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Sunday, 23 June, 2024
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‘आर्थिक संकट, जेपी आंदोलन, न्यायपालिका से टकराव’- किन कारणों से इंदिरा गांधी ने लगाई थी इमरजेंसी

आपातकाल लगे 46 बरस बीत चुके हैं लेकिन भारतीय राजनीति में घटी ये अभूतपूर्व घटना आज भी लोगों को विस्मित करती है और इसके कारणों को खंगालने के लिए बार-बार मजबूर करती है.

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लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की समझ रखने वाले लोगों में बीते कुछ सालों में भारतीय लोकतांत्रिक परिदृश्य को लेकर चिंताएं और बेचैनी बढ़ी हैं. समय-समय पर अकादमिक, राजनीतिक और बुद्धिजीवी वर्ग के बीच से ये स्वर उठता रहा है कि भारत में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है और निरंकुशता बढ़ रही है.

बीते सालों में लोकतांत्रिक सूचकांक भी इसी तरफ इशारा करते हैं. वी-डेम की हालिया रिपोर्ट में तो पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत को ‘स्वतंत्र लोकतंत्र’ की श्रेणी से हटाकर ‘आंशिक तौर पर स्वतंत्र लोकतंत्र’ की श्रेणी में डाल दिया गया. लेकिन सत्ता में बैठे नेता इन सभी आरोपों को खारिज कर इसे षड्यंत्र बताते रहे हैं.

लोकतंत्र के हालात और उससे उभरते सवालों को वर्तमान समय में इसलिए केंद्र में लाना जरूरी हो जाता है क्योंकि आज से ठीक 46 बरस पहले ही देश के लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर बनाने की पहली जोरदार कोशिश की गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की आधी रात को देश में इमरजेंसी लगाने का फैसला किया जिसकी जानकारी उनकी कैबिनेट को भी नहीं थी. रातों रात तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से इसकी मंजूरी भी ले ली गई थी.

आपातकाल लगे 46 बरस बीत चुके हैं लेकिन भारतीय राजनीति में घटी ये अभूतपूर्व घटना आज भी लोगों को विस्मित करती है और इसके कारणों को खंगालने के लिए बार-बार मजबूर करती है.

दिप्रिंट आज उन्हीं कारणों की पड़ताल कर रहा है जो इमरजेंसी लगाने के पीछे की वजह थी.


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महंगाई और 1970 के दशक की उथल-पुथल

हाल ही में भारत सरकार ने जानकारी दी कि खुदरा महंगाई दर में वृद्धि हुई है, जो कि आरबीआई के लक्ष्य (4+/- 2) को पार कर चुकी है. पेट्रोल और डीजल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर के पार जा चुके हैं. जरूरी सामान की कीमत बेतहाशा बढ़ रही हैं और अब सोशल मीडिया के जरिए लोग इसे जाहिर भी कर रहे हैं.

2014 में जब केंद्र में मोदी सरकार आई थी तो बड़े-बड़े पोस्टरों और बैनरों में यही कहा गया था कि महंगाई, भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और भाजपा की सरकार आने पर इसमें लगाम लगेगी. लेकिन 7 बरस बाद भी ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा है, इसे सिद्ध करने के लिए तमाम सरकारी आंकड़े हमारे बीच मौजूद हैं.

लेकिन याद करें तो 1970 के दशक में भी देश में कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी. आज की ही तरह उस समय भी इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता के हाथों में देश की कमान थी. लेकिन देश की आर्थिक स्थिति काफी खस्ताहाल थी.

1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ  का नारा देकर लोगों के बीच में पैठ बनाई और भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की. लेकिन तभी पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे उथल-पुथल के कारण वहां से करीब 8 मिलियन लोग भारत में शरण लेने आए, पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध हुआ और बांग्लादेश बना जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी.

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बढ़ने के कारण जरूरी सामानों की कीमतें बढ़ने लगीं. 1973 में 23 प्रतिशत से लेकर 1974 तक कीमतों में वृद्धि 30 प्रतिशत तक पहुंच गई. इस तरह की महंगाई ने लोगों को परेशान कर दिया. उन सालों में मॉनसून भी अच्छा नहीं रहा और कृषि उत्पादन में भी काफी कमी आई.

इस बीच गैर-कांग्रेसी पार्टियां लामबंद होनी शुरू हो गईं जिससे इंदिरा गांधी पर दबाव बढ़ने लगा. वहीं पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई जिसका लक्ष्य था पूंजीवादी सत्ता को हथियारबंद तरीके से उखाड़ फेंकना. राज्य सरकार ने इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की लेकिन इसने उस वक्त काफी चिंताएं बढ़ा दी थीं.


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गुजरात और बिहार का छात्र आंदोलन

बिहार (अब्दुल गफूर) और गुजरात (चीनाभाई पटेल) दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी. खाद्य सामानों, तेल और जरूरी उत्पादों के दामों में वृद्धि के कारण साल 1974 में गुजरात में छात्रों ने आंदोलन शुरू किया. गुजरात के एलडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के छात्रों ने खाद्य कीमतों में वृद्धि और बढ़ती फीस का विरोध करना शुरू किया जो आगे चलकर नवनिर्माण आंदोलन  में बदल गया.

छात्र नेताओं ने पूरी शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने, महंगाई, असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाने शुरू किए. जिसका नतीजा ये हुआ कि 1974 में ही चीनाभाई पटेल की सरकार गिर गई. छात्रों, विपक्षी नेताओं के भारी दबाव के कारण जून 1975 में वहां फिर से चुनाव कराए गए जिसमें कांग्रेस की हार हुई.

जेपी आंदोलन

गुजरात के बाद महंगाई, फीस वृद्धि, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बिहार के छात्रों ने विरोध करना शुरू किया. अहिंसात्मक आंदोलन की शर्त पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इस आंदोलन की कमान संभाल ली.

भारतीय राजनीति में जयप्रकाश नारायण उन कुछ लोगों में शामिल थे जिन्होंने राजनीति छोड़ सामाजिक तौर पर काम करना शुरू कर दिया था और जिनकी नैतिकता को लेकर लोगों में जरा सा भी संदेह नहीं था.

गुजरात के बाद बिहार में भी कांग्रेस सरकार की बर्खास्तगी की मांग होने लगी लेकिन इंदिरा गांधी इसके पक्ष में नहीं थीं. लेकिन 5 जून 1975 को जेपी ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर दिया और बिहार सरकार के खिलाफ बंद, धरने और हड़ताले शुरू हो गईं. जेपी इस आंदोलन को बिहार से आगे बढ़ाकर पूरे देश में ले जाना चाहते थे.

इंदिरा गांधी सरकार पर दबाव बढ़ने लगा था और उसी बीच 1974 में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में रेलवे की हड़ताल हो गई.


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न्यायपालिका से टकराव

1970 का दशक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव का भी दौर था. इंदिरा गांधी संविधान के मूल ढांचे में बदलाव करना चाहती थीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ अड़ा हुआ था. इस संकट का समाधान तब निकला जब 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधान की कुछ मूलभूत चीज़ें हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता.

भारती मामले के बाद दो मौके और आए जब अदालत और कार्यपालिका में टकराव बढ़ा. पारंपरिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर की जाती है लेकिन इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठ जजों को दरकिनार कर एएन रे को प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर दिया. इस फैसले को राजनीति से प्रभावित माना गया क्योंकि जिन तीन जजों को दरकिनार किया गया था उन्होंने सरकार के खिलाफ फैसले दिए थे.

न्यायपालिका से टकराव तब और बढ़ा जिसने आगे चलकर देश में इमरजेंसी लगने को और करीब ला दिया. 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1971 में इंदिरा गांधी के लड़े चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. समाजवादी नेता राजनारायण ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अदालत में चुनौती दी थी.

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123/7 के तहत दो गड़बड़ियों में इंदिरा को दोषी पाया. पहला, इंदिरा गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में मंच के लिए लगी बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों की मदद ली और दूसरा, पीएमओ में कार्यरत अधिकारी यशपाल कपूर की चुनाव प्रचार में मदद ली गई.


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शाह कमीशन

इमरजेंसी के समाप्त होने और जनता पार्टी की सरकार बनने के कुछ समय बाद ही मोरारजी देसाई ने मई 1977 को सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस जेसी शाह के नेतृत्व में जांच आयोग का गठन किया जिसका काम आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच कर रिपोर्ट सौंपना था.

लंबी जांच पड़ताल के बाद आयोग ने पाया कि आपातकाल की घोषणा से पहले किसी सरकारी रिपोर्ट में कानून व्यवस्था खराब होने की संभावना नहीं बताई गई थी. यहां तक कि तत्कालीन गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी को भी इसकी जानकारी नहीं थी. इस रिपोर्ट को संसद की दोनों सदनों में भी रखा गया.

शाह रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया कि राष्ट्रपति को गुमराह करके उनसे हस्ताक्षर कराए गए और सरकारी स्तर पर बार-बार झूठ प्रसारित किया गया.

शाह कमीशन ने अपनी दूसरी अंतरिम रिपोर्ट में बताया कि दिल्ली के तुर्कमान गेट क्षेत्र से झुग्गी-झोपड़ियों को जबरन हटाया गया और सैकड़ों लोगों की जबरन नसबंदी कराई गई.

कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में एक और घटना का जिक्र किया है जिसमें केरल के कालीकट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाले फाइनल ईयर के छात्र पी. राजन की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई. केरल सरकार ने हाई कोर्ट में खुद इस बात को कबूल किया था.

इमरजेंसी के दौर को संवैधानिक संकट के साथ-साथ राजनीतिक संकट का दौर भी कहा जा सकता है. बहुमत के साथ चुनकर आये नेता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को कैसे थाम दिया? ये सवाल वर्तमान दौर में लगातार उठता रहता है कि क्या लोकतंत्र का इस्तेमाल करके ही लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है? ये बहस लंबी है और इस पर गंभीरता से चिंतन की जरूरत है.

इमरजेंसी के दौरान एक और महत्वपूर्ण चीज निकल कर आई वो थी संसदीय लोकतंत्र में विरोध-प्रदर्शनों की भूमिका. जिसके बाद देश ने चिपको आंदोलन, महाराष्ट्र में दलित पैंथर का उभार, नर्मदा बचाओ आंदोलन, भारतीय किसान यूनियन जैसे जनआंदोलन देखें.


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