नई दिल्ली: अक्टूबर 2022 में जब एक स्व-घोषित ‘आदर्श पति’ ने अपने ‘दबंग’ पत्नी के खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला दर्ज करवाया, तो दिल्ली की एक निचली अदालत ने उसकी सुनवाई की और उसकी पत्नी को इस मामले में समन भी जारी किया. हालांकि, पत्नी ने अब इस दलील के साथ दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है कि भारत का घरेलू हिंसा कानून केवल महिलाओं के मामले में ही लागू होता है.
एक कड़वाहट भरे विवाह से जन्मा यह मामला, जिसके तहत दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया है, ने यह पेचीदा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत के घरेलू हिंसा कानून के तहत किसी महिला के खिलाफ किसी पुरुष द्वारा मामला दर्ज करवाया जा सकता है? निचली अदालत के मुताबिक ऐसा हो सकता है, लेकिन पत्नी की वकील आशिमा मंडला ने हाईकोर्ट में दायर याचिका में तर्क दिया है कि ऐसा संभव नहीं है.
बता दें कि इस कानून का पूरा नाम ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (प्रोटेक्शन ऑफ़ वीमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट) 2005 है, लेकिन दिल्ली में पहली बार कड़कड़डूमा पूर्व स्थित महिला अदालत ने पिछले 5 नवंबर को एक आदेश पारित किया, जिसमें पति की याचिका के आधार पर पत्नी के खिलाफ समन जारी किया गया था. पति ने अपनी शिकायत को इसी कानून की धारा 12 के तहत दायर करवाया था.
यह धारा किसी भी ‘पीड़ित शख्स’ को इस अधिनियम के तहत अपने लिए राहत की मांग करते हुए मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन दायर करने की अनुमति देती है.
पत्नी ने अब खुद के खिलाफ जारी किये गए समन और घरेलू हिंसा के सिलसिले में केस चलाये जाने को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. उन्होंने अधिवक्ता आशिमा मंडला के माध्यम से बुधवार को दायर एक याचिका में उनके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द करने की मांग की है.
इस महिला का दावा है कि इस अधिनियम का शीर्षक ही इस बात को स्वतः स्पष्ट करता है कि इसके तहत दिये जाने वाले संरक्षण और सहारा का दायरा किसी महिला के पीड़ित होने तक ही सीमित है.
कानून क्या कहता है?
साल 2005 के इस अधिनियम की धारा 2 (ए) एक ‘पीड़ित शख्स’ को ‘किसी भी ऐसी महिला के रूप में परिभाषित करती है, जो प्रतिवादी के साथ घरेलू संबंध में है, या रही है और जो प्रतिवादी द्वारा घरेलू हिंसा के किसी भी कृत्य का शिकार होने का आरोप लगाती है.’
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2016 में अधिनियम की धारा 2 (क्यू) के दायरे का विस्तार किया था. यह प्रावधान ‘प्रतिवादी’ को परिभाषित करता है, और इसके तहत पहले कहा गया था, ‘प्रतिवादी का मतलब किसी भी ‘वयस्क पुरुष’ से है, जो पीड़ित शख्स के साथ घरेलू संबंध में है, या रहा है और जिसके खिलाफ पीड़ित शख्स ने इस अधिनियम के तहत कोई राहत मांगी है.’
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के दायरे को थोड़ा विस्तारित करते हुए ‘वयस्क पुरुष’ शब्द को हटा दिया था. इस फैसले ने इस कानून के तहत महिलाओं के खिलाफ मुकदमा चलाने का मार्ग प्रशस्त किया था.
हालांकि, इस फैसले ने इस कानून के तहत केवल किसी प्रतिवादी या किसी अभियुक्त की परिभाषा को बदला था, न कि ‘पीड़ित महिला’ की परिभाषा को.
मगर, कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक निर्णय ने 18 अप्रैल 2017 को तब सुर्खियां बटोरी जब उसने बेंगलुरु के एक व्यक्ति को उसकी पत्नी के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करने की अनुमति दे दी. जस्टिस आनंद ब्यारेड्डी ने सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को आधार बनाते हुए कहा था कि कोई पुरुष भी घरेलू हिंसा कानून के प्रावधानों को अपनी तरफ से लागू कर सकते हैं. हालांकि, इसके कुछ ही दिनों बाद, एक न्यायाधीश के रूप में अपने अंतिम कार्य दिवस पर, जस्टिस बायरारेड्डी ने अपने ही आदेश को ‘स्पष्ट रूप से गलत’ बताते हुए वापस ले लिया था.
आगे चलकर, सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2018 के अपने एक फैसले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोनों आदेशों को रद्द कर दिया था और याचिकाकर्ता से सत्र न्यायालय के समक्ष इसी मामले में अपनी लंबित अपील को आगे बढ़ाने के लिए कहा था.
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विवाह के मंडप से लेकर अदालत के कमरे तक
दिल्ली वाले मामले में शामिल दंपति फरवरी 2008 में शादी के बंधन में बंधे थे और उनके 13 और पांच साल के दो बच्चे भी हैं. मगर, इस वैवाहिक संबंध में शामिल महिला (पत्नी) ने आरोप लगाया है कि उसे उसके पति और उसके परिवार के सदस्यों की तरफ से ‘मौखिक, शारीरिक, भावनात्मक और वित्तीय शोषण’ का शिकार होना पड़ा है.
पति ने इसी साल 24 अगस्त को तलाक की अर्जी दाखिल की थी. फिर 6 अक्टूबर को, पति ने भी घरेलू हिंसा कानून वाले अधिनियम के तहत इसकी धारा 18 (सुरक्षा आदेश), 20 (मौद्रिक राहत), 21 (हिरासत आदेश) और 22 (मुआवजा आदेश) के तहत राहत की मांग की. इसके बाद पत्नी ने भी 19 अक्टूबर को पति के खिलाफ ऐसी ही शिकायत दर्ज कराई थी.
पति ने अपनी शिकायत में इस विवाह संबंध को ‘एक आदर्श पति की दर्दनाक कहानी’ बताया है. उनके अनुसार, उनकी पत्नी ‘बहुत दबंग प्रकृति की है ‘ और कथित तौर पर ‘लगभग 52 अन्य व्यक्तियों’ के साथ विवाहेतर संबंधों में लिप्त रही है.
इन कथित प्रेमियों में से दो को पति द्वारा दर्ज करवाई गयी घरेलू हिंसा की शिकायत में प्रतिवादी के रूप में नामित भी किया गया है. साथ ही, उन्होंने अपनी शादी के दौरान ‘भारी शोषण’ के लिए 36 लाख रुपये के मौद्रिक मुआवजे की मांग भी की है.
पति, देवर और ननद के खिलाफ दायर करवाई गई पत्नी की शिकायत में शारीरिक, मौखिक और वित्तीय दुर्व्यवहार के कई विस्तृत उदाहरणों की फेहरिस्त दी गई है. इसमें कहा गया है कि पति ने महिला और उसके परिवार को ‘परेशान’ करने के इरादे से घरेलू हिंसा की ‘दुर्भावनापूर्व’ शिकायत की है. उसने भी अपने पति से 2 करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग की है.
उन दोनों की शिकायतों पर सुनवाई करते हुए निचली अदालत ने एक ‘डोमेस्टिक इंसिडेंट रिपोर्ट’ की मांग की है, जो एक ऐसा दस्तावेज होता है जिसमें पीड़ित, अपराधी और हिंसा की कथित घटनाओं के बारे में सारा विवरण शामिल रहता है.
इस कानून के तहत यह रिपोर्ट या तो किसी सुरक्षा अधिकारी या किसी सेवा प्रदाता द्वारा बनाई जाती है, जो फिर अदालत को अपनी रिपोर्ट भेजते हैं.
‘यह कानून सिर्फ महिलाओं के लिए है’
दिल्ली उच्च न्यायालय में दर्ज करवाई गई इस महिला की याचिका में कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत क़ानूनी सुरक्षा ‘जानबूझकर’ और ‘पूरी तरह से’ केवल ‘महिला’ तक ही सीमित रखी गई है. इसमें यह भी कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए (पति द्वारा पत्नी के साथ की गई क्रूरता) भी केवल महिलाओं को ही पीड़ित मानती है, जबकि आरोपी पुरुष या महिला कोई भी हो सकता है.
उन्होंने जोर देकर कहा है कि मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने पत्नी के खिलाफ ‘बिना दिमाग लगाए, बिना बोले हुए आदेश के जरिये न्यायिक अतिक्रमण के अति उत्साही उपयोग के रूप में’ यह कार्यवाही शुरू की है.
दिप्रिंट के साथ बात करते हुए, इस महिला की वकील मंडला ने कहा कि 2005 का घरेलू हिंसा कानून केवल महिलाओं के लिए है.
उन्होंने समझाया कि यह ‘परिवारों के भीतर होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा से महिलाओं की रक्षा के लिए संसद द्वारा बनाया गया एक विशेष कानून है.’
उन्होंने कहा कि इस तथ्य के बावजूद कि आईपीसी की धारा 498ए पहले से ही महिलाओं (की सुरक्षा) के लिए उपलब्ध थी, 2005 का यह कानून ‘महिलाओं को सुरक्षा आदेश, निवास आदेश, मौद्रिक आदेश आदि के रूप में प्रभावी और त्वरित राहत देने के लिए’ बनाया गया था.
हालांकि, इस विशेष कानून की संवैधानिकता को देश भर के विभिन्न उच्च न्यायालयों के समक्ष इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह भेदभावपूर्ण है और पुरुषों को कोई अधिकार प्रदान नहीं करता है, मगर मंडला ने कहा कि इन विवादों में कोई खास दम नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘सभी उच्च न्यायालयों ने सर्वसम्मति से उक्त प्रकार की चुनौती को खारिज कर दिया है और यह माना है कि यह महिलाओं के दीन-हीन और निराशाजनक भविष्य, जिसके लिए सुरक्षात्मक और सुधारात्मक उपायों की आवश्यकता है, की आवश्यकताओं पूरा करने के लिए संसद द्वारा बनाया गया एक विशेष कानून है. इस विधायी मंशा को संवैधानिक न्यायालाय के ढेर सारे निर्णयों के साथ और सुदृढ़ किया गया है, जो साफ तौर पर यह स्पष्ट करते हैं कि यह कानून केवल महिलाओं के लिए है.’
(अनुवाद: रामलाल खन्ना | संपादन: ऋषभ राज)
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