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शुक्रवार, 25 अप्रैल, 2025
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धनखड़ से असहमत, अधिकारों की रक्षा करने वाली ‘‘परमाणु मिसाइल’’ है न्यायिक स्वतंत्रता: सुरजेवाला

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नयी दिल्ली, 18 अप्रैल (भाषा) कांग्रेस महासचिव रणदीप सुरजेवाला ने न्यायपालिका को लेकर उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा की गई टिप्पणी से शुक्रवार को असहमति जताई और कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता सत्ता में बैठे लोगों के मनमाने कार्यों और निर्णयों के खिलाफ लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए वास्तव में एक ‘‘परमाणु मिसाइल’’ है।

उन्होंने यह भी कहा कि भारत के लोकतंत्र में कोई संवैधानिक पद नहीं, बल्कि संविधान सर्वोच्च है।

राज्यसभा के सभापति धनखड़ ने बृहस्पतिवार को न्यायपालिका द्वारा राष्ट्रपति के निर्णय लेने के लिए समयसीमा निर्धारित करने और ‘सुपर संसद’ के रूप में कार्य करने को लेकर सवाल उठाते हुए कहा था कि उच्चतम न्यायालय लोकतांत्रिक ताकतों पर ‘परमाणु मिसाइल’ नहीं दाग सकता।

उन्होंने उच्चतम न्यायालय को पूर्ण शक्तियां प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 142 को ‘‘न्यायपालिका को चौबीसों घंटे उपलब्ध लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल’’ करार दिया।

सुरजेवाला ने ‘एक्स’ पर पोस्ट किया, ‘‘ मैं माननीय उपराष्ट्रपति का उनकी बुद्धिमत्ता और वाक्पटुता, दोनों के लिए बहुत सम्मान करता हूं, लेकिन मैं उनके शब्दों से ससम्मान असहमत हूं।’’

उन्होंने कहा कि राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों पर संवैधानिक बंधन लगाने वाला उच्चतम न्यायालय का निर्णय सामयिक, सटीक, साहसी हैं और इस धारणा को दुरुस्त करता है कि ‘उच्च पदों पर रहने वाले लोग अपनी शक्तियों के उपयोग में किसी भी बंधन या नियंत्रण और संतुलन लगाने से ऊपर हैं।’

राज्यसभा सदस्य ने कहा, ‘‘हमारे लोकतंत्र में भारत का संविधान ही सर्वोच्च है। कोई भी कार्यालय, चाहे वह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या राज्यपाल का हो, इतना ऊंचा नहीं है कि वह संवैधानिक औचित्य के दायरे से ऊपर हो।

सुरजेवाला के मुताबिक, ‘‘भारतीय लोकतंत्र निर्वाचित संसद और विधानमंडलों के माध्यम से व्यक्त ‘लोगों की इच्छा’ के मूल सिद्धांत पर आधारित है, इसलिए सर्वोच्च निकाय संसद और विधानमंडल हैं। यहां तक ​​कि उनके फैसले और कानून बनाने की शक्तियां भी संवैधानिकता की कसौटी पर अदालतों द्वारा न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।’’

उन्होंने सवाल किया कि ऐसे में राज्यपालों और भारत के राष्ट्रपति के कदम समीक्षा के अधीन क्यों नहीं होनी चाहिए, खासकर तब जब राज्यपाल भारत सरकार के केवल नामांकित व्यक्ति होते हैं और राष्ट्रपति को संसद और विधानमंडलों द्वारा चुना जाता है?

कांग्रेस महासचिव ने कहा, ‘ क्या यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति के पारित संसद या विधानमंडलों द्वारा पारित कानूनों को अनिश्चित काल तक सहमति देने की एकतरफा या अनियंत्रित शक्ति है?

उन्होंने कहा कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपालों के पास ऐसी शक्ति होगी, तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध होगा और निर्वाचित संसद तथा विधानमंडल शक्तिहीन और असहाय हो जाएंगे।

सुरजेवाला का कहना है कि संविधान कभी भारत के राष्ट्रपति सहित किसी को भी ऐसी बेलगाम शक्तियां प्रदान नहीं करता है।

उन्होंने इस बात पर जोर दिया, ‘‘कोई भी व्यक्ति जिस पद पर है, चाहे वह कितना भी ऊंचा क्यों न हो, वह कार्यालय को संवैधानिक नियंत्रण और पालन से मुक्त नहीं करता है। दरअसल, कार्यालय जितना ऊंचा होगा, निष्पक्ष, पारदर्शी और जवाबदेह होने की जिम्मेदारी उतनी ही अधिक होगी।’’

सुरजेवाला ने कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता वास्तव में एक ‘‘परमाणु मिसाइल’’ है (माननीय उपराष्ट्रपति के शब्दों में) जो संविधान को नष्ट करने के लिए अन्याय, मनमानी, असमानता, कब्जा और सत्ता की धारणा पर हमला करने और सत्ता में बैठे लोगों के मनमाने कार्यों और निर्णयों के खिलाफ लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए है।

उनके मुताबिक, यदि न्याय का अंतिम दरवाजा आम लोगों के लिए बंद हो जाए और न्याय उन शक्तियों के अधीन हो जाए या उनके द्वारा निर्देशित हो जाए, तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा और तानाशाही कायम हो जाएगी।

उन्होंने कहा कि कोई भी कानून या संविधान से ऊपर नहीं है, चाहे वह भारत का राष्ट्रपति हो या कोई अन्य प्राधिकारी।

सुरजेवाला ने कहा, ‘‘जिन शासकों और राजाओं पर सवाल नहीं उठाया जा सकता था, उनका युग 15 अगस्त, 1947 को और 26 जनवरी, 1950 को हमेशा के लिए समाप्त हो गया। भारत का राष्ट्रपति कई मायनों में राजशाही के अंत और संविधान द्वारा शासन का प्रतीक है।’’

उनका कहना है कि राष्ट्रपति को आगे आकर संविधान की सर्वोच्चता को सलाम करना चाहिए।

भाषा हक

हक माधव

माधव

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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