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Friday, 19 April, 2024
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नक्सल हिंसा के बाद घर वापसी करने वाले आदिवासी पहले करेंगे ग्राम देवता की पूजा

सलवा जुडूम के दौरान विस्थापित हुए आदिवासी परिवारों ने 12-13 जून को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के कोन्टा में ग्राम देवताओं की पूजा करने का निश्चय किया है.

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नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर इलाके में साल 2005 में चलाए गए नक्सल विरोधी अभियान सलवा जुडू़म से परेशान होकर कई आदिवासी परिवार अपने राज्य की जमीन छोड़कर पड़ोसी राज्यों में विस्थापित हो गए थे. अब ये परिवार घर वापसी की प्रक्रिया में लगे हैं. इस कड़ी में कानूनी कवायद तो चल ही रही है, साथ ही ये परिवार, नाराज चल रहे कुल देवी-देवताओं को मनाने में भी लग गए हैं. विस्थापित हुए आदिवासी परिवार 12-13 जून को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के कोन्टा में ग्राम देवताओं की पूजा करने का निश्चय किया है.

ग्राम देवता की पूजा में इस बार क्या है खास

आदिवासियों में ये परंपरा है कि वे किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत पूजा से करते हैं. ये परंपरा सदियों से चली आ रही है. इस परंपरा को पेन-पंडुम कहते हैं. (पेन यानी देवता, पंडुम यानी त्योहार). आदिवासियों के देवी-देवता की कोई मूर्ति या मंदिर-मस्जिद नहीं होता है. ये लकड़ी, पत्थर, पेड़, जमीन की पूजा करते हैं.

आदिवासियों की पुनर्विस्थापन में मदद कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता राजू राना ने दिप्रिंट से बातचीत में बताया, ‘आदिवासी समुदाय हर साल इस समय अच्छी फसल के लिए ग्राम देवताओं की पूजा करते हैं. लेकिन इस बार की पूजा अहम है क्योंकि सलवा जुडूम के दौरान विस्थापित हुए आदिवासी परिवारों का मानना है कि अपनी भूमि छोड़ कर जाने से उनके कुल देवता नाराज हो गए हैं. करीब 15 सालों से आदिवासी अपने ग्राम देवता की पूजा नहीं कर पाए हैं. इस कारण वे पुन: विस्थापित होने से पहले नाराज चल रहे देव-देवता को मनाने की कोशिश करेंगे. इस तरह की पूजा अपने आप में पहली बार हो रही है. आदिवासी अपने देवताओं और सांस्कृतिक परंपराओं को लेकर आएंगे. इस पूजा में घर वापसी की बाट जोह रहे हजारों की संख्या में आदिवासियों के आने की उम्मीद है, जिसका मकसद उन्हें उनके अधिकारों से अवगत कराना है. और सबको जोड़ते हुए एक नई ताकत बनकर उभरना है.’

आदिवासियों के घर वापसी की प्रक्रिया के बीच बहुत सारे आदिवासी अभी ऐसे भी हैं जो पुरानी जगह नहीं जाना चाहते हैं. छत्तीसगढ़ में लंबे समय से म्यूजियम में काम कर चुके और वहां की सांस्कृतिक समझ रखने वाले अशोक तिवारी बताते हैं, ‘देवी-देवाताओं को मनाने आ रहे आदिवासी अपनी सांस्कृतिक विरासत को भी साथ लेकर आएंगे. वे पूजा में अपने साथ ढोलक, वाद्य यंत्र का भी प्रयोग करते हैं. इसके अलावा दो सिंह का मुकूट जैसे पोशाक पहनते हैं. जिससे ये उत्सव और रंगारंग बनाया जा सके.’

जब विस्थापित हुए आदिवासी

साल 2005 में सलवा जुडूम के दौरान हुए नक्सली विरोधी अभियान के कारण छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा, सुकमा, कोन्टा और बीजापुर इलाके में रहने वाले आदिवासी प्रभावित हुए थे. कोन्टा क्षेत्र की सीमाएं चार राज्यों से जुड़ी हैं. छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा. शबरी नदी के किनारे बसे इस क्षेत्र में जुडूम समर्थकों द्वारा गांव वालों को परेशान किया गया. आदिवासियों के विस्थापन के लिए कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और सीजीनेट स्वर के संस्थापक शुभ्रांशु चौधरी बताते हैं, ‘ इस आंदोलन में हज़ारों घरों को जला दिया गया, कई लोगों को मार दिया गया. 30 हज़ार से अधिक आदिवासियों को आंध्र और तेलंगाना के जंगलों में शरण लेनी पड़ी. इसका सही आंकड़ा किसी भी राज्य सरकार के पास नहीं है.’

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विस्थापन में फंसा है पेंच

छत्तीसगढ़ से विस्थापित और पड़ोसी राज्यों में जाकर बसे आदिवासियों को वापस लाने का प्रयास तेज हो गए हैं. शुभ्रांशु के मुताबिक, ‘छत्तीसगढ़ से पड़ोसी राज्यों में विस्थापित हुए आदिवासी बाकी राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में शेड्यूल्ड ट्राइब में नहीं आते है, जिसके कारण उन्हें वो सुविधाएं नहीं मिल पाती है. इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को दखल देनी होगी.’

बता दें, विस्थापित आदिवासियों को पुन: अपने गांव लौटने के मामले में वनाधिकार कानून की दिक्कत सामने आ रही थी. इस कानून के तहत 13 दिसंबर 2005 से पहले बसे लोगों को पट्टा देने का कानून है. लेकिन इसके लिए संबंधित व्यक्ति का उस जमीन पर लगातार काबिज रहना जरूरी है. अब इसमें समस्या ये है कि जो आदिवासी साल 2005 में यानी लगभग 15 साल पहले अपनी भूमि छोड़कर गए हैं उन्हें ये फायदा मिलेगा कि नहीं, इस पर अभी पेंच फंसा है और इसका हल केंद्र सरकार के दखल से ही निकल सकता है.

सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु बताते हैं, ‘विस्थापना का दंश झेल रहे आदिवासी समूह अपने मूल गांव नहीं जाना चाहते हैं. क्योंकि उनका मूल गांव काफी अंदर है जहां अभी भी नक्सलियों का गहरा प्रभाव है. जिस कारण से आदिवासी वापस वहां नहीं जाना चाहते हैं.’

अनुसूचित जनजाति मंत्रालय को लिखा पत्र

सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु ने आदिवासियों की समस्या को ध्यान में रखते हुए अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग के नेशनल कमिशनर नंदकुमार साय को 30 अप्रैल 2019 को एक पत्र लिखा था.

सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु ने अनुसूचित जनजाति को लिखा पत्र.

वे बताते हैं,’ हमने अनुसूचित जनजाति मंत्रालय को एक पत्र लिखकर अदला-बदला कानून के तहत आदिवासियों को पुनर्स्थापन करने की मांग रखी. बहुत सारे लोग जंगल के अधिकार कानून की धारा 3.1.एम से अनभिज्ञ हैं. जंगल के अधिकार कानून की धारा 3.1.एम के अधिकार के उपयोग की तहत अनुसूचित जनजाति आयोग की मदद चाहते हैं. इसमें उन्हें ये अधिकार दिया गया है कि सरकार उन्हें इस धारा के आधार पर उनके मूल जमीन (जहां से उन्हें विस्थापित होना पड़ा था) के कब्जे के बदले में अन्य स्थान पर जमीन दे सकती है. इसलिए उनके मूल गांव की जमीन की जगह बदले में ही किसी सुरक्षित जगह पर जीवन यापन लायक जमीन दी जाए.’

सरकार और सामाजिक संगठनों ने शुरू की कवायद

आदिवासियों की घर वापसी को लेकर चल रही मुहिम को सरकार ने संज्ञान में लेना शुरू कर दिया है. अनुसूचित जनजाति मंत्रालय के कमिश्नर नंदकुमार साय ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘आदिवासियों की घर वापसी को लेकर योजना बनाने के लिए जल्द ही एक मीटिंग बुलाई गई है. अभी भी छत्तीसगढ़ में कई इलाके हैं जो नक्सल प्रभावित हैं जहां जाने से आदिवासी समुदाय कतरा रहे हैं. ऐसे में उनके पुनर्विस्थापन के बाद आने वाली चुनौतियों को लेकर भी काम करने की आवश्यकता है.’

12-13 जून को आदिवासियों द्वारा होने वाली ग्राम देवता की पूजा को लेकर नंदकुमार साय ने कहा, ‘वो ठीक है आदिवासी अपने ग्राम देवता की पूजा करने आ रहे हैं. लेकिन उनके पुनर्विस्थापन को लेकर केंद्र सरकार, राज्य सरकार और आदिवासी संगठनों के बीच आपस में समन्वय बना कर ही कोई फैसला लिया जाएगा.’

वहीं आदिवासियों के हितों के लिए काम करने वाले संगठन ने विस्थापित आदिवासियों को उनके अधिकार से जागरूक कराने के लिए एक पीस प्रॉसेस की शुरुआत की है. आदिवासियों को उनके अधिकारों से सचेत करने के लिए 22 फरवरी से 3 मार्च बस्तर से रायपुर तक साइकिल यात्रा निकाली गई थी, जिसमें करीब 500 अंतरिम विस्थापित लोग शामिल हुए थे. इनमें आदिवासियों ने अपनी मांग रखी थी.

इसके अलावा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सलवा जुडूम की हिंसा से प्रभावित परिवारों को पुनर्विस्थापन कराने की योजना बनाने की बात कही है.

अब यह देखने वाले बात होगी कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार आदिवासियों के घर वापसी को लेकर चल रही कवायद का हल किस तरह से निकालती है.

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