नारायणपुर/जगदलपुर/दंतेवाड़ा: छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में सूरज ढलने के कुछ ही मिनट बाद हरे (कैमोफ्लेज) रंग की वर्दी में लगभग आधा दर्जन सुरक्षाकर्मी अच्छी रोशनी वाले कमरे में मोबाइल फोन पर बातचीत कर रहे हैं. वह अपने ऑपरेशन के क्षेत्र के मार्गों के लिए एक मोबाइल एप्लिकेशन, अल्पाइनक्वेस्ट पर मार्क किए गए जगह के रूट्स को दोबारा चैक करते हैं.
नेविगेशन ऐप यूजर्स को इंटरनेट या ऑफलाइन के बिना नेविगेट करने की परमिशन देता है. मूल रूप से ट्रेकर्स के लिए बनाया गया, इसका यूज़ दुनिया भर की सेनाओं द्वारा किया जाता है, जिसमें यूक्रेन में चल रहे युद्ध में रूसी सेना भी शामिल है.
कमरे की सेटिंग, दीवार पर एक मानचित्र और सोफिस्टिकेटेड ऐप्स से भरे कंप्यूटर, बाहरी लोगों को यह सोचने में गुमराह कर सकते हैं कि यह एक समृद्ध शहरी केंद्र में स्थित है, न कि नारायणपुर, भारत के प्रमुख नक्सल प्रभावित जिलों में से एक, जहां सरकारी स्वामित्व वाली बीएसएनएल सहित केवल दो दूरसंचार फर्म हैं.
इससे पहले दिन के दौरान, डीआरजी कांस्टेबल सोमनाथ समरथ अपने सीनियर्स द्वारा आयोजित एक ब्रीफिंग सेशन से बाहर आए थे. 12वीं पास यह व्यक्ति अंग्रेज़ी में पारंगत नहीं है, लेकिन वह बिना किसी परेशानी के अल्पाइनक्वेस्ट यूज़ करने में में माहिर है.
नारायणपुर निवासी समरथ ने फोन में ऐप दिखाते हुए दिप्रिंट को बताया, “एसपी सर (प्रभात कुमार) और रॉबिन्सन सर (एएसपी, ऑपरेशन रॉबिन्सन गुरिया) ने हमें अल्पाइनक्वेस्ट का यूज़ करना सिखाया है. अब हम इस ऐप पर रूट्स फॉलो करते हैं. यहां तक कि जो लोग पहले माओवादियों के साथ थे और कम पढ़े-लिखे हैं, वह भी ऐसे ऐप का यूज़ कर सकते हैं और गूगल अर्थ को समझ सकते हैं और बिना किसी परेशानी के रूट्स देख सकते हैं.”
समरथ छत्तीसगढ़ में जिला रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के 5,000 जवानों में से एक हैं. बस्तर के नारायणपुर जिले में तैनात, वह उस समूह के सदस्य हैं जिसने पिछले महीने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू को मार गिराया था.

2011 में स्थापित और 2015 में अपने वर्तमान स्वरूप में औपचारिक रूप से स्थापित, DRG छत्तीसगढ़ में वामपंथी उग्रवाद (LWE) से निपटने के लिए स्थानीय युवाओं की भर्ती करता है. अधिकारी बताते हैं कि DRG की इलाके से अच्छी समझ, जंगलों के अंदर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं और बेजोड़ सहनशक्ति इसे केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPF) से अलग बनाती है.
पुलिस महानिदेशक (DGP) अरुण देव गौतम ने दिप्रिंट को बताया, “मुख्य रूप से गृह जिलों में तैनात, DRG के जवान ज़मीन पर सरकार की सबसे सटीक आंखें और कान साबित हुए हैं. उनमें से कुछ ऐसे गांवों से आते हैं जो कभी माओवादियों के गढ़ हुआ करते थे और इलाके की जानकारी और भाषा से परिचित होते हैं.”
अपनी स्थापना के बाद से 10 साल में DRG ने अबूझमाड़, इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र के जंगलों के अंदर माओवादी कैडरों पर हमला किया है और उन इलाकों में घुसपैठ की है, जिन्हें कभी सुरक्षा बलों के लिए अभेद्य माना जाता था.

बस्तर क्षेत्र के “प्रीमियम स्ट्राइक फोर्स” को बुलाते हुए महानिरीक्षक (आईजी) सुंदरराज पट्टिलिंगम ने कहा कि डीआरजी की लोकल फैक्टर्स जैसे इलाके, जंगल, बोलियों और रीति-रिवाजों के बारे में जागरूकता इसे अन्य बलों पर से अलग बनाती है.
नक्सल रोधी अभियानों के अतिरिक्त महानिदेशक विवेकानंद सिन्हा का कहना है कि डीआरजी हमेशा प्रभावी रहा है, लेकिन माओवादी समर्थकों पर कार्रवाई जैसे फैक्टर्स में सुधार ने अभियानों को उल्लेखनीय रूप से प्रभावी बना दिया है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “वह जो रिजल्ट दे रहे हैं, वह नक्सल क्षेत्रों में सुरक्षा तंत्र में सुधार के साथ-साथ उनके सुधार का नतीजा हैं.”
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झटके से उबरना
सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) की नियुक्ति को ‘असंवैधानिक’ करार दिए जाने के ठीक 45 दिन बाद, छत्तीसगढ़ सरकार ने 19 अगस्त 2011 को छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अध्यादेश लाया, जिसमें सहायक कांस्टेबलों की भर्ती के नियम तय किए गए.
एसपीओ सशस्त्र आदिवासी युवा थे, जिन्हें माओवादियों से लड़ने के लिए तैयार किया गया था, जहां पुलिस नागरिकों तक पहुंचने या उनकी रक्षा करने में असमर्थ थी. उन्हें माओवादियों से निपटने के लिए बस्तर संभाग में सरकार द्वारा समर्थित आंदोलन सलवा जुडूम के हिस्से के रूप में नियुक्त किया गया था.
हालांकि, मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतें बढ़ने के साथ, खासकर सुकमा जिले के तीन गांवों में घरों को जलाने के बाद, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने सलवा जुडूम की संवैधानिक वैधता के साथ-साथ माओवादियों के खिलाफ एसपीओ के इस्तेमाल को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
अगस्त 2011 के अध्यादेश के ज़रिए सरकार ने इनमें से कई एसपीओ को योग्यता और ट्रेनिंग के आधार पर सहायक कांस्टेबल बनाया था. भर्ती नियमों के लिए निर्धारित पांच मानदंडों में स्थानीय घर, स्थानीय क्षेत्र की जानकारी, टोपोग्राफी और स्थानीय बोली से परिचित होना ज़रूरी था.
सिलेक्शन लिस्ट 100 स्कोर की शारीरिक दक्षता परीक्षा और एक जिले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक-रैंक के अधिकारी की अध्यक्षता वाली सिलेक्शन कमिटी द्वारा आयोजित 15 अंकों के इंटरव्यू के आधार पर तैयार की गई थी.
नए रंगरूटों को एसएलआर, इंसास और एलएमजी जैसे हथियारों के साथ-साथ मानचित्र पढ़ने, फील्डक्राफ्ट और रणनीति में छह महीने की ट्रेनिंग दी जानी थी.
मई 2015 तक कोई औपचारिक नामकरण नहीं था, जब छत्तीसगढ़ सरकार ने डीआरजी के तहत अतिरिक्त पदों को मंजूरी देने के पुलिस बल के अनुरोध को स्वीकार कर लिया. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने उस साल 14 मई को बीजापुर, दंतेवाड़ा और सुकमा के तीन जिलों में 600 डीआरजी कर्मियों की भर्ती को मंजूरी दी.

2015 से पहले ये कर्मी क्रैक टीम और ई-30 (एलीट-30) जैसे विभिन्न नामों के तहत काम करते थे. जैसे-जैसे उनकी सफलता जिला पुलिस से आगे निकल गई, बस्तर के अन्य जिलों में भी इसी तरह की व्यवस्था की मांग होने लगी.
हालांकि, अधिकारियों ने बताया कि जिला-विशिष्ट विशेष इकाइयों के गठन के पीछे असली प्रेरणा 2013 के दरभा हमले के बाद शुरू हुई, जिसमें माओवादियों ने कांग्रेस के पूरे राज्य नेतृत्व का सफाया कर दिया था.
पुलिस के एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “उस घटना से पहले राजनीतिक हत्याएं आम नहीं थीं. इसने रायपुर और दिल्ली दोनों जगहों पर लोगों में चिंता पैदा कर दी थी. माओवादी लड़ाई में यह एक महत्वपूर्ण पल था, जब सरकार को एहसास हुआ कि राज्य को अलग-अलग रणनीति के साथ सशस्त्र कैडरों से लड़ना होगा और एक बार फिर आदिवासियों पर निर्भर रहना होगा.”
2013 में विधानसभा चुनाव और 2014 में आम चुनाव — दो चुनाव कराने के चुनौतीपूर्ण कार्य का सामना करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने उस साल वर्तमान डीजीपी गौतम को बस्तर रेंज का आईजी नियुक्त किया.
इस बीच, तत्कालीन यूपीए सरकार ने कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए 500 से अधिक सीएपीएफ कंपनियों को तैनात किया. हालांकि, नक्सल रोधी अभियानों के लिए छत्तीसगढ़ को गुरिल्ला युद्ध में सीएपीएफ की क्षमता के बारे में यकीन नहीं था और इसलिए जिला पुलिस प्रमुखों ने अपने स्तर पर त्वरित अभियान चलाने के लिए छोटी टीमों का गठन किया. उन्होंने माओवादियों की मौजूदगी वाले क्षेत्रों में हमला किया और घात लगाकर हमला करने से बचने के लिए तेज़ी से वापसी की.
गौतम ने दिप्रिंट को बताया, “इलाके, भाषा और जंगल के अंदर जाने, बाहर से आए सुरक्षा बलों को मार्गदर्शन देने और स्थानीय बोली में संवाद के कारण ज़मीन पर मौजूद इनपुट की पुष्टि करने की जानकारी रखने वाले इन युवाओं ने नक्सल रोधी अभियानों में नियमित बल की तुलना में उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रदर्शन किया. इसने आज के डीआरजी की नींव रखी.”

पूर्व महानिदेशक आर.के.विज, जिन्होंने नक्सल क्षेत्र में सुरक्षा बलों की कमी देखी थी, बताते हैं कि डीआरजी एक ऐसा ख्याल था जो पहले से ही कई वर्षों से विलंबित था.
विज ने याद किया, “नक्सल प्रभावित जिलों में पुलिस थानों में पहले से ही कर्मियों की कमी थी. पुलिस थानों से कर्मियों की संख्या की एक सीमा थी, जिन्हें उनकी सुरक्षा से समझौता किए बिना हटाया जा सकता था.”
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महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी
कुमारी दामिनी उइके उन दर्जन भर महिला डीआरजी कर्मियों में से हैं जो जंगल में घेराबंदी और तलाशी अभियान चलाने के कौशल को निखार रही हैं. नारायणपुर में वे लगभग 100 महिला कर्मियों में से एक हैं जिन्हें ‘बस्तर फाइटर्स’ का खिताब मिला है.
दामिनी को डीआरजी सदस्य होने पर गर्व है. सितंबर 2022 में बल में शामिल होने के बाद, उनके नाम लगभग 15 मुठभेड़ों का क्रेडिट है, जिसमें वह गोलीबारी भी शामिल है जिसमें बसवराजू को मार गिराया गया था.
दामिनी ने दिप्रिंट को बताया, “पहले, हम ऑपरेशन से डरते थे और लंबे समय तक भार उठाना एक चुनौती थी, लेकिन अब हम कई मुठभेड़ों में भाग लेकर खुद को साबित कर चुके हैं.”
नारायणपुर की 25 साल की दामिनी अपने परिवार की पहली महिला हैं जो सुरक्षा बलों से जुड़ी हैं. अपने हाथ में एके-47 राइफल थामे उन्होंने कहा, “परिवार में सभी ने मेरा साथ दिया क्योंकि मुझे वर्दी बहुत पसंद है. मैं हमेशा से ही सेना में शामिल होना चाहती थी. मुझे अपने हाथ में राइफल थामने पर गर्व होता है. मैं कभी भी रेगुलर बल में नहीं रहना चाहती थी. मुझे पता है कि हम इस क्षेत्र का इतिहास फिर से लिख रहे हैं.”

दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में केशकाल घाटी के दूसरी तरफ, उनकी बैचमेट हिना यादव की भी ऐसी ही, अगर ज़्यादा दिलचस्प न हो, कहानी तो है. उन्होंने नए स्थापित शूटिंग स्टिम्युलेटर पर ट्रेनिंग सेशन से ब्रेक के दौरान दिप्रिंट को बताया, “मेरे चाचा छत्तीसगढ़ पुलिस में थे. मैंने डीआरजी के बारे में सुना था और हमेशा से ही बल में शामिल होने की तलाश में थी.”
25 साल की हिना ने कहा कि डीआरजी महिला कर्मियों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज़मीन पर दिखने वाली ज़िंदगी से अलग और ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है.
दंतेवाड़ा में वे देवी दंतेश्वरी के शहर के प्रतिष्ठित मंदिर में लगभग 100 महिला डीआरजी जवानों में से एक हैं, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘दंतेश्वरी फाइटर्स’ के नाम से जाना जाता है. इसी तरह, सुकमा में एक महिला डीआरजी समूह को ‘दुर्गा फाइटर्स’ के नाम से जाना जाता है.
हिना और दामिनी जैसी महिलाएं बस्तर में डीआरजी की कुल ताकत का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा हैं. वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उनके काम करने के तरीके और कड़ी मेहनत की सराहना करते हैं और बताते हैं कि उनके शामिल होने के बाद से आदिवासी महिलाओं की शिकायतों और आरोपों में भारी कमी आई है.
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “पहले भी जवानों के खिलाफ उत्पीड़न की शिकायतें मिलती रही हैं. महिलाओं के शामिल होने से बल की परिचालन क्षमता से समझौता किए बिना ऐसी शिकायतें कम हुई हैं.”
यह तब हुआ जब पूर्ववर्ती भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 2021 में बस्तर के युवाओं की भर्ती के लिए नए भर्ती नियम पेश किए. सात संभाग जिलों में लगभग 2,800 कार्यरत थे, जिनमें से 15 प्रतिशत खाली पद महिलाओं के लिए आरक्षित थे.
नव पदोन्नत निरीक्षक और समूह कमांडर सीताराम सरकार, जिन्होंने हाल ही में एक सिमुलेशन प्रैक्टिस के लिए नारायणपुर में लगभग 35-40 कर्मियों की एक टीम का नेतृत्व किया, बताते हैं कि महिलाएं पुरुष समकक्षों से कम नहीं साबित हुई हैं और उनका प्रदर्शन उम्मीदों से कहीं बेहतर रहा है.
आईजी सुंदरराज ने दिप्रिंट को बताया कि कुल मिलाकर, बस्तर फाइटर्स के ज़रिए और जिलों के पुलिस थानों से सीधे की गई भर्ती, वर्तमान में बस्तर संभाग में कार्यरत कुल डीआरजी कर्मियों का लगभग 75-80 प्रतिशत है.
डीआरजी की एक और खासियत राजू कारा जैसे पूर्व आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को अपने रैंक में शामिल करना है, हालांकि बड़ी संख्या में नहीं. 2020 से बस्तर क्षेत्र में ही 3,000 से अधिक माओवादी कैडर आत्मसमर्पण कर चुके हैं.
दंतेवाड़ा जिले की पुलिस लाइन में कारा को इस बात से कोई दिक्कत नहीं है कि जब वह युवा थे, तो उन्हें माओवादी विचारधारा आकर्षक लगी, लेकिन, सबसे बड़ी बात यह है कि उनके परिवार के साथ-साथ दर्जनों अन्य परिवारों को भी अपने बच्चों को संगठन में भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा.
केवल पांचवीं क्लास तक शिक्षित 28 साल के कारा का कहना है कि उनके गांव के लगभग 60 लोग 2011 में माओवादी रैंक में शामिल हुए थे. उन्होंने नवंबर 2020 में प्रतिबंधित संगठन छोड़ दिया.
कारा, जो कभी माओवादी क्षेत्रीय समिति का हिस्सा थे, ने दिप्रिंट को बताया, “अब कोई भी उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता. मेरे गांव में सड़कें, बिजली और आंगनवाड़ी के अलावा अन्य सरकारी सुविधाएं हैं.”
पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी ने दावा किया कि सभी आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी कैडरों को बल में शामिल नहीं किया गया है. “आप स्थिति को समझने के लिए पिछले पांच साल में आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों की संख्या और समग्र डीआरजी ताकत के आंकड़ों की तुलना कर सकते हैं.”
अधिकारी ने कहा कि आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों की संख्या बस्तर क्षेत्र के सात जिलों — बस्तर, कांकेर, कोंडागांव, नारायणपुर, बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा में तैनात डीआरजी कर्मियों के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है.
एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों को माओवादियों के ठिकाने और क्षेत्र की रणनीति के बारे में उनकी जानकारी के आधार पर एकीकृत किया गया था, लेकिन, भर्ती के लिए एक अलिखित नियम है — इसमें केवल वही शामिल होने चाहिए जिन्होंने स्वेच्छा से बलों के सामने आत्मसमर्पण किया हो.”
आत्मसमर्पण के बाद, इन पूर्व कैडरों को केस-दर-केस आधार पर भर्ती करने पर विचार किया जाता है. सबसे पहले, उन्हें एक प्रारंभिक अवधि से गुज़रना पड़ता है जिसमें वह ‘गोपनीय सैनिक’ की तरह काम करते हैं, जिसमें माओवादियों के बारे में उनकी जागरूकता और ज्ञान का परीक्षण किया जाता है. इस अवधि के दौरान, उन्हें 12,000 रुपये का मासिक पारिश्रमिक दिया जाता है.
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लगातार गतिविधि
रविवार को सुबह करीब 6 बजे, 80 जवान जगदलपुर के लालबाग मैदान में इकट्ठा होते हैं, जो बस्तर जिला मुख्यालय है. इनमें से ज़्यादातर बस्तर फाइटर्स के हैं.
अपने ग्रुप कमांडर उमा शंकर शुक्ला के नेतृत्व में वह अपना दिन वार्म-अप और शक्ति ट्रेनिंग प्रैक्टिस से शुरू करते हैं. गतिविधि का पहला चरण लगभग 40 मिनट तक चलता है, उसके बाद एक खेल सेशन होता है. इसके बाद प्रैक्टिस होती है. बस्तर में DRG की सभी जिलों और इकाइयों में इस दिनचर्या का सख्ती से पालन किया जाता है, सिवाय उन टीमों के जिन्हें ऑपरेशन के लिए तैनात किया जाता है या कार्रवाई से लौटना होता है.
अपने ग्रुप कमांडर के नेतृत्व में, आठ महिलाओं सहित 35 जवानों का एक ग्रुप घेराबंदी और तलाशी अभियान की नकल करने के लिए एक मॉक ड्रिल करने के लिए जंगल के एक हिस्से में प्रवेश करता है. मोटरसाइकिल पर सवार होकर, वह उन्हें सड़क के एक तरफ पार्क करते हैं और कुछ ही समय में पोजिशन लेने के लिए जंगल में घुसते हैं.
कमांडर ने दिप्रिंट को बताया, “यह हमारा रोज़ का रूटीन है. कोई आराम का दिन नहीं है. या तो टीम जंगल में होती है, ऑपरेशन करती है या अपने कौशल को निखारती है, जैसे कि जल्दी से एक विस्तृत घेरा बनाना, सर्च ऑपरेशन करना और जवाबी हमला करना.”
बाद में, कर्मी जिला मुख्यालय में इकट्ठा होते हैं, जहां उनका विचार-विमर्श होता है.

कमांडर पूरी तरह से खुश नहीं है और अपने सैनिकों को अपनी असंतुष्टि से अवगत कराते हैं. वे एक बड़े हॉल में टीम से पूछते हैं, “क्या आज हमारी घेराबंदी सही थी?” हॉल की बाहरी दीवारों पर मारे गए डीआरजी कर्मियों की तस्वीरें और भाग रहे माओवादी कैडरों की सूची लगी हुई है.
डीआरजी समूह स्वीकार करता है कि वह तलाशी अभियान चलाने वाली टीम की मदद करने के लिए सही घेराबंदी नहीं कर पाया. इसके बाद कमांडर अपनी राय देता है. पिछली असफलताओं और सफलताओं पर फिर से विचार करने के लिए शाम को ऐसा ही एक और सेशन होता है.
डीआरजी कमांडर ने दिप्रिंट को बताया, “ये रोज़ाना के प्रैक्टिस उन्हें असली ऑपरेशन होने पर सही बनाते हैं. हम रोज़ाना बैठते हैं और किसी खास दिन उठाए गए कदमों और प्रैक्टिस के दौरान क्या हासिल करना बाकी है, इस पर पुनर्विचार करते हैं.”
उनका दावा है कि इस तरह के एसओपी के परिणामस्वरूप पिछले 17 महीनों के परिणाम प्राप्त हुए हैं.
सफल अभियान
2024 से मुठभेड़ों में मारे गए माओवादियों की संख्या 2020 से 2023 के बीच के चार साल से अधिक है, जब यह संख्या 141 थी. पिछले साल यह संख्या 217 थी, जबकि नंबाला केशव राव सहित 186 माओवादी मारे गए हैं.
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं कि मुख्य रूप से DRG द्वारा संचालित नक्सल रोधी अभियानों के परिणाम कम से कम एक दशक में सामने आए. 2011 के अध्यादेश के बाद भर्ती किए गए सहायक कांस्टेबलों को अत्याधुनिक हथियारों को संभालने का औपचारिक ट्रेनिंग दी गई.
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “उनकी ट्रेनिंग रायपुर के पुलिस प्रशिक्षण स्कूल और कांकेर के आतंकवाद और जंगल युद्ध (CTJW) कॉलेज में राज्य के किसी भी अन्य पुलिस कर्मी की तरह हुई.”
2015 में डीआरजी औपचारिकता के बाद ट्रेनिंग को अगले स्तर पर ले जाया गया. गृह मंत्रालय के समन्वय में छत्तीसगढ़ पुलिस ने डीआरजी के रंगरूटों को सीटीजेडब्ल्यू कॉलेज में बैचों में भेजना शुरू किया. 40 दिन के ट्रेनिंग सेशन की शुरुआत, मध्य और अंत में एसपी रैंक के अधिकारियों द्वारा देखरेख की गई.
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “इन जवानों के बारे में एक और अंतर्निहित पहलू यह था कि उन्हें बस्तर और उनके दूरदराज के गांवों के बाहर की दुनिया से परिचित होने का मौका नहीं मिला. उन्हें समूहों में फ्लाइट के जरिए मिजोरम भेजा गया. यह इन युवाओं में सरकार द्वारा किया गया निवेश और विश्वास की छलांग थी. इसका उनके मनोबल पर सकारात्मक असर पड़ा.”
यह खास ट्रेनिंग आंध्र प्रदेश में ग्रेहाउंड कमांडो द्वारा अतिरिक्त प्रशिक्षण के साथ जारी है. बस्तर फाइटर्स के शामिल होने और उनके खास ट्रेनिंग के बाद कुल ताकत में वृद्धि ने सुरक्षा प्रतिष्ठान को ऑपरेशन को और भी बेहतर बनाने में सक्षम बनाया.

2023 के बाद से DRG ने तकनीकी खुफिया जानकारी पर अधिक भरोसा करना शुरू कर दिया, जो कि पहले मानवीय खुफिया जानकारी पर निर्भर था, जिसे ज़्यादातर ग्रामीणों से या आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों से इकट्ठा जाता था.
अब, जिला पुलिस को एक बेहतर खुफिया जानकारी एकत्र करने के तंत्र का लाभ मिलता है, जिससे वह अलग-अलग स्रोतों से खुफिया जानकारी की पुष्टि कर पाती है. बस्तर के सभी जिलों ने ज़मीन पर मौजूद अंतिम कर्मियों तक ऑपरेशन से संबंधित संदेश और निर्देश रिले करने के लिए मजबूत कम्युनिकेशन मशीनरी और बुनियादी ढांचा विकसित किया है.
इसके अलावा, ऑपरेशन के तरीके में एक रणनीतिक बदलाव हुआ. बिखरे हुए दृष्टिकोण से कॉर्डन, सर्च और अटैक (CSA) का एक सटीक दृष्टिकोण आदर्श बन गया, जिसमें बल पहले घेरने और जितना संभव हो उतना बड़ा घेरा बनाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं.
पुलिस के एक अधिकारी ने कहा, “इस रणनीति के लिए बहुत सारे कर्मियों की ज़रूरत होती है और इसलिए पिछले कुछ साल में लगभग सभी ऑपरेशन DRG, स्पेशल टास्क फोर्स और सीआरपीएफ (केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल) द्वारा किए जाते हैं. किसी भी तरह की चूक से बचने के लिए कई पड़ोसी जिले एक ऑपरेशन में भाग लेते हैं. इसके अलावा, खुफिया जानकारी जुटाने में सुधार से सैनिकों को अलग-अलग दिशाओं में फैलाने के बजाय विशिष्ट घेराबंदी करने में मदद मिली है.”
कमांड की सीरीज़ को समझाते हुए वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अगर डीआरजी रैंक या मानव खुफिया नेटवर्क से इनपुट आते हैं, तो रायपुर में आईजी, उप महानिरीक्षक और उससे ऊपर के रैंक के वरिष्ठों के साथ इस पर चर्चा की जाती है.
इनपुट की पुष्टि करने के बाद ऑपरेशन की व्यवहार्यता, भूभाग, मुख्यालय से दूरी और उस क्षेत्र के संभावित मार्गों सहित हर कारक पर विचार किया जाता है, जहां माओवादियों की मौजूदगी का संदेह है.
एक बार जब जिला अधीक्षकों (एसपी) को ऑपरेशन के लिए हरी झंडी मिल जाती है, तो वह डीआरजी में छोटी उप-इकाइयों का नेतृत्व करने वाले समूह कमांडरों को शामिल करते हैं. एसपी, एक अतिरिक्त एसपी रैंक के अधिकारी के साथ, प्रवेश और निकास मार्गों और ऑपरेशन के अन्य पहलुओं पर निर्णय लेते हैं.
योजना तय होने के बाद, समूह कमांडर अपने कर्मियों को बारीकियों के बारे में बताते हैं. ऑपरेशन की योजना बनाने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “तकनीकी प्रगति इतनी बेहतर हो गई है कि ऑपरेटिंग टीम के हर सदस्य के पास अपने फोन में केएमएल कॉर्डिनेट के रूप में क्षेत्र के कॉर्डिनेटर हैं. ऑपरेशन के दौरान, उन कॉर्डिनेट्स पर क्लिक करने से वह एन्क्रिप्टेड प्लेटफॉर्म अल्पाइनक्वेस्ट पर विशिष्ट स्थान और क्षेत्रों पर पहुंच जाते हैं.”
केएमएल एक फाइल फॉर्मेट है जो किसी विशेष स्थान के देशांतर, अक्षांश और ऊंचाई के रूप में भौगोलिक डेटा दिखाता है. एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “यहां तक कि आत्मसमर्पण करने वाले कैडर जिन्होंने औपचारिक पढ़ाई नहीं की है, वह भी कंप्यूटर और अल्पाइनक्वेस्ट पर योजनाएं बनाने में माहिर हैं.”
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