नई दिल्ली: एक स्थानीय अदालत ने उत्तरपूर्वी दिल्ली दंगों के मामले में, खासकर उमर खालिद के कथित इकाबालिया बयान से जुड़ीं, मीडिया की खबरों पर सख्त ऐतराज़ जताया है और कहा है कि मीडिया ट्रायल्स से ‘बेगुनाही की अवधारणा’ को तबाह नहीं किया जा सकता.
उत्तरपूर्व के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट दिनेश कुमार ने शुक्रवार को अपने आदेश में कहा कि पुलिस को दिए गए खालिद के बयान की खबरें, बिना इस स्पष्टीकरण के दी गईं कि ऐसे बयान सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं होते.
कोर्ट ने आगे कहा कि एक रिपोर्टर को, कानून की बुनियादी जानकारी होनी चाहिए और उसे पाठकों या दर्शकों को ऐसे बयानात की वास्तविक कानूनी हैसियत से अवगत कराना चाहिए.
आदेश में दोहराया गया कि किसी भी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, उसकी सबसे कीमती संपत्ति होती है और संविधान की धारा 21 के तहत, उसके अधिकार का एक पहलू होती है. उसमें कहा गया कि ऐसी कोई भी खबर, जो अभियुक्त को उसके सम्मान से वंचित करती है, उसके अधिकारों पर विपरीत प्रभाव डालती है.
कोर्ट का ये आदेश कार्यकर्ता द्वारा डाली गई एक अर्ज़ी के सिलसिले में आया, जिसमें उसने मीडिया में छपी खबरों की शिकायत की थी, जिनमें कहा गया था कि उसने फरवरी 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगों की साज़िश में, लिप्त होने का इकरार कर लिया था.
खालिद 14 सितंबर 2020 से हिरासत में है.
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दिल्ली दंगों के मामले में इसी तरह के आदेश
ये पहली बार नहीं है कि उत्तरपूर्वी दिल्ली दंगा मामले में किसी अभियुक्त ने, उसके मुताबिक सांप्रदायिक हिंसा से जुड़ी ‘एकतरफा’ खबरों के खिलाफ, अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है.
इससे पहले, दिल्ली दंगों के एक अभियुक्त छात्र नेता, आसिफ़ इकबाल तन्हा की ओर से दर्ज याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने अक्टूबर 2020 में, उसके कथित इकबालिया बयान को सार्वजनिक करने के लिए, ज़ी न्यूज़ पर सवाल खड़े किए, और कहा कि चैनल कोई अभियोजन एजेंसी नहीं है और मुकदमे के दौरान सबूत के तौर पर, उस दस्तावेज़ की कोई अहमियत नहीं है. हाई कोर्ट ने ये भी कहा था कि खबर में बयान को ऐसे दिखाया गया था, जैसे वो ‘किसी को पूरी तरह दोषी ठहराती हो’.
इसी तरह, पिछले साल जून में हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस पर रोक लगा दी कि पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता देवांगना कलिता से जुड़े दंगा मामले में, जब तक आरोप तय नहीं होते और मुकदमा शुरू नहीं हो जाता, तब तक किसी भी अभियुक्त या गवाह का नाम सार्वजनिक न किया जाए.
अपनी याचिका में कलिता ने कोर्ट से गुहार लगाई कि एक मैंडेमस रिट के ज़रिए वो दिल्ली पुलिस को निर्देश दे कि जांच पूरी होने और मुकदमा जारी रहने के दौरान, उनसे जुड़े किसी भी आरोप की जानकारी मीडिया को न दे.
ताज़ा आदेश आने से कुछ दिन पहले ही, बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक निर्णय दिया कि आपराधिक जांच के दौरान किया गया मीडिया ट्रायल, ‘आपराधिक अवमानना’ समझा जाएगा.
‘दंगे सिर्फ हिंदू-विरोधी नहीं थे, सभी समुदायों को नतीजे भुगतने पड़े’
अपने आदेश में चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कहा, ‘खबरों में सिर्फ इस पर प्रकाश डाला गया है कि अभियुक्त उमर खालिद ने अपने संलिप्त होने का इकरार कर लिया था…लेकिन किसी भी खबर में अपने पाठकों या दर्शकों को, ये स्पष्टीकरण नहीं दिया गया कि ऐसे बयान भले ही वास्तव में दिए गए हों, अभियोजन द्वारा सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किए जा सकते’.
कोर्ट ने कहा कि एक रिपोर्टर को कानून की इतनी बुनियादी जानकारी होनी चाहिए कि किसी पुलिस अधिकारी के सामने दिया गया इकबालिया बयान, कानून में सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं होता और किसी कथित कबूलनामे की खबर देते हुए, उसे सामान्य पाठक को इससे अवगत कराना चाहिए.
जज के मुताबिक, पाठक और दर्शक दी गई खबरों को सही समझते हैं. लेकिन, हो सकता है कि आम लोग कानून से वाकिफ न हों.
सीएमएम ने कहा, ‘इसलिए, प्रेस और मीडिया का दायित्व बनता है कि छापी गई या न्यूज़ चैनल पर दिखाई खबर के बारे में, अपने पाठकों और दर्शकों को उससे जुड़े प्रासंगिक तथ्यों से पूरी तरह अवगत कराए.’
जज ने विशेष रूप से एक खबर पर ऐतराज़ जताया, जो इन शब्दों के साथ शुरू हुई थी: ‘उग्र इस्लामी और दिल्ली के हिंदू-विरोधी दंगों का अभियुक्त उमर खालिद’.
जज ने कहा कि विशेषकर इस खबर में, दंगों को हिंदू-विरोधी के रूप में दर्शाया गया है, जबकि मामला ऐसा प्रतीत नहीं होता. उनके अनुसार सभी समुदायों ने दंगों के परिणामों को भुगता है.
कोर्ट ने कहा, ‘इस तरह की खबरें आम लोगों को ये दिखा सकती हैं कि अभियुक्त उमर खालिद ने वास्तव में, दिल्ली दंगों में अपनी भूमिका का इकरार कर लिया है. लेकिन, न्यायिक व्यवस्था का कर्त्तव्य है कि मुकदमे के बाद, तथ्यों के आधार पर केस का फैसला करे’.
‘मीडिया ट्रायल बेगुनाही की अवधारणा को तबाह नहीं कर सकता’
जज ने कहा कि मीडिया के अंदर क्षमता है कि वो आबादी की एक बड़ी संख्या के, सोचने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है.
लेकिन, इसमें एक जोखिम रहता है कि अगर प्रेस व मीडिया, देखभाल और सावधानी के साथ अपने फर्ज़ को अंजाम नहीं देता, तो उससे पक्षपात की भावना पैदा हो सकती है. और ऐसा ही एक जोखिम होता है ‘मीडिया ट्रायल’ का.
आपराधिक न्यायशास्त्र का बुनियादी सिद्धांत, बेगुनाही को माना जाता है, ये याद दिलाते हुए कोर्ट ने कहा कि मीडिया ट्रायल से इस अवधारणा को नष्ट नहीं किया जा सकता.
आदेश में कहा गया, ‘मीडिया ट्रायल के ज़रिए, इसे न्याय के द्वार पर ही नष्ट नहीं कर दिया जाना चाहिए. न्यायालयों की गरिमा बनाए रखने के लिए, ऐसी अवधारणा को बचा कर रखना बहुत आवश्यक है और एक स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देश में कानून के राज का ये एक मूल सिद्धांत है’.
कोर्ट ने मीडिया को कोई विशिष्ट निर्देश देने से खुद को रोक लिया, लेकिन ‘आत्म-नियमन’ का पालन करने की अपील ज़रूर की ताकि मुकदमे के दौरान किसी अभियुक्त के विशेषाधिकारों के साथ कोई पक्षपात न हो.
आदेश में कहा गया, ‘इसलिए, कोई भी खबर उसके विषय से संबंधित सभी तथ्यों की पुष्टि और स्पष्टीकरण के बाद ही छापी जानी चाहिए’.
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