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Sunday, 24 November, 2024
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दिल्ली HC ने ‘वैवाहिक बलात्कार’ पर फैसला सुरक्षित रखा, मामले को टालने वाली सरकार की याचिका की खारिज

केंद्र सरकार राज्यों और अन्य हितधारकों की टिप्पणियों का इंतजार करना चाहती थी लेकिन अब यह मामला 2 मार्च के लिए सूचीबद्ध किया गया है. इस बीच सभी पक्षों के वकीलों को अपनी लिखित दलीलें दाखिल करने को कहा गया है.

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नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने सोमवार को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में वैवाहिक बलात्कार वाले अपवाद की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.

यह आदेश जस्टिस राजीव शकधर और जस्टिस सी. हरि शंकर की बेंच द्वारा पारित किया गया, जिसने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा किए गए इस अनुरोध को खारिज कर दिया कि जब तक सभी हितधारकों से टिप्पणियां प्राप्त नहीं हो जाती तब तक के लिए इस मामले को टाल दिया जाए और कोई आदेश पारित नहीं किया जाए.

अदालत ने कहा, ‘हमने मिस्टर मेहता को सुनवाई के दौरान ही संकेत दे दिया है कि किसी चल रहे मामले में यह संभव नहीं हो सकता है क्योंकि परामर्श प्रक्रिया समाप्त होने की कोई अंतिम तिथि नहीं होती है. चूंकि सभी पक्षकारों के वकील ने अपनी-अपनी दलीलों को रख दिया है, इसलिए फैसला सुरक्षित रखा गया है.’ इस मामले को अब 2 मार्च के लिए सूचीबद्ध किया गया है और इस बीच सभी पक्षों के वकीलों को अपनी-अपनी लिखित दलीलें दाखिल करने का निर्देश दिया गया है.


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क्या है यह मामला?

यह अदालत दो गैर सरकारी संगठनों, आरआईटी फाउंडेशन और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेन एसोसिएशन समेत दो अन्य व्यक्तियों द्वारा आईपीसी की धारा 375 के दूसरे अपवाद की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.

आईपीसी की धारा 375 बलात्कार के अपराध को परिभाषित करती है लेकिन एक विवाहित जोड़े के बीच का यौन संसर्ग (सेक्सुअल इंटरकोर्स) इसके लिए एक अपवाद है. इस अपवाद में कहा गया है, ‘अपनी पत्नी के साथ किसी पुरुष द्वारा किया गया यौन संसर्ग बलात्कार नहीं है, बशर्ते पत्नी की उम्र पंद्रह वर्ष से कम नहीं है.’

2017 के एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक संबंध के भीतर संभोग के लिए सहमति की आयु को 15 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष करने के मामले में इस अपवाद का जिक्र करते हुए उस मामले को ख़ारिज कर दिया था. हालांकि, वह मामला विशेष रूप से बाल विवाह के मामलों से संबंधित था, न कि वैवाहिक बलात्कार के व्यापक मुद्दे के साथ.

आपको कोई कड़ा फैसला लेना ही होगा

सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान, सॉलिसिटर जनरल मेहता ने एक बार फिर से अदालत को बताया कि केंद्र सरकार,  राज्य सरकारों और अन्य हितधारकों से परामर्श करने के बाद ही इन याचिकाओं पर कोई साफ़ रुख ले सकती है. उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि 10 फरवरी को राज्य सरकारों और राष्ट्रीय महिला आयोग को एक पत्र भेजा गया था जिसमें इस मुद्दे पर उनके सुझाव मांगे गए थे.

मेहता ने निवेदन किया कि राज्यों से इस बारे में अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है. हालांकि, अदालत ने मेहता को फटकार लगाते हुए कहा, ’हम इस मामले को ऐसे ही लटकाए नहीं रख सकते. आप अपनी परामर्श प्रक्रिया जारी रख सकते हैं. यह कहना कि आप इसे हमेशा के लिए टाल दें — ऐसा नहीं हो सकता.’

अदालत ने कहा, ‘आपको कोई-न-कोई कड़ा फैसला करना ही होगा. आप साफ कहें कि आप याचिकाकर्ताओं से सहमत हैं या नहीं.’


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केंद्र का रुख अभी भी अस्पष्ट

केंद्र सरकार ने अगस्त 2017 में इन याचिकाओं पर एक हलफनामा दायर किया था जिसमें कहा गया था कि वैवाहिक बलात्कार को आईपीसी में अपराध के रूप में नहीं जोड़ा जा सकता है क्योंकि इसका ‘विवाह की संस्था पर अस्थिरकारी प्रभाव’ हो सकता है और यह पतियों को बेवजह परेशान करने का एक ‘आसान हथकंडा’ बन सकता है.’

इसने वैवाहिक बलात्कार की जांच में आने वाली संभावित कठिनाइयों पर भी रोशनी डाली था और कहा था, ‘सवाल यह है कि ऐसी परिस्थितियों में अदालतें किस सबूत पर भरोसा करेंगी क्योंकि किसी पुरुष और उसकी पत्नी के बीच के यौन कृत्यों के मामले में कोई स्थायी सबूत नहीं हो सकता है.’

हालांकि, जब से अदालत ने पिछले साल दिसंबर में इस मामले में दलीलें सुननी शुरू कीं हैं, केंद्र ने इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट रुख अपनाने से इनकार किया हुआ है.

पिछले महीने हुई एक सुनवाई के दौरान केंद्र ने हाई कोर्ट को बताया था कि वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण के मुद्दे में ‘पारिवारिक मुद्दे’ और एक महिला की गरिमा शामिल है और इसे ‘सूक्ष्म दृष्टिकोण‘ से नहीं देखा जा सकता है. मेहता ने तब इस मुद्दे पर केंद्र का रुख स्पष्ट करने के लिए ‘उचित समय’ मांगा था.

3 फरवरी को दायर एक अतिरिक्त हलफनामे में, केंद्र सरकार ने सभी हितधारकों के साथ परामर्श प्रक्रिया के परिणाम की प्रतीक्षा करने और हाई कोर्ट से इसकी सुनवाई स्थगित करने का आग्रह किया था.

इस हलफनामे में कहा गया है, ‘… इसमें शामिल सामाजिक प्रभाव को देखते हुए, अंतरंग पारिवारिक संबंधों का विषय होने और माननीय न्यायालय के पास समाज के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित जमीनी वास्तविकताओं से पूरी तरह परिचित होने की सुविधा नहीं होने की वजह से, केवल (एक अथवा) कुछ वकीलों के तर्कों के आधार पर निर्णय लेना न्याय के उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता है.

पिछली 7 फरवरी को कोर्ट ने एक बार फिर केंद्र को अपना स्टैंड स्पष्ट करने के लिए दो हफ्ते का समय दिया था.

हालांकि,  यहां इस बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि केंद्र ने अभी तक भी औपचारिक रूप से अपने 2017 के हलफनामे को वापस नहीं लिया है, जिसकी वजह से प्रमुख वकीलों का मानना है कि यह हलफनामा ही केंद्र के रुख को स्पष्ट करता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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