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Monday, 27 May, 2024
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शहबाज-मोदी के दिए गए संदेशों के बावजूद भारत-पाक रिश्तों में किसी बड़े सुधार की गुंजाइश कम ही है

कश्मीर वार्ता पर शरीफ की जिद और मोदी के 'आतंक मुक्त' क्षेत्र वाले बयान से साफ हो जाता है कि दोनों देशों के बीच अभी कुछ नहीं बदला है. हालांकि दोनों पक्ष राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश कर सकते हैं.

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नई दिल्ली: इस हफ्ते पाकिस्तान में शहबाज शरीफ के सत्ता में वापस आने के बाद भले ही दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने संदेशों के जरिए ‘शांति, सहयोगात्मक संबंधों और स्थिरता’ की बात कही हो, लेकिन दोनों प्रतिद्वंदियों के अड़ियल रवैये के चलते भारत-पाक रिश्तों में किसी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

राजनयिक और सुरक्षा सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया, कुछ सालों से पड़ोसी देश के साथ संबंध निचले स्तर पर रहे हैं. शरीफ के कश्मीर मुद्दे के ‘समाधान’ पर जोर देने और मोदी द्वारा ‘आतंक से मुक्त’ क्षेत्र पर कायम रहने से संकेत मिलता है कि इस्लामाबाद और नई दिल्ली की मुख्य चिंताओं में कोई बदलाव नहीं आया है.

हालांकि, दोनों देश उच्चायुक्त की बहाली जैसे छोटे-छोटे कदम उठा कर अपने राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयास कर सकते हैं.

सोमवार को शपथ लेने से कुछ घंटे पहले शहबाज शरीफ ने भारत के साथ ‘अच्छे संबंधों’ की बात कही थी. लेकिन साथ ही उन्होंने ये भी जता दिया कि ऐसा होने के लिए कश्मीर मुद्दे को हल करने की जरूरत है. जवाब में मोदी ने भी शरीफ को उनके प्रधानमंत्री बनने पर बधाई दी और ‘आतंक से मुक्त’ क्षेत्र पर जोर देते हुए कहा कि भारत ‘शांति और स्थिरता’ चाहता है.

इसका जवाब देते हुए शरीफ ने मंगलवार को कहा कि आतंकवाद से लड़ने में पाकिस्तान की कुर्बानी जगजाहिर है. उन्होंने अपने पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर आरोप लगाते हुए कहा कि अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद भी कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए ‘गंभीर और कूटनीतिक प्रयास’ नहीं किए गए.

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2019 में मोदी सरकार ने जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विभाजित कर दिया था. अनुच्छेद 370, अनुच्छेद 35A, राज्य को अपना एक अलग संविधान बनाने की इजाजत देता है और राज्य पर संसद की विधायी शक्तियों को प्रतिबंधित करता है.

पड़ोसी देश से बेहतर संबंधों के संदर्भ में हम 2014 का उदाहरण ले सकते हैं, तब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री चुने गए थे. उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में शहबाज शरीफ के भाई नवाज को आमंत्रित किया था. उस समय नवाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे. अगले साल लाहौर में नवाज शरीफ की पोती की शादी में शामिल होने के लिए मोदी ने पाकिस्तान का आकस्मिक दौरा भी किया था.

हालांकि 2016 में दोनों देशों के बीच संबंधों में खटास आने लगी. पहले जनवरी 2016 में पठानकोट एयरबेस पर आतंकवादी हमला हुआ जिसमें सात सुरक्षाकर्मी मारे गए और फिर सितंबर में उरी में सेना के स्थानीय मुख्यालय पर आतंकी हमला, जिसमें 18 जवान शहीद हो गए थे.


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उच्चायुक्तों की फिर से तैनाती

सूत्रों ने कहा कि पाकिस्तान और भारत के बीच राजनयिक संबंधों की बहाली इस्लामाबाद में नई सरकार का ‘पहला और सबसे महत्वपूर्ण’ निर्णय हो सकता है. इसके लिए नई दिल्ली की तरफ से भी बैकडोर चैनल के जरिए दबाव बनाया जा रहा है.

अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने राजनयिक संबंधों को निचले स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया और नई दिल्ली से उच्चायुक्त को वापस बुला लिया था.

लंदन के किंग्स कॉलेज में डिपार्टमेंट ऑफ वॉर स्टडीज की सीनियर फेलो आयशा सिद्दीका ने दिप्रिंट को बताया, ‘इन सबके पीछे बड़ी ताकत (पाकिस्तानी सेना प्रमुख) जनरल बाजवा हैं. वह ड्राइवर की सीट पर बैठे हैं. हम फिर से उस स्थिति में आ गए हैं जहां शांति को लेकर बातचीत की जा सकती है. लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत इसके लिए तैयार है.’

सिद्दीका पाकिस्तान की सैन्य अर्थव्यवस्था पर लिखी गई किताब मिलिट्री इंक की लेखिका भी हैं, उन्होंने कहा कि शहबाज शरीफ की सरकार में उच्चायुक्तों को बहाल किया जा सकता है और पर्दे के पीछे होने वाली बातचीत को भी अहमियत दी जाएगी.

विदेश मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि नई दिल्ली को भी इस बात की उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच बैक-चैनल वार्ता जारी रहेगी.

सूत्रों की मानें तो पर्दे के पीछे होने वाली बातचीत का ही नतीजा है कि फरवरी 2021 में दोनों पक्षों के बीच नियंत्रण रेखा पर हुआ समझौता अभी भी कायम है.

पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त विजय नांबियार ने कहा कि शुरुआत में दोनों पक्ष अपने संबंधों को राजनयिक स्तर तक बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं. वह कहते हैं, ‘दोनों पक्ष इस मुद्दे पर बातचीत करना शुरू कर सकते हैं. लेकिन संबंधों में सुधार की गुंजाइश कम ही है क्योंकि कश्मीर और अनुच्छेद 370 जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत संभव नहीं है. खैर! अहम फैसला तो पाकिस्तानी सेना को करना है. जिसने अब तक राजनीतिक रूप से जो कुछ हो रहा है, उससे खुद को दूर रखा हुआ है.’

कश्मीर का मुद्दा उठाए जाने की संभावना नहीं

सूत्रों के मुताबिक, दोनों पक्ष जहां सामान्य स्थिति की बहाली की ओर कुछ शुरुआती कदम उठा सकते हैं, वहीं आने वाले समय में कश्मीर मुद्दे को लेकर दोनों देशों के बीच कुछ हलचल होगी, ऐसा नजर नहीं आता है.

दरअसल पाकिस्तान में एक बार फिर आम चुनाव होने की संभावना व्यक्त की जा रही है. और हो सकता है कि साल की दूसरी छमाही (अक्टूबर के बाद) तक चुनाव हो जाएं. इसके अलावा ये देखना भी दिलचस्प रहेगा कि क्या शहबाज शरीफ को सत्ता में लाने वाला गठबंधन साथ रह भी पाता है या नहीं.

सूत्रों के अनुसार फिलहाल तो मोदी सरकार पाकिस्तान के साथ किसी तरह का समझौता करने के मूड में नहीं है. वह अपने इस रुख पर अडिग रहेगी कि बातचीत और आतंक एक साथ नहीं चल सकते.

नांबियार ने कहा, ‘नई सरकार बनने के बाद कुछ लोगों से लोगों के बीच संपर्क हो सकता है लेकिन कोई बड़ी पहल होगी, इसकी संभावना नहीं है’ वह आगे बताते हैं ‘ हो सकता है शरीफ को लगे कि भारत की तुलना में आगे बढ़ने से या अपनी ताकत बढ़ाने से उन्हें चुनाव में मदद मिल सकती है. और शायद उसी वजह से वह जम्मू-कश्मीर और 370 के मुद्दे को बरकरार रखेंगे.’

नांबियार ने कहा कि पाकिस्तानी सेना आंतरिक संघर्ष से दूर रहकर अपने वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश कर रही है.

उन्होंने बताया, ‘इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम ने सेना को शर्मिंदा किया है. इसे वह देश के बाहर पाकिस्तान की छवि को चोट पहुंचाने के रूप में देख रही है.’ वह आगे कहते हैं, ‘पाकिस्तानी सेना जितना हो सके, अपने वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश कर रही है ताकि उसने जो अफगानिस्तान और चीन के सामने अपनी जो साख बनाई है, उसे बरकरार रखे सके. चीन ने अपना रुख साफ करते हुए कहा था कि वह सेना के साथ डील कर रही है और वही स्थिरता का आधार है. इससे सेना को सारे विकल्प अपने पास रखने में मदद मिल रही है.’

सिद्दीका के अनुसार, भारत की तुलना में पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए कहीं अधिक तत्पर दिख रहा है. उनका मानना है कि पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर पर तथाकथित मुशर्रफ फॉर्मूला का सहारा ले सकता है.

उन्होंने कहा कि फिलहाल तो शरीफ अपनी चरमराई घरेलू अर्थव्यवस्था को संभालने में व्यस्त रहेंगे, जो गर्त की ओर जाती दिखाई दे रही है.

दि डॉन अखबार के एक संपादकीय में भी इस बात को लेकर सहमति जताई है. उसमें लिखा है, ‘लड़खड़ाती हुई अर्थव्यवस्था को ठीक करना शायद शरीफ की कैबिनेट के सामने सबसे मुश्किल चुनौती होगी और उन्हें इसे अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखना होगा.’

सिद्दीका के मुताबिक, पाकिस्तान को आगे बढ़ने के लिए अमेरिका के साथ-साथ सऊदी अरब के भरोसे की भी जरूरत है. खैर! सरकार का प्रमुख चाहे जो भी हो, चीन उसका सदाबहार दोस्त बना रहेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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