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Monday, 6 May, 2024
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क्या सर्दियों में ही बिगड़ती है दिल्ली की हवा, सरकारी आंकड़े बताते हैं हकीकत

पर्यावरण मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है, कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में साल में कम से कम आधे समय हवा ख़राब रहती है, जब AQI 200 से ऊपर बना रहता है.

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नई दिल्ली: पिछले कुछ सालों में ये एक सालाना रिवाज सा बन गया है कि दिल्ली-एनसीआर में सर्दियों के दौरान प्रदूषण सुर्ख़ियों में रहता है, जो आमतौर पर दो-तीन महीने चलता है. लेकिन, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, साल में कम से कम आधे समय हवा ख़राब रहती है.

राजस्थान के दौसा से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सांसद जसकौर मीणा की ओर से लोकसभा में उठाए गए एक सवाल के जवाब में, मंत्रालय ने 160 भारतीय शहरों की एक सूची दी, जिसके साथ प्रदूषण के मामले में ‘अच्छे’ और ‘ख़राब’ दिनों की संख्या भी दी गई थी, जिनका वो शहर सामना करते हैं.

अपने जवाब में मंत्रालय ने दिनों को ‘अच्छे’ और ‘ख़राब’ की श्रेणी में बांटा, जिसका आधार वो औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) था, जो किसी शहर में 2019-2021 के बीच दर्ज किया गया. 200 से अधिक एक्यूआई का मतलब होता है ‘ख़राब दिन’, और 200 से नीचे का मतलब ‘अच्छा दिन’.

बहुत से शहरों के लिए साल के बहुत से दिनों का डेटा उपलब्ध नहीं है. इसलिए दिप्रिंट ने ऐसे शहरों से आंकड़े लिए, जहां साल में कम से कम 200 दिन एक्यूआई का कोई भी स्तर रिकॉर्ड किया गया था, और फिर ऑब्ज़र्व किए गए उन दिनों में से ख़राब दिनों के हिस्से का हिसाब निकाला. अंतिम परिणाम ख़राब दिनों का औसत प्रतिशत है जिसका किसी शहर ने सामना किया.

उन तेरह भारतीय शहरों में से, जहां साल के 40 प्रतिशत दिन ‘ख़राब’ रहे थे, नौ शहर दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में स्थित थे- दिल्ली एनसीटी, भिवाड़ी, गाज़ियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फऱीदाबाद, बुलंदशहर, बागपत और मेरठ.

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राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में 2019 से 2021 के बीच औसतन हर साल, 45 प्रतिशत दिनों में हवा की गुणवत्ता ख़राब दर्ज की गई.

मंत्रालय के आंकड़ों में एक और प्रवृत्ति ये सामने आई, कि जिन शहरों में सबसे ज़्यादा ख़राब दिन दर्ज किए गए, वो भारत के उत्तरी हिस्से में स्थित हैं.

हालांकि अपने जवाब में सरकार ने प्रदूषण की समस्या को कम करने के लिए किए जा रहे उपायों की एक सूची दी, लेकिन 2018 में पर्यावरण पैरोकारी समूह सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट कीडाउन टु अर्थ पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, इतने अधिक उत्तर भारतीय शहरों के प्रदूषित रहने के पीछे एक कारण भौगोलिक विशेषताएं भी होती हैं.

लेकिन, स्वच्छ ऊर्जा पर शोध को बढ़ावा देने और वायु प्रदूषण घटाने पर काम कर रहे एक थिंक-टैंक, सेंटर फॉर रिसर्च ऑन इनर्जी एंड क्लीन एयर के एक विश्लेषक सुनील दाहिया ने दिप्रिंट को बताया, कि ‘भौगोलिक विशेषताएं और मौसम की स्थिति, वायु प्रदूषण के स्तरों में केवल एक मामूली योगदान दे सकती हैं’.

उन्होंने कहा, ‘हमें समझना होगा कि अधिकतर वायु प्रदूषण दहन स्रोतों से पैदा होता है. इसलिए स्वच्छ हवा हासिल करने का सबसे अच्छा तरीक़ा ये होगा, कि फॉसिल ईंधन की खपत और उसे जुड़े उत्सर्जनों को कम किया जाए, जिसके लिए हमें बेहतर विकल्पों या कुशल प्रदूषण नियंत्रण तकनीकों की ओर जाना होगा’.


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प्रदूषण मुख्य रूप से उत्तर भारत की समस्या

राजस्थान के उत्तरी हिस्से में स्थित एक औद्योगिक शहर भिवाड़ी देश का सबसे अधिक प्रदूषित शहर है. यहां के नागरिकों को औसतन, साल के 54 प्रतिशत दिनों में ख़राब हवा में सांस लेना पड़ता है.

2019 में, भिवाड़ी में 132 अच्छे दिनों की अपेक्षा ख़राब दिन 192 थे. 2020 में, जब कोविड से उत्पन्न लॉकडाउन ने आवाजाही और औद्योगिक गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी थी, तो शहर में 192 अच्छे दिन और 154 ख़राब दिन देखे गए. लेकिन सामान्य स्थिति के बहाल होने के साथ ही, प्रदूषण भी वापस आ गया. 2021 में शहर में ख़राब दिनों की संख्या 213 थी, जबकि केवल 142 दिन अच्छे थे- यानी हर तीन में से दो दिन भिवाड़ी के लोगों को मजबूरन ख़राब हवा में सांस लेना पड़ा.

भिवाड़ी के बाद उत्तर प्रदेश का गाज़ियाबाद था, जहां औसतन साल में 53 प्रतिशत ‘ख़राब दिन’ थे. इसके अलावा पश्चिमी यूपी के बाग़पत, मुरादाबाद, ग्रेटर नोएडा, बुलंदशहर और मेरठ में, लगभग हर दूसरा दिन ख़राब हवा का दिन होता है.

दिल्ली के पूर्वी पड़ोसी नोएडा में, साल में औसतन 44 प्रतिशत दिन ख़राब होते हैं, जिसके बाद हरियाणा का फरीदाबाद, मध्य प्रदेश का सिंगरौली, यूपी का वाराणसी और बिहार का मुज़फ्फरपुर आते हैं.

मंत्रालय के निष्कर्षों के अलावा, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमानों में भी पता चला था कि 2022 में, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 उत्तर भारत में स्थित थे, जिनमें भिवाड़ी सबसे ऊपर था.

डाउन टु अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर भारत अधिकतर लैण्डलॉक्ड है, और यहां की ज़मीन अधिकतर ‘ढीली जलोढ़ मिट्टी’ की है, जिससे धूल के कण आसानी से हवा में उड़ते रहते हैं. जहां तक प्रदूषण का सवाल है तो ये सभी कारक उत्तर भारत को दक्षिण से अलग करते हैं.

दाहिया ने कहा, ‘लेकिन, उत्तर और दक्षिण भारत की भौगोलिक विशेषताओं का ये अंतर बहाना नहीं बन जाना चाहिए, कि हम हवा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए और अधिक मेहनत न करें’. उन्होंने आगे कहा कि उन्हें लगता है कि भारत की पर्यावरण नीति उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों से संचालित नहीं होती- जिसकी वजह से उसकी नीतियां असफल रही हैं, हालांकि अन्यथा वो कागज़ पर अच्छी लगती हैं.

उन्होंने कहा, ‘अगर सरकारें प्रदूषण घटाने को लेकर वास्तव में गंभीर हैं, तो उन्हें सबसे पहले उत्सर्जन की सीमा तय करके, उसे घटाने के लक्ष्य निर्धारित करने चाहिएं. इसके लिए पहले हमें अध्ययन करके ये तय करने की ज़रूरत है कि कौनसा क्षेत्र कुल वायु प्रदूषण में कितना योगदान दे रहा है. राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के अंतर्गत, 132 शहरों के लिए ये काम 2021 तक पूरा कर लिया जाना था, लेकिन अभी दूर दूर भी पूरा नहीं हुआ है. स्रोत-विभाजन की इन स्टडीज़ के आधार पर सरकार को उत्सर्जन सीमा निर्धारित करनी चाहिए’.

दाहिया ने आगे कहा,‘सरकार को ये भी निर्णय करना चाहिए, कि वो प्रदूषण स्तर को कितना कम करना चाहती है, और उसे कैसे हासिल करेगी. चाहे उसे वाहनों की संख्या घटाकर किया जाए, या उत्सर्जन घटाने वाली टेक्नॉलजी में निवेश करके किया जाए, ये किसी शोध पर आधारित होना चाहिए. लेकिन इसकी शुरुआत कम से कम एक मात्रात्मक लक्ष्य के साथ होनी चाहिए’.

दक्षिण भारत में ज़्यादा ‘अच्छे दिन’ होते हैं

वायु गुणवत्ता के मामले में दक्षिण भारत का प्रदर्शन कहीं बेहतर है. हैदराबाद और बेंगलुरू में पिछले तीन वर्षों में एक भी दिन, 200 से अधिक एक्यूआई औसत दर्ज नहीं किया गया- अभी तक उन्होंने एक भी ‘ख़राब दिन’ नहीं देखा है.

केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में पिछले तीन साल में हवा की गुणवत्ता का सिर्फ एक ख़राब दिन दर्ज हुआ, और ऐसा ही मिज़ोरम की राजधानी आइज़ॉल में हुआ. गुजरात की राजधानी गांधीनगर में ख़राब वायु गुणवत्ता के सिर्फ दो दिन दर्ज हुए.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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