नई दिल्ली: अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसके अपराध दर को कम कर सकती है. लेकिन अमेरिका में प्रकाशित और कई भारतीय राज्यों में किये गए एक नए अध्ययन से पता चलता है कि सिर्फ आर्थिक समृद्धि की तुलना में सामाजिक खर्च में वृद्धि और बच्चों के लिए अलग से बजट का आवंटन, बच्चों के खिलाफ अपराधों को कम करने में अधिक प्रभावी हो सकता है.
साल 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की एक तिहाई से अधिक आबादी 18 वर्ष से कम आयु की है, और नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों से पता चला है कि देश में हर चार मिनट में एक बच्चे के खिलाफ अपराध की सूचना मिलती है.
लेवी इकोनॉमिक्स इंस्टीट्यूट ऑफ बार्ड कॉलेज, न्यूयॉर्क नाम के एक आर्थिक शोध संगठन द्वारा प्रकाशित एक पेपर में इसके लेखकों ने उन संभावित कारकों का विश्लेषण किया है जो बच्चों के खिलाफ अपराध में कमी के साथ जुड़े हुए हैं. ये कारक हैं – आर्थिक विकास, सामाजिक खर्च और बच्चों के लिए अलग से बजट (चाइल्ड स्पेसिफिक बजट)
इस सप्ताह की शुरुआत में प्रकाशित यह अध्ययन, दिल्ली स्थित थिंक टैंक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के जितेश यादव और लेखा चक्रवर्ती द्वारा तैयार किया गया था.
अपराधों को कौन सी चीज कम करती है?
लेखकों ने सबसे पहले आर्थिक विकास की पड़ताल की जिसे भारतीय राज्यों की प्रति व्यक्ति आय (प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद) द्वारा मापा गया और इसी के साथ 2013 और 20 के बीच उन राज्यों में बच्चों से संबंधित अपराधों की संख्या के बीच संबंधों की भी पड़ताल की.
अध्ययन के अनुसार प्रति व्यक्ति आय और बच्चों के खिलाफ अपराध एक दूसरे से कुछ हद तक सकारात्मक रूप से संबंधित हैं. लेखकों ने पाया कि दरअसल उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों में बच्चों के खिलाफ अपराधों की संख्या अधिक होती है.
लेखकों द्वारा आगे के विश्लेषण से यह पता चला कि लक्षित रूप से किये गए सामाजिक खर्च का बच्चों से संबंधित अपराध को कम करने पर एक मजबूत असर पड़ता है.
इस अध्ययन में राज्यों के बजट दस्तावेजों से लिए गए सामाजिक क्षेत्र से सम्बंधित खर्च के उन आंकड़ों (साल 2013 से 20 तक) का इस्तेमाल किया गया, जिनमें बताया गया है कि स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सामाजिक सुविधाओं पर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है. इस के बाद किये गए अध्ययन में कहा गया है कि सामाजिक बुनियादी ढांचे पर लंबी अवधि वाले खर्च में एक प्रतिशत की वृद्धि से बच्चों के खिलाफ अपराध में 0.34 प्रतिशत की कमी आती है.
लेखकों का कहना है, ‘अनुमानित गुणांक के आधार पर, सामाजिक खर्च में वृद्धि का प्रति व्यक्ति जीएसडीपी में उसी के बराबर वृद्धि की तुलना में कहीं वृहत प्रभाव पड़ता है. इसलिए, यदि लक्ष्य बच्चों के खिलाफ अपराध को कम करना है, तो केवल राज्य को समृद्ध बनाना ही पर्याप्त नहीं है. इसके बजाय, सामाजिक खर्च पर ध्यान केंद्रित करने वाली नीति में बेहतर परिणाम प्रदान करने की क्षमता होती है.’
लेखकों ने बच्चों के लिए अलग से बजट बनाये जाने के प्रभाव का भी अध्ययन किया यह कुछ राज्यों द्वारा हाल ही में अपनाया गया एक फार्मूला है और बिहार, असम, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों ने हाल के दिनों में बाल बजट पेश किये हैं
चाइल्ड स्पेसिफिक बजट मूल रूप से सामाजिक खर्च का एक हिस्सा है जो बच्चों और उनके कल्याण को लक्षित करने वाली योजनाओं के साथ तैयार किया जाता है. स्कूली शिक्षा, खेलकूद और युवाओं से जुड़ी गतिविधियां, बच्चों से जुड़ा सामाजिक और कल्याणकारी खर्च इस तरह के खर्च का एक बड़ा हिस्सा होता है.
अध्ययन में कहा गया है कि इन नीतियों को लागू किये जाने की तारीख के आधार पर, अलग ‘बाल बजट’ होने से बच्चों के खिलाफ अपराध में 0.38 से लेकर 0.40 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है. इसमें कहा गया है, ‘किसी राज्य में ‘बाल बजट’ लागू किये जाने की अवधि का बच्चों के खिलाफ अपराध की घटनाओं से विपरीत संबंध पाया जाता है.’
एनआईपीएफपी के चक्रवर्ती के अनुसार, यह अध्ययन इस बात को दर्शाता है कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए आर्थिक विकास ही एकमात्र वह उद्देश्य नहीं है जिसे हासिल किया चाहिए. बेहतर परिणामों के लिए सामाजिक बुनियादी ढांचे पर किया जाने वाला लम्बी अवधि का खर्च अधिक महत्वपूर्ण है.
वे कहती हैं, ‘उच्च आर्थिक विकास अपने आप में बेहतर मानव विकास से सम्बंधित परिणामों में तब्दील नहीं होता है. यह एक पहले से स्थापित तथ्य है और यही कारण है कि दीर्घकालिक सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन के उपकरण, जैसे की लिंग आधारित बजट और बाल बजट, सार्वजनिक नीतियों की भूमिका को आकार देने में बहुत महत्वपूर्ण हैं.’
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