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बुधवार, 18 जून, 2025
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डिपोर्टेशन, वक्फ में धर्मांतरण, भारत में जिला मजिस्ट्रेट की लगातार बढ़ती शक्तियां

कलेक्टर या डीएम, जैसा कि उन्हें कहा जाता है, उनके पास पहले से ही कई मौजूदा शक्तियां थीं, जिन्हें अब स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया है, या कुछ मामलों में काफी हद तक बढ़ाया गया है.

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नई दिल्ली: इस महीने की शुरुआत में गृह मंत्रालय (एमएचए) ने बांग्लादेश और म्यांमार से अवैध अप्रवासियों के निर्वासन को सुव्यवस्थित करने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को दिशा-निर्देश जारी किए.

दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि अगर किसी राज्य को संदेह है कि कोई अप्रवासी अनधिकृत है, तो वह उस राज्य को पत्र लिखेगा, जिसका वह निवासी होने का दावा करता है. अगर वह राज्य 30 दिनों के भीतर सकारात्मक प्रमाण-पत्र नहीं भेजता है, तो विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय संदिग्ध को निर्वासित कर देगा. प्रमाण-पत्र देने का अधिकार अप्रवासी के गृह जिले के मजिस्ट्रेट के पास है.

उत्तर भारत के एक राज्य के जिला कलेक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “एमएचए के दिशा-निर्देशों के अनुसार, हमें 30 दिनों के भीतर यह पता लगाना होता है कि हमारे जिले का होने का दावा करने वाला व्यक्ति वास्तव में ऐसा है या नहीं. अगर हम नकारात्मक रिपोर्ट देते हैं या रिपोर्ट नहीं देते हैं, तो व्यक्ति को निर्वासित कर दिया जाएगा. जिलों के प्रमुख होने के नाते, हम किसी व्यक्ति की प्रमाण-पत्र का पता लगाने की सबसे अच्छी स्थिति में हैं.”

कलेक्टरों को अप्रत्यक्ष रूप से यह पता लगाने का अधिकार है कि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है या नहीं, पिछले कुछ साल में नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का अधिकार भी दिया गया है. कथित तौर पर, 2022 तक, MHA ने तीन उल्लिखित देशों के गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने के लिए विभिन्न राज्यों के 31 कलेक्टरों को अधिकार दिया था.

ये कोई छिटपुट मामले नहीं हैं, जिनमें कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेटों की पहले से ही शक्तियों, जैसा कि उन्हें परस्पर कहा जाता है, को हाल के वर्षों में केंद्र या राज्य सरकार द्वारा विस्तारित किया गया है.

वक्फ अधिनियम में विवादास्पद संशोधन से लेकर डीएम को यह तय करने की अनुमति देना कि विवादित संपत्ति वक्फ है या नहीं, डीएम को ट्रांसजेंडर प्रमाणपत्र जारी करने का अधिकार देना. संशोधित किशोर न्याय अधिनियम से लेकर जिसके तहत डीएम गोद लेने के लिए अंतिम स्वीकृति देने वाला प्राधिकारी है, विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पारित धर्मांतरण विरोधी कानूनों तक — कलेक्टर पहचान, संपत्ति और धार्मिक अधिकारों के महत्वपूर्ण मामलों में तेज़ी से मध्यस्थ बन रहे हैं.

कुछ सेवारत डीएम के लिए यह सरकार और जनता के उनके कार्यालय में विश्वास को दर्शाती है, जो दशकों से देश की प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य आधार रहा है.

हालांकि, दूसरों के लिए, कलेक्टर या डीएम के अनिर्वाचित कार्यालय के साथ निहित शक्तियां निरंतर औपनिवेशिक विरासत का गहरा लक्षण हैं, जिसमें डीएम “एक सौम्य तानाशाह” के रूप में अनियंत्रित भारतीय नागरिकों को नियंत्रण में रखते हैं.


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किशोर न्याय अधिनियम

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 में 2021 में किए गए संशोधनों ने गोद लेने के आदेश जारी करने की शक्ति सिविल न्यायालयों से छीन ली और इसे जिला मजिस्ट्रेट को दे दिया.

इसके अलावा, डीएम को बाल देखभाल संस्थानों को पंजीकृत करने और जिला बाल संरक्षण इकाइयों, बाल कल्याण समितियों, किशोर न्याय बोर्डों, विशेष किशोर पुलिस इकाइयों के कामकाज का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करने का अधिकार दिया गया.

सरकार के अनुसार, संशोधनों से गोद लेने की प्रक्रिया में तेज़ी आएगी. अदालतों को आदेश जारी करने में बहुत समय लगा.

धर्मांतरण विरोधी कानून

पिछले कुछ साल में कई राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किए हैं या उनमें संशोधन किया है, जिससे विवाह के माध्यम से भी धर्मांतरण करना कठिन हो गया है क्योंकि इसमें निर्दोष साबित करने का भार आरोपी पर डाला गया है.

झारखंड, मध्य प्रदेश और हरियाणा ने क्रमशः 2017, 2021 और 2022 में धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किए, जबकि उत्तर प्रदेश ने सबसे पहले 2021 में धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया; राज्य द्वारा 2024 में पेश किए गए संशोधनों ने कानूनों को सख्त और अधिक व्यापक रूप से लागू करने योग्य बना दिया. हिमाचल प्रदेश ने सबसे पहले 2019 में धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया और उन्हें और अधिक सख्त बनाने के लिए 2022 में संशोधन पेश किए.

इन सभी राज्यों में धर्मांतरण करने वाले व्यक्ति और धर्मांतरण समारोह को अंजाम देने वाले व्यक्ति के लिए जिला मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत करना अनिवार्य है. उदाहरण के लिए यूपी में, जो व्यक्ति धर्म परिवर्तन करना चाहता है, वह डीएम को दो घोषणाएं प्रस्तुत करता है — पहली घोषणा धर्म परिवर्तन से कम से कम 60 दिन पहले और दूसरी घोषणा धर्म परिवर्तन के अधिकतम 60 दिन बाद और धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को डीएम को एक महीने पहले सूचित करना होता है. इसके बाद डीएम धर्म परिवर्तन के “वास्तविक इरादे” का पता लगाने के लिए पुलिस जांच का आदेश देता है.

अधिवक्ता अनस तनवीर ने बताया, “इससे डीएम को किसी आवेदन को स्वीकृत या अस्वीकृत करने के लिए बहुत अधिक विवेकाधीन शक्ति मिल जाती है. पहले भी डीएम को सूचित करने की आवश्यकता होती थी, लेकिन अब आपको डीएम को आवेदन करना होगा, जिससे प्रभावी रूप से उन्हें यह तय करने का अधिकार मिल जाएगा कि आप कानूनी रूप से धर्म परिवर्तन कर सकते हैं या नहीं.”

उदाहरण के लिए देश में पहला धर्मांतरण कानून, उड़ीसा धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1967 में बस इतना कहा गया था कि “बलपूर्वक या प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से” एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण करने पर सज़ा होगी.

हालांकि, अरुणाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1978, जो कभी लागू नहीं हुआ, ने धार्मिक रूपांतरण के मामले में डीएम को सूचित करने का निर्देश दिया.

गुजरात धर्म स्वतंत्रता अधिनियम 2003 में पहली बार डीएम की अनुमति को अनिवार्य बनाने वाला एक खंड पेश किया गया था. 2006 में छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने कानून में एक समान संशोधन पारित किया, जिसमें धर्मांतरण करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए धर्मांतरण से 30 दिन पहले डीएम की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई.

हाल ही में पारित अधिकांश कानून — झारखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम 2017 से शुरू होकर — धार्मिक रूपांतरण के मामलों में डीएम को अधिक विवेकाधीन शक्तियां देने के समान ढांचे का पालन करते हैं.

वक्फ कानून: DM की मध्यस्था

इस साल की शुरुआत में विपक्ष के विरोध के बीच संसद द्वारा पारित विवादास्पद वक्फ अधिनियम के अनुसार, अगर डीएम किसी संपत्ति को सरकारी भूमि के तौर पर चिन्हित करता है, तो वह तब तक वक्फ संपत्ति नहीं रह जाएगी जब तक कि अदालत फैसला नहीं ले लेती और उसकी स्थिति निर्धारित नहीं कर लेती.

इस खंड की विशेष रूप से समीक्षा करने वाली सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल में संकेत दिया था कि डीएम को पूछताछ करने की अनुमति दी जा सकती है. हालांकि, जब तक अदालत मामले पर फैसला नहीं ले लेती, तब तक संपत्ति की स्थिति स्थगित रह सकती है.

इसके अलावा, अगर कोई व्यक्ति किसी संपत्ति को वक्फ घोषित करता है, तो डीएम को नए कानून के तहत दावे की पुष्टि करनी होगी. इसके अलावा, डीएम के पास अब वक्फ ज़मीन के सर्वेक्षण की देखरेख करने का अधिकार है. विवाद के मामलों में वक्फ बोर्ड के बजाय डीएम अंतिम फैसला लेंगे.

इसके अलावा, अन्य उदाहरण भी हैं.

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत, डीएम को लोगों को ट्रांसजेंडर प्रमाणपत्र जारी करना होगा. मध्य प्रदेश में राज्य सरकार ने पिछले साल एक आदेश पारित किया था, जिसके तहत जिलाधिकारियों और संभागीय आयुक्तों को जिलों में कार्यरत भारतीय वन सेवा (आईएफएस) अधिकारियों के मूल्यांकन में अपनी बात कहने का अधिकार दिया गया था.

हालांकि, पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को रद्द कर दिया था.

नवीनतम घटनाक्रम में गृह मंत्रालय ने जिलाधिकारियों को संदिग्ध अनधिकृत अप्रवासियों की पहचान निर्धारित करने का अधिकार दिया है.

शक्तियों का विस्तार

बीते कुछ साल में कलेक्टरों पर अधिक निर्भर रहने का चलन रहा है. एक अन्य डीएम ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “अधिकांश मामलों में यह गति और दक्षता बढ़ाने के लिए है क्योंकि डीएम कार्यालय एक निर्धारित अवधि के भीतर वह सब कुछ करता है जो उसे करना होता है. उदाहरण के लिए जेजे अधिनियम में, ऐसा ठीक इसलिए किया जाता है क्योंकि अदालतों में बहुत वक्त लगता है और बच्चे और दत्तक माता-पिता दोनों ही इंतज़ार करते रहते हैं.”

अधिकारी का कहना है कि अधिकांश मामलों में डीएम के पास पहले से ही संबंधित मौजूदा शक्तियां थीं, अब शक्तियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है या, कुछ मामलों में फैसले लेने को कारगर बनाने के लिए बढ़ा दिया गया है. उदाहरण के लिए वक्फ के मामले में भी, कलेक्टर के पास कुछ शक्तियां थीं क्योंकि अंततः यह ज़मीन का मामला है, लेकिन अब उनके पास बढ़ी हुई शक्तियां हैं.

अधिकारी ने कहा, “महामारी के दौरान आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत डीएम पर अत्यधिक निर्भरता को देखते हुए कोविड के बाद यह प्रवृत्ति थोड़ी अधिक स्पष्ट हो गई.”

भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के एक अधिकारी ने इस बात पर सहमति जताई कि पिछले कुछ सालों में डीएम की शक्तियों में विस्तार हुआ है, लेकिन उन्होंने कहा कि यह केवल अपेक्षित है.

अधिकारी ने कहा, “डीएम जिले में सरकार है. चूंकि वह प्रशासन का केंद्र बिंदु है, इसलिए नए कानून और नियम लागू होने पर वह स्वाभाविक रूप से केंद्रीय प्राधिकारी होगा.”

अधिकारी ने कहा, “डीएम के पास नागरिकता, भूमि, राजस्व, चुनाव, जनगणना जैसे मामलों में अधिकार होते हैं. फिर, यह हैरानी की बात नहीं है कि वक्त के साथ उनकी शक्तियां बढ़ती जाती हैं, लेकिन इसे एक व्यक्ति के हाथों में शक्तियों के संकेन्द्रण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि डीएम कार्यालय बहुत बड़ा है; यह एक संस्था की तरह है — यह जिलों में सरकार है.”

अधिकारी गलत नहीं है. डीएम को आधिकारिक रूप से दी गई शक्तियों के अनुसार, वह ज़मीन और राजस्व प्रशासन और कार्यकारी मजिस्ट्रेट का नेतृत्व करने, कानून और व्यवस्था और सुरक्षा की समग्र निगरानी, ​​जिले में हथियार, विस्फोटक और छायांकन अधिनियम आदि जैसे विभिन्न विशेष कानूनों के संबंध में लाइसेंसिंग और विनियमन, चुनावों का संचालन, आपदा प्रबंधन का नेतृत्व, सार्वजनिक भूमि के संरक्षक के रूप में कार्य करना, विकास कार्यों, खाद्य और नागरिक आपूर्ति का पर्यवेक्षण, और जिले के प्रमुख जनगणना अधिकारी के रूप में कार्य करना, कई अन्य कार्यों के लिए भी जिम्मेदार हैं.

दूसरी प्रशासनिक सुधार समिति की रिपोर्ट के अनुसार, तेलंगाना के अनंतपुर जिले के डीएम, जिसका उल्लेख कलेक्टर की शक्तियों की व्यापकता के उदाहरण के रूप में किया गया था, 50 निकायों की अध्यक्षता करते हैं. केवल चार का नाम लें तो, सिंचाई विकास बोर्ड, एससी/एसटी अत्याचारों पर सतर्कता और निगरानी समिति, जिला वानिकी सलाहकार समिति और आंध्र प्रदेश जल, भूमि और वृक्ष अधिनियम कार्यान्वयन समिति इन निकायों में शामिल हैं.

2009 में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है, “कुछ कलेक्टरों के साथ बातचीत में आयोग ने पाया कि उनमें से कई को पूरी तरह से पता नहीं था कि उन्हें कितनी समितियों की अध्यक्षता करनी है.”

औपनिवेशिक विरासत

पूर्व आईएएस अधिकारी और एवरीथिंग यू वांटेड टू नो अबाउट ब्यूरोक्रेसी बट वेयर अफ्रेड टू आस्क के लेखक टी.आर. रघुनंदन कहते हैं कि डीएम का पद इस बात का सबसे ठोस सबूत है कि भारत ने औपनिवेशिक प्रशासनिक ढांचे को खत्म नहीं किया है. उन्होंने कहा, “अंग्रेज़ों के देश में डीएम नहीं थे. भारत में वह साम्राज्यवाद के लिए एक उपकरण के रूप में थे, जिसे भारतीय सरकारों ने स्वतंत्रता के बाद अपनाया.”

उन्होंने आगे कहा, “इस सरकार ने बेशक, उस प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया है, लेकिन यह बिल्कुल भी नया नहीं है. आईएएस के लिए डीएम का पद सबसे प्रिय, सबसे प्रतिष्ठित नौकरी है — यह वह नौकरी है जो आईएएस के सपने को परिभाषित करती है…यह डीएम को दी गई मामूली शक्ति के कारण है और यह इस सरकार से शुरू नहीं हुआ है.”

रघुनंदन ने कहा, “बात यह है कि इस देश में वामपंथी और दक्षिणपंथी सभी का मानना ​​है कि अनियंत्रित भारतीयों को एक सौम्य तानाशाह द्वारा दूर रखा जाना चाहिए और वह डीएम है. यही कारण है कि डीएम के बारे में ऐसी किंवदंतियां और पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं.”

हालांकि, इस सरकार और अन्य सरकारों के बीच एक अंतर यह है कि इस सरकार के तहत, डीएम राज्य सरकार को दरकिनार करने का साधन बन गए हैं. रघुनंदन ने आगे कहा, “डीएम को केंद्र के प्रति जवाबदेह बनाने का चलन बढ़ रहा है, लेकिन यह भी कोई नई बात नहीं है. इंदिरा गांधी ने इसे बहुत प्रभावी ढंग से किया था और उस वक्त, आपके पास अति उत्साही डीएम थे जो निवारक निरोध आदि जैसे कानूनों का बहुत जोश के साथ उपयोग करते थे.”

उन्होंने कहा, “आईएएस के साथ दिक्कत यह है कि वह अपने अधिकार को कभी नहीं छोड़ते.”

हालांकि, नाम न बताने की शर्त पर तीसरे डीएम ने तर्क दिया है कि कागज़ों पर उनकी शक्तियां बढ़ सकती हैं, लेकिन ज़मीन पर, पिछले कुछ सालों में उन्हें धीरे-धीरे हाशिए पर धकेला गया है.

उन्होंने कहा, “किसी चीज़ के लिए नोडल अधिकारी बनाए जाने और वास्तविक शक्तियां होने के बीच बहुत बड़ा अंतर है. आप ऐसे अधिनियम देख सकते हैं जिनमें डीएम के नाम अक्सर दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तविक विकास और विनियामक कार्यों में, शक्ति राजनीतिक वर्ग और पुलिस-राजनीतिक गठजोड़ द्वारा केंद्रित होती जा रही है. हमारे पास किसी भी बड़ी परियोजना की परिकल्पना या क्रियान्वयन करने की कोई स्वायत्तता नहीं है.”

अधिकारी ने कहा, “आप कह सकते हैं कि हमारे पास यह पता लगाने की शक्ति है कि कौन अवैध प्रवासी है और कौन नहीं, लेकिन यह उस आबादी का एक छोटा सा हिस्सा है, जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं. विकास परियोजनाओं और कानून-व्यवस्था में, जहां यह सच में मायने रखता है, हमारे पास लगातार कोई शक्ति नहीं रह गई है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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