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Monday, 23 December, 2024
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दिल्ली उच्च न्यायालय के जज ने नए आपराधिक कानूनों की तारीफ की, बोले- भारतीय मूल्यों के साथ है तालमेल

केजरीवाल और सिसोदिया की जमानत याचिकाओं को खारिज करने वाले न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा, आरएसएस से जुड़े वकीलों के संगठन अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद द्वारा आयोजित कार्यक्रम में बोल रहे थे.

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नई दिल्ली: भारतीयों द्वारा भारतीयों के लिए बनाए गए तीन नए आपराधिक कानून, लीगल सिस्टम को सजा के बजाय न्याय पर फोकस करने में मदद करेंगे. यह बात दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने शुक्रवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े वकीलों के संगठन अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद द्वारा आयोजित एक कही. उन्होंने कहा कि वे हिंदू मूल्यों पश्चताप (पश्चाताप) को समाहित करते हैं, पुनर्वास न्याय पर ध्यान केंद्रित करते हैं और स्वदेशी मूल्यों को भारत की कानूनी प्रणाली में शामिल करते हैं.

नए आपराधिक कानूनों के लिए सरकार के औचित्य से सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम जैसे कानूनी ढांचे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन हैं और वे भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक वास्तविकताओं को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं। कार्यक्रम में बोलने वाले दो अन्य लोगों – दिल्ली के राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय की प्रोफेसर रितु गुप्ता और वकील शिराज कुरैशी – ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए।

न्यायमूर्ति शर्मा दिल्ली आबकारी नीति मामले में कई प्रमुख राजनेताओं- आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह, साथ ही भारत राष्ट्र समिति की के. कविता की जमानत याचिकाओं को खारिज करने के लिए चर्चा में रही हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कोयला घोटाले के एक मामले में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिलीप रे की सजा पर भी रोक लगा दी, जिससे उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति मिल गई।

व्याख्यान के दौरान, न्यायमूर्ति शर्मा ने भारतीय मूल्यों के साथ अधिक तारतम्य रखने वाले सिद्धांतों को शामिल करने के लिए नए कानूनों की प्रशंसा की। उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा, भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में मामूली अपराधों के लिए सजा के रूप में सामुदायिक सेवा शामिल है, जो हिंदू परंपरा में निहित पश्चाताप और पुनर्वास न्याय की अवधारणा “पश्चाताप” के सिद्धांत को मूर्त रूप देती है।

उन्होंने कहा, “आईपीसी में चेन-स्नेचिंग जैसे अपराध का कोई उल्लेख नहीं है।” इसे भारतीय शहरों में अक्सर होने वाली घटना बताते हुए उन्होंने तर्क दिया कि चेन-स्नेचिंग को चोरी के रूप में देखना आदर्श नहीं है। उन्होंने कहा कि यह एक समझौता था जो विशेष रूप से इसे अलग तरीके से व्यवहार करने के लिए निर्धारित करने वाले कानून की अनुपस्थिति के कारण आवश्यक था।

उन्होंने कुछ मामलों के अपने अनुभव को याद किया जिन्हें सजा के बजाय मध्यस्थता के माध्यम से हल किया जा सकता था, जैसे भाई-बहनों के बीच मामूली विवाद। उन्होंने एक ऐसे मामले को भी याद किया जहां उन्होंने जमानत की शर्त के रूप में समाज सेवा का आदेश दिया था और इसके लिए उनकी आलोचना की गई थी, क्योंकि उस समय कानून में इसे सजा के रूप में स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया गया था। हालाँकि उन्होंने इसे प्रभावी पाया, उन्होंने कहा, उन्हें पता था कि अगर इसे चुनौती दी जाती, तो आदेश को रद्द कर दिया जाता।

उन्होंने कहा, “मैं खुद से सोच रही थी कि अगर मैं 19 साल के इस व्यक्ति को जेल भेज दूं और वह जेल में खूंखार अपराधियों के साथ हो, तो क्या मैं न्याय कर रही हूं? उसे जेल भेजकर मैं उसे दंडित कर रही हूं, न्याय नहीं कर रही हूं।”

उन्होंने कहा, “आज, एक न्यायाधीश के रूप में, मैं सशक्त महसूस करती हूं, क्योंकि न्याय संहिता का केंद्रबिंदु न्याय है, दंड नहीं।”

बी.एन.एस. की धारा 4(एफ) में 5,000 रुपये से कम की चोरी जैसे छोटे अपराधों के लिए दंड के रूप में सामुदायिक सेवा की व्यवस्था की गई है।

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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