नई दिल्ली : भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे, अयोध्या विवाद की सुनवाई कर रहे पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ का हिस्सा हैं, ने कहा है कि अयोध्या मामले में सुनवाई में देरी ‘जान-बूझकर’ नहीं की गई थी.
न्यायमूर्ति एसए बोबडे 18 नवंबर को 47वें मुख्य न्यायधीश के रूप में शपथ लेंगे, उन्होंने दि प्रिंट को एक साक्षात्कार के दौरान बताया कि अयोध्या की सुनवाई में देरी के लिए कई अन्य मुद्दे थे.
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के केंद्र में 2.77 एकड़ जमीन के मालिकाना हक को लेकर हिंदू और मुस्लिम पार्टियों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में केस आठ साल से ठंडे बस्ते में था. हालांकि, जस्टिस बोबडे ने कहा कि देरी को टाला नहीं जा सकता था.
उन्होंने कहा, विभिन्न चरणों में कई प्रकार की समस्याएं थीं, (जैसे) ट्रांस्क्रिप्ट की अनुपलब्धता, मुझे नहीं लगता कि देरी जान-बूझकर की गई थी… और फिर समय पर बेंच का गठन नहीं किया जा सकता था.
नागपुर में जन्मे जस्टिस बोबडे वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं, वे 18 महीने तक पद पर बने रहेंगे और 23 अप्रैल 2021 को सेवानिवृत्त होंगे.
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कॉलेजियम की पारदर्शिता
बोबडे वर्तमान में पांच-न्यायाधीशों के सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के हिस्सा हैं और सीजेआई के रूप में पदभार संभालते ही वह इसके प्रमुख बन जाएंगे.
उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों में अपारदर्शिता को लेकर कॉलेजियम सवालों के घेरे में है- हालिया उदाहरणों में स्थानांतरण और बाद में मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वीके ताहिलरमणि या त्रिपुरा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति अकिल कुरैशी की लंबित नियुक्ति है – लेकिन यह अक्सर न्यायाधीशों की गोपनीयता का हवाला देते हुए अपने निर्णय के कारणों का खुलासा नहीं करता है.
क्या न्यायाधीशों की गोपनीयता को पारदर्शिता पर वरीयता देनी चाहिए इस सवाल पर उन्होंने कहा दोनों ही महत्वपूर्ण हैं.
उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि गोपनीयता और पारदर्शिता एक ऐसी चीज है, जिसमें संतुलन बनाए रखने की जरूरत है. इसके बारे में एक सामान्य कथन नहीं हो सकता है.
रिक्तियां एकमात्र समस्या
सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा जनवरी 2018 की ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद बेंच आवंटन और केस लिस्टिंग पर सवाल उठाए गए थे. इसके बाद नियुक्तियों को लेकर कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच झगड़ा हुआ.
हालांकि, बोबडे के अनुसार रिक्तियों को छोड़कर, फिलहाल न्यायपालिका के साथ कोई समस्या नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘न्यायपालिका के साथ कोई समस्या नहीं है, केवल एक चीज जो इसे प्रभावित कर रही है (वह) वैकेंसी हैं, हम आने वाले कुछ महीनों में इस समस्या को हल करना चाहते हैं. क्या न्यायपालिका को लेकर सार्वजनिक धारणा में सुधार होना चाहिए इस पर टिप्पणी करने से उन्होंने इंकार कर दिया.’
न्यायाधीश अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं को पार करते हैं
आधार जैसे लैंडमार्क फैसला देने के अलावा, राइट टू प्रिवेसी और राइट टू लाइफ के मामले में बोबडे को रीति-रिवाजों और परंपराओं की पवित्रता में खलल न डालने के लिए भी जाना जाता है.
2017 में जस्टिस बोबडे और एल नागेश्वर राव ने गुरु माता महादेवी की एक पुस्तक पर कर्नाटक सरकार के प्रतिबंध को बरकरार रखा था, इस आधार पर कि इससे भगवान बसवन्ना के अनुयायियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची.
हालांकि, बोबडे ने जोर देकर कहा कि एक मामले की सुनवाई करते समय ‘न्यायाधीश हमेशा अपने व्यक्तिगत विश्वासों और आस्थाओं से आगे बढ़ते हैं.’
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अपीलों के लिए अलग बेंच
2017 में शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की गई थी कि वह अयोध्या या सबरीमाला जैसे मामलों पर अपील को संभालने के लिए पूरी तरह से एक अलग पीठ की स्थापना करे.
इस पर उनकी राय जानने के लिए पूछने पर न्यायमूर्ति बोबड़े ने कहा कि वह इस विषय के बारे में नहीं जानते थे.
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