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Saturday, 14 December, 2024
होमदेश'हमें अपने घर चाहिए, सियासत नहीं': मुंबई के पात्रा चॉल के विस्थापित परिवारों का संघर्ष

‘हमें अपने घर चाहिए, सियासत नहीं’: मुंबई के पात्रा चॉल के विस्थापित परिवारों का संघर्ष

14 वर्ष बाद भी 672 किराएदार उन फ्लैट्स के इंतज़ार में हैं, जिनका उनसे वादा किया गया था. ईडी ने, जो इस पुनर्विकास परियोजना में कथित अनियमितताओं की जांच कर रही है, रविवार को संजय राउत को गिरफ्तार कर लिया.

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मुंबई: घनी झाड़ियों के बीच-बीच में खड़े अधूरे ढांचे, उस 47 एकड़ के प्लॉट में बिखरे हुए हैं, जिसे मुंबई के गोरेगांव में मेटल की चादरों से घेर कर रखा गया है. करीब 14 साल से अधर में लटके रहने के बाद पात्रा चॉल आज टूटे सपनों की एक तस्वीर बनकर रह गई है, खासकर उन 672 परिवारों के लिए जो यहां से इस वादे के साथ गए थे कि 2008 की एक पुनर्विकास परियोजना के तहत उन्हें नए फ्लैट्स दिए जाएंगे.

प्रवर्तन निदेशालय द्वारा परियोजना में कथित वित्तीय अनियमितताओं की जांच के सिलसिले में शिवसेना सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी की खबर, इन मध्यम-वर्गीय परिवारों के लिए कोई अहमियत नहीं रखती. उनकी सबसे बड़ी मांग एक ही है, ‘हमारे घर जल्दी से जल्दी बनाकर दिए जाएं’.

पात्रा चॉल आवास समिति के एक सदस्य पंकज दल्वी दिप्रिंट से कहते हैं, ‘लोगों की हालत वास्तव में खराब है लेकिन उसके बावजूद हमारी कीमत पर सियासत हो रही है. (पात्रा चॉल केस से जुड़ी) सियासत में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है. हम जो चाहते हैं वो है ट्रांज़िट किराया और फिर घर, जैसा कि त्रिपक्षीय समझौते के तहत अनिवार्य था’.

2008 में गुरु आशीष कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड (जीएसीपीएल), महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास प्राधिकरण (म्हाडा), और पात्रा चॉल आवास समिति के बीच ब्रिटिश काल के इन किराए के घरों को फिर से बनाने के लिए एक समझौता हुआ था. जीएसीपीएल को 672 परिवारों के लिए फ्लैट्स बनाने थे और प्लॉट के बाकी बचे हिस्से को संभावित खरीदारों को बेच देना था.


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चॉल निवासियों का संघर्ष

संदेश शिरोदकर अपने परिवार के साथ पात्रा चॉल से करीब एक किलोमीटर दूर एक किराए की सोसाइटी में रहते हैं. दिप्रिंट के साथ पुराने फोटोग्राफ्स साझा करते हुए वो याद करते हैं: ‘मेरे घर के आंगन में एक अच्छा गार्डन था जिसमें चीकू और नारियल के पेड़ थे, जिनमें से कुछ मेरे परिवार ने लगाए थे’.

वो आगे कहते हैं कि अब ये सब चला गया है. जिसे घर में शोरोदकर पैदा हुए और पले-बढ़े, उसे पुनर्विकास के लिए ढहा दिया गया. उनकी बेटी, जो अब 25 साल की है, उसी घर में पैदा हुई थी.

Patra Chawl in Mumbai's Goregaon | Purva Chitnis | ThePrint
गोरेगांव स्थित पात्रा चॉल | फोटो: पूर्वा चिटणीस | दिप्रिंट

रिटायर्ड निजी कर्मचारी कहते हैं, ‘हमने 2008-09 के आसपास वो घर छोड़ दिया था. एक लंबी बीमारी के बाद 2010 में, मेरी मां का निधन हो गया. दो साल बाद नए घर का इंतज़ार करते हुए मेरे पिता भी चल बसे’.

फिलहाल, शिरोदकर और उनके जैसे बहुत से दूसरे निवासियों के लिए सबसे बड़ी समस्या है ट्रांज़िट किराए का भुगतान न होना. प्रभावित परिवारों का कहना है कि 2014-15 के बाद से ट्रांज़िट किराए का भुगतान अनियमित हो गया था, जिसके बाद 2018 में वो पूरी तरह बंद हो गया.

फिलहाल, शिरोदकर 18,500 रुपए किराए के तौर पर हर महीने अदा कर रहे हैं. इसके विपरीत उनकी पेंशन केवल 4,000 रुपए है. 61 वर्षीय बुज़ुर्ग कहते हैं, ‘गुज़र-बसर करना मुश्किल है. मेरी पत्नी को गठिया और डायबिटीज़ है और उसे दवाओं की जरूरत है. मैं अपनी पेंशन से घर नहीं चला सकता. मैं बस ये चाहता हूं कि मुझे ट्रांज़िट किराया मिल जाए’.

दल्वी का कहना है कि निर्माण कार्य शुरू हो चुका है लेकिन ट्रांज़िट किराया अभी तक बहाल नहीं हुआ है. वो आगे कहते हैं कि समझौते के मुताबिक, 2008 में 18,000 रुपए मासिक किराया तय हुआ था और बाद के वर्षों में वो बढ़कर 40,000 रुपए हो गया था.

उनका दावा है, ‘2018 के आसपास, किराया मिलना पूरी तरह बंद हो गया. म्हाडा ने अब 18,000 रुपए ट्रांज़िट किराए का प्रस्ताव दिया है लेकिन उतनी रकम से क्या होगा? किराया 30,000 रुपए से भी ज़्यादा है. चूंकि परिवार इतना किराया वहन नहीं कर सकते, इसलिए बहुत से लोग विरार, वसई, पालघर और दूसरी जगहों पर चले गए हैं’.

दल्वी दिप्रिंट को बताते हैं कि उनकी चार से पांच पीढ़ियां पात्रा चॉल में रही हैं.

22 फरवरी को पूर्व की महाविकास अघाड़ी सरकार ने पात्रा चॉल की जगह निर्माण कार्य फिर से शुरू किया था. दल्वी याद करते हैं, ‘भूमि-पूजन से सिर्फ 12 दिन पहले मेरी मां गुज़र गईं. उन्हें कैंसर हो गया था और पिछले 3-4 महीने से वो एक ही सवाल कर रहीं थीं- ‘मुझे मेरा घर कब मिलेगा?’

पात्रा चॉल आवास समिति सदस्य आगे कहते हैं, ‘उन्हें चिंता सताती रहती थी कि हमें पुनर्विकसित घर मिलेगा भी कि नहीं. हमने उन्हें निर्माण कार्य के पुराने फोटो दिखाकर आश्वस्त कर दिया कि काम शुरू हो चुका है, ताकि वो शांति के साथ मर सकें’.

रमाकांत थोर्वे, जिनका परिवार 70 साल पात्रा चॉल में रहा है, कहते हैं कि उनके संघर्षों का कोई अंत नहीं है. वो पूछते हैं, ‘लॉकडाउन के दौरान, मैंने अपनी बीमा पॉलिसी भुना ली, जिसे मेरी मौत के बाद प्रभावी होना था. लेकिन अगर में जिंदा रहते हुए अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता, तो फिर वो पॉलिसी किस काम की है?’

थोर्वे कहते हैं कि घर खर्च चलाने के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने तक बेंचने पड़े थे.

दो बच्चों के पिता कहते हैं, ‘हम में से तकरीबन सभी ने शहर छोड़ दिया है और पालघर जैसे बाहरी इलाकों में रहते हैं, जबकि कुछ दूसरे लोग लॉकडाउन के दौरान हमेशा के लिए अपने गांवों को लौट गए. कुछ लोग अपने बच्चों की पढ़ाई और इलाज आदि का खर्च नहीं उठा सकते’.

थोर्वे का कहना है कि उनके माता-पिता पुणे के पास अपने गांव में रहते हैं क्योंकि वो छह लोगों के परिवार का खर्च नहीं उठा पाएंगे.

हालांकि प्रवर्तन निदेशालय का दावा है कि जीएसीपीएल ने सोसाइटी को धोखा दिया लेकिन यहां के निवासियों का ये भी आरोप है कि आवास समिति के पिछले सदस्य भी बिल्डर और म्हाडा अधिकारियों के साथ साजिश में शामिल थे.

इस बीच, प्रभावित परिवार अभी भी अपने घर मिलने की उम्मीद पाले हुए हैं. दल्वी कहते हैं, ‘मैं अभी तक इस प्रोजेक्ट के लिए 4-5 भूमि पूजन देख चुका हूं. उम्मीद है कि फरवरी में जो हुआ वो आखिरी होगा और 2 साल के अंदर निर्माण पूरा हो जाएगा, जैसा कि म्हाडा ने वादा किया है’.

थोर्वे भी यही भावनाएं व्यक्त करते हैं. वो कहते हैं, ‘घर किसी भी मध्यम-वर्गीय व्यक्ति का सपना होता है. मेरे पेरेंट्स अभी भी उस सपने के पूरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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