नई दिल्ली : दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का कभी दिल्ली के आवास क्षेत्र पर एकाधिकार था और उसने राष्ट्रीय राजधानी को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सिर्फ दो दशक पहले तक, निम्न, मध्यम और उच्च आय वाले वर्ग के लिए इसकी सस्ती आवासीय योजनाओं की मांग इतनी ज्यादा थी कि संभावित खरीदार ‘डीडीए लॉटरी’ के लिए दौड़ पड़ते थे. यह एक हाउसिंग ड्रा है जिसके जरिए फ्लैट आवंटित किए जाते हैं.
हालांकि, पिछले कुछ सालों में, बढ़ती आबादी, निजी कंपनियों के आने और जमीन की कमी के चलते सीमाओं में बंधे होने से डीडीए फ्लैटों के निर्माण के मामले में काफी पीछे रह गया है.
डीडीए फ्लैटों की मांग साल 2014 से कम होने लगी थी. डीडीए की जमीन पर निर्माण, विकास और पुनर्वास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निजी खिलाड़ियों के हाथों में चली गई.
इन चुनौतियों का सामना करते हुए दिल्ली का यह मुख्य डेवलपर शहर के नए मास्टर प्लान के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने पर ध्यान दे रहा है और ‘फैसिलिटेटर’ और रेगुलेटर की भूमिकाओं के साथ आगे बढ़ते हुए खुद को फिर से बदलने की कोशिश कर रहा है. ‘फैसिलिटेटर’ से यहां मतलब लेआउट योजना बनाने, अनुबंध देने और मैप अप्रूव करने से है.
प्राधिकरण ने पिछले महीने ही ‘दिल्ली के मास्टर प्लान-2041’ के मसौदे को मंजूरी दी है. यह 2007 में लागू 2021 के मास्टर प्लान की जगह लेगा.
डीडीए की कमिश्नर (प्लानिंग) लीनू सहगल ने दिप्रिंट को बताया, ‘डीडीए का काम शुरू से ही जमीन विकसित करना रहा है. लेकिन 2021 मास्टर प्लान के आने से पहले शहर के ज्यादातर इलाकों को पहले ही विकसित किया जा चुका है और इन्हें आगे के रखरखाव और प्रशासन के लिए दिल्ली नगर निगम (MCD) को सौंपा जा चुका है. सिर्फ नरेला, द्वारका और रोहिणी के कुछ हिस्से (राजधानी के अंदर आने वाले) अभी भी डीडीए के पास हैं.
उन्होंने कहा, ‘हमारे पास थोड़ी सी जमीन बची है. अब डीडीए एक फैसिलिटेटर या रेगुलेटर के तौर पर काम कर रहा है. इसमें निजी पार्टियों के जरिए विकास कार्य को अंजाम दिया जाएगा.’
डीडीए की नई जिम्मेदारियों में लैंड-पूलिंग और ग्रीन-बेल्ट गांवों का विकास करना शामिल हो गया है. यह प्राइवेट डेवलपर्स द्वारा किए जाने वाले निर्माण कार्य के लिए भी रास्ते खोल रहा है और झुग्गी पुनर्वास के लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप में उद्यम करने की योजना बना रहा है.
कुछ शहरी क्षेत्र के विशेषज्ञों के मुताबिक, डीडीए की भूमिका में तब तक कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आ सकता जब तक कि बदलते समय के साथ इसकी योजना प्रणाली को अपडेट करने के लिए जमानी स्तर पर कुछ बड़े कदम नहीं उठाए जाएंगे.
डीडीए के पूर्व आयुक्त (योजना) ए.के. जैन ने दिप्रिंट को बताया, ‘लैंड-पूलिंग पॉलिसी एक गड़बड़ झाला है. अगर डीडीए ने अपनी योजना को आसान और तेज बनाने के लिए अभिलेखों के डिजिटलीकरण और जीआईएस मैपिंग जैसी तकनीकों का फायदा नहीं उठाया, तो वह अपनी प्रासंगिकता खो सकता है.’ उन्होंने आगे कहा, ‘उदाहरण के लिए, ज्यादा नहीं सिर्फ 5 साल के लिए जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों को ध्यान में रखते हुए काम किया जाना चाहिए और उसी के अनुसार योजना बनाई जानी चाहिए.’
यह भी पढ़ें: बीजेपी 2024, यहां तक कि 2029 के लिए भी अपना रोडमैप बना रही है. विपक्ष अब भी 2018 में फंसा हुआ है
फ्लैटों की बढ़ती मांग से लेकर बिना बिके फ्लैटों तक
डीडीए का गठन 1957 में किया गया था. इसे दिल्ली में सस्ते घर मुहैया कराने के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के साथ-साथ रेजिडेंशियल प्रोजेक्ट और कॉमर्शियल जमीन के लिए योजना तैयार करने, उसके विकास और निर्माण का काम सौंपा गया था. इन जिम्मेदारियों में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भीतर सड़कों, पुलों, नालियों, अंडरग्राउंड वाटर रिजर्वोइयर, कम्युनिटी सेंटर, खेल केंद्रों और हरित पट्टी जैसी सार्वजनिक सुविधाएं मुहैया करना शामिल था.
नियमों के मुताबिक, सिर्फ लॉटरी के जरिए घर आवंटित किया जाता है. जिनके पास दिल्ली में पहले से कोई संपत्ति है वो डीडीए परियोजनाओं के लिए आवेदन नहीं कर सकते थे. यहां प्राइवेट डेवलपर्स के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी.
अपनी वेबसाइट पर प्राधिकरण ने लिखा है कि हमने ‘10.65 लाख से ज्यादा आवास इकाइयों का निर्माण किया है या निर्माण की सुविधा प्रदान की है. इसकी वजह से दिल्ली की आधी से ज्यादा आबादी को रहने की जगह मिल पाई है.’
1980 और 1990 के दशक में डीडीए ने वसंत कुंज, आर के पुरम, सफदरजंग आदि जैसे राजधानी के प्रमुख क्षेत्रों में लगभग 100 बड़े रेजिडेंशियल पॉकेट बनाए थे.
डीडीए हाउसिंग कमिश्नर वी.एस. यादव ने बताया, ‘तब कोई प्राइसिंग फॉर्मूला नहीं था. डीडीए सिर्फ संपत्ति के अधिग्रहण और निर्माण में लगी कीमत को ही वसूलता था. लोगों को प्राइम लोकेशन पर औसत आकार के घर सिर्फ 10-20 लाख रुपये मिल जाया करते थे.’
उन्होंने कहा, ‘लेकिन यह उदारीकरण (1991) से पहले की स्थिति थी. उसके बाद डीडीए फ्लैटों की मांग बढ़ने लगी और आने वाले दशकों में लोगों की इतनी भारी मांग को पूरा कर पाना संभव नहीं था.’
1990 के दशक के बाद, डीडीए का ध्यान दिल्ली के किनारों पर दूर-दराज इलाकों में बसे रोहिणी, द्वारका और नरेला पर केंद्रित हो गया.
यादव ने दिप्रिंट को बताया, ‘डीडीए घरों की मांग में आने वाली कमी के लिए कुछ कारण जिम्मेदार रहे हैं. इसमें से एक नोएडा, गुड़गांव और गाजियाबाद जैसे आसपास के इलाकों में रियल एस्टेट के तेजी से बढ़ते कदम भी थे. यहां जमीन की कीमत कम थी और लोगों को कम कीमत पर घर मिलने लगे. इस तरह से यह 2014 के बाद डीडीए हाउसिंग प्रोजेक्ट्स में आने वाली मंदी के लिए एक कारण बना.’
हाल-फिलहाल में डीडीए के घरों की मांग में इतनी कमी आई है कि प्राधिकरण को पूरी दिल्ली में लगभग 40,000 फ्लैटों की बिना बिके इन्वेंट्री के साथ जूझना पड़ रहा है. बहुत से बिना बिके फ्लैट शहर के किनारों बसे इलाकों में हैं.
यादव ने बताया कि नरेला जैसे इलाके अभी भी विकसित हो रहे हैं. वहां तेजी से बने नए फ्लैटों की तादात काफी ज्यादा है. लेकिन बेहतर ट्रांसपोर्ट जैसे बुनियादी सुविधाएं की अभी भी कमी है. इसलिए, लोग वहां जाने में हिचकिचा रहे हैं.
डीडीए के वाइस-चेयरमैन सुभाशीष पांडा ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम इन सारी इन्वेंट्री को बेचने के लिए कई तरह के नीतिगत विकल्पों पर विचार कर रहे हैं. इनमें से ज्यादातर फ्लैट नरेला में ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) कैटेगरी के हैं. नरेला में मेट्रो लाइन बिछाने के लिए हम दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन के साथ सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं. यह एक जीत की स्थिति होगी. अगर खाली पड़े फ्लैटों में से आधे को भी मालिक मिल जाएं तो चीजें सुधरने लगेंगी.’
यादव के अनुसार, डीडीए ने बिना बिके हुए स्टॉक के चलते आगे के निर्माण कार्य को धीमा कर दिया है. इन्हें बेचने के लिए नियमों में भी ढील दी जा रही है.
पिछले साल डीडीए ने अपने आवास नियमों में संशोधन को मंजूरी दी थी. इसमें डीडीए फ्लैट खरीदने के लिए दिल्ली में पहले से ही संपत्ति रखने वाले लोगों को प्रतिबंधित करने वाले क्लॉज को हटा दिया गया.
अन्य छूटों में, आवास योजनाओं में पहले आओ-पहले पाओ के आधार पर बिना बिके फ्लैटों की पेशकश करना और खरीदारों को अपनी पसंद का फ्लैट चुनने देना शामिल है. नरेला जैसे ‘विकासशील इलाकों’ में बने फ्लैटों पर डिस्काउंट दिए जाने पर भी विचार किया जा रहा है.
डीडीए की नई जिम्मेदारी- लैंड-पूलिंग, रिडेवलपमेंट और पुनर्वास
अपनी कुछ आवास परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डालने वाला डीडीए अब दिल्ली भर में लैंड-पूलिंग और पुनर्विकास/पुनर्निर्माण में शामिल हो गया है. और निजी डेवलपर्स पर आगे के निर्माण की जिम्मेदारी डाली गई है. इसकी अवधारणा 2021 के मास्टर प्लान में पेश की गई थी.
लैंड-पूलिंग पहली बार 2018 में डीडीए द्वारा अधिसूचित एक नीति थी और इसे दिल्ली के सबसे बड़े भूमि सुधार के तौर पर प्रचारित किया गया था. इसका मकसद शहरीकरण से जुड़ी समस्याओं को तेजी से समाधान निकालना है.
लैंड-पूलिंग के मुताबिक जिन लोगों के पास अपनी जमीन है या ऐसे लोगों का समूह डीडीए से मिलकर लैंड पूलिंग स्कीम के तहत रजिस्टर्ड हो सकते हैं. लेकिन इसमें 70 प्रतिशत जमीन कंटीजीयस यानी एक साथ होनी चाहिए. डीडीए रेजिडेंशियल व कॉमर्शियल मार्किंग सहित डेवलप्ड लैंड का 60 प्रतिशत हिस्सा मालिकों को लौटा देगा. बाकी की 40 प्रतिशत जमीन डीडीए की प्रॉपर्टी होगी और इसी हिस्से में फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर और पब्लिक फैसिलिटी होंगी.
सहगल ने बताया कि ‘दिल्ली में लैंड-पूलिंग के तहत कवर किया गया क्षेत्र लगभग 20,000-हेक्टेयर से ज्यादा है. इस जमीन को डीडीए विकसित करेगा. लेकिन उसका काम सिर्फ लेआउट तैयार करना और सर्विस देना होगा. जबकि वास्तविक निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी निजी खिलाड़ियों के हाथों में होगी.’
2041 के मास्टर प्लान के मसौदे ने शहर के हरित पट्टी/कृषि क्षेत्रों में मौजूद गांवों के नियोजित विकास पर ध्यान देने के साथ-साथ ‘रीजनरेशन’ या पुनर्निर्माण की अवधारणा को पेश किया है, जिसमें इलाके को फिर से एक नया रूप रंग दिया जाता है. इसमें प्राइवेट रियल स्टेट के साथ-साथ कॉमर्शियल इस्तेमाल के लिए निर्माण गतिविधियों के लिए भी रास्ते खोले गए हैं. इसमें हरित मानदंडों का पालन अनिवार्य किया गया है.
डीडीए ने 2021 में ग्रीन डेवलपमेंट एरिया पॉलिसी के मसौदे को भी मंजूरी दी है, ताकि हरित पट्टी के अंतर्गत आने वाली जमीन के विकास के लिए एक एकीकृत ढांचा प्रदान किया जा सके.
सभी के लिए घर मुहैया कराने की केंद्र सरकार की योजना के अनुरूप प्राधिकरण 376 झुग्गी झोपड़ी समूहों के लिए इन-सीटू स्लम पुनर्वास पर भी काम कर रहा है. इसके तहत हाल ही में सबसे पहले पूरी की गई परियोजना कालकाजी एक्सटेंशन में गगनचुंबी इमारतों वाली कॉलोनी है.
वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक, डीडीए ने कालकाजी परियोजना पर लगभग 400 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी सभी परियोजनाएं सिर्फ सार्वजनिक-निजी भागीदारी के साथ पूरी की जाएंगी.
यह भी पढ़ें: परिपक्व, अटल – चीनी मीडिया शी की मॉस्को यात्रा से पहले रूस के साथ संबंधों का जश्न मना रहा है
‘फैसिलिटेटर’ होने की मुश्किलें
2015 में शहरी विकास मंत्रालय ने मधुकर गुप्ता समिति की स्थापना की थी. इसका मकसद दिल्ली डेवलपमेंट एक्ट, 1957 पर फिर से विचार करना और उसे फिर से तैयार करना था. साथ ही इसे डीडीए को एक डेवलपर (परियोजनाओं का) से एक फैसिलिटेटर बनने में मदद करने के उपायों का सुझाव भी देना था.
पैनल की सिफारिशों के अनुसार, डीडीए ने 2020 में एक प्रस्ताव तैयार किया, जिसमें अन्य बातों के अलावा, प्राधिकरण के लिए आदर्श कामकाजी पैटर्न, बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों की संख्या में कमी और कर्मचारियों की संख्या- जिसमें कुछ पदों को खत्म करना और नए का निर्माण शामिल है- को संशोधित करने का सुझाव दिया गया था. कर्मचारियों के लिए अपस्किलिंग और प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विचार किया गया.
डीडीए के प्रिंसिपल कमिश्नर (पर्सनल) डॉ. राजीव कुमार तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह बदलाव अभी भी पाइपलाइन में हैं. इसे लेकर कर्मचारियों की ओर से कोई आपत्ति नहीं है. हम सभी को लूप में रख रहे हैं और अभी भी इस पर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि हम ऑप्टीमल स्ट्रक्चर तक पहुंचना चाहते हैं.’
समिति के सदस्य और डीडीए के पूर्व आयुक्त जैन ने कहा कि डीडीए में बुनियादी संरचनात्मक परिवर्तनों की जरूरत थी क्योंकि ‘इसका नेतृत्व करने वाले लोगों के पास विकासशील शहरों के बारे में जो भी जानकारी थी, वह अब पुराने हो चुकी है. जिन नियमों का 40-50 साल पहले पढ़ा गया था, वह अब काम नहीं करते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘डीडीए ने समिति की रिपोर्ट (2017 में प्रस्तुत) पढ़ी तक नहीं है. इसमें सिफारिशें थीं कि डीडीए अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि प्राधिकरण को उन क्षेत्रों में लैंड-पूलिंग को अनिवार्य बनाने की शक्ति दी जा सके, जहां यह बेहद जरूरी है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है.’
जैन ने आगे कहा कि डीडीए का परियोजनाओं का फैसिलिटेटर बनना कोई साधारण मामला नहीं है क्योंकि निजी खिलाड़ी ‘बड़ी सार्वजनिक परियोजनाओं को हाथ में लेने के बहुत शौकीन नहीं हैं और इसलिए इसे बहुत सावधानी से करना होगा’.
उन्होंने आगे कहा, ‘लैंड-पूलिंग हाइब्रिड होनी चाहिए. डीडीए को वास्तव में घरों से पहले उचित बुनियादी ढांचा तैयार करने की जरूरत है, अन्यथा यह काम नहीं करेगा.’
डीडीए के पूर्व उपाध्यक्ष बलविंदर कुमार ने कहा, ‘डीडीए ने महसूस किया है कि उसे प्राइवेट डेवलपर्स को अपनी जमीन पर निर्माण करने के लिए अनुबंध नहीं देना चाहिए. क्योंकि क्वालिटी बनाए रखने का सवाल है’.
लैंड-पूलिंग जैसी नीतियों पर संदेह व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘फैसिलिटेशन’ कुछ इस तरह से होना चाहिए था कि लोग पूल लैंड के लिए खुद से आगे आएं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. दूसरी ओर भूमि अधिग्रहण में समय लगता है और यह काफी जटिल होगा. लोग एक नियामक ढांचे से बहुत डरे हुए हैं और इसीलिए लैंड-पूलिंग अभी तक सफल नहीं हुई है.’
डीडीए के 2021 के मास्टर प्लान के बारे में बात करते हुए जैन ने आरोप लगाया कि इसे ठीक से लागू नहीं किया गया था. गैर-कानूनी स्लम कॉलोनियों की बढ़ती रफ्तार से आप इसका सहज तौर पर अंदाजा लगा सकते हैं.
2041 के लिए नए मास्टर प्लान (जो एक कानूनी दस्तावेज है) की सीमाओं का हवाला देते हुए जैन ने कहा कि ‘डेवलपमेंट कंट्रोल’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘डेवलपमेंट नॉर्म्स’ का इस्तेमाल किया गया है.
इसे समझाते हुए उन्होंने कहा: ‘अगर कोई डेवलपर अनिवार्य संख्या से अधिक मंजिल बनाता है, तो इसे मास्टर प्लान के अनुसार अदालत में अवैध नहीं माना जाएगा, क्योंकि ‘मानदंड’ शब्द प्रतिबंधात्मक नहीं है.’
उन्होंने आगे कहा कि ‘पहले दिल्ली मास्टर प्लान हर राज्य के लिए एक मॉडल हुआ करता था, लेकिन अब यह एक ऐसा मॉडल है, जो बताता है कि प्लानिंग कैसी नहीं होनी चाहिए.’
(संपादन- इन्द्रजीत)
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: सऊदी-ईरान सौदा दिखाता है कि बाई-पोलरिटी लौट आई है, भारत को काल्पनिक मल्टी-पोलर सपने को छोड़ देना चाहिए