंग में विनिवेश केवल उस कीमत पर निर्भर नहीं करता है जिस पर स्टॉक कारोबार कर रहे हैं, बल्कि यह संगठन की परिपक्वता पर भी निर्भर करता है कि वह बिना किसी सरकारी निर्देश के स्थायी रूप से विकास कर सके.
उन्होंने कहा, “इस अंतर्संबंध के आधार पर, सरकार मामला-दर-मामला पीएसयू के लिए विनिवेश करने का फैसला कर सकती है या नहीं भी कर सकती है.”
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