नई दिल्ली: इलाहबाद हाईकोर्ट ने 26 अगस्त को एक ऐसे व्यक्ति के दोषी ठहराए जाने को बरक़रार रखा, जिसपर 1988 में एक 4-वर्ष की बच्ची पर यौन हमला करने, और उनके गुप्तांगों को क्षत-विक्षत करने का आरोप था.
ये फैसला आने के 30 साल से भी पहले दोषी इशरत ने एक निचली अदालत के फैसले के खिलाफ कोर्ट में अपील दायर की थी, जिसमें उसे धारा 324 (ख़तरनाक हथियार से जानबूझकर चोट पहुंचाना), और धारा 354 (किसी महिला की मर्यादा को भंग करने के लिए उस पर हमला या ज़ोर ज़बरदस्ती) के तहत अपराधों का दोषी पाया गया था.
नवंबर 1988 में बच्ची को, जो कथित रूप से खेलने के लिए एक पड़ोसी के घर चली गई थी, ख़ून से सने कपड़ों में वापस लाई गई थी. अक्तूबर 1992 में, कानपुर ज़िला एवं सत्र न्यायालय ने इशरत को रेप के प्रयास का दोषी क़रार दिया. उसने उसी साल अपनी अपील दायर कर दी, लेकिन केस पर फैसला होने के लिए उसे 30 साल से ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ा.
निचली अदालत ने उसे दो अलग अलग सज़ाएं दीं थीं- धारा 324 के अंतर्गत तीन साल का सश्रम कारावास, और धारा 354 के तहत दो साल की क़ैद.
इलाहबाद एचसी ने पिछले महीने उसके ज़मानती बॉण्ड्स रद्द कर दिए, और ये कहते हुए उसकी गिरफ्तारी के आदेश दे दिए, कि उसे अपनी बाक़ी बची हुई सज़ा पूरी करनी होगी. अपने फैसले में न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एक पीठ ने कहा, कि ‘चार साल की नाज़ुक उम्र की एक नाबालिग़ बच्ची के साथ किया गया, ये एक सबसे गंभीर और क्रूर अपराध था’ और ये अपराध चरम परपीड़न और हवस की भावना के साथ अंजाम दिया गया था.
न्यायमूर्ति पहल ने राज्य को इस बात के लिए फटकार लगाई, कि उसने अपराध के अनुपात में दी गई सज़ा के खिलाफ, जो उनकी नज़र में बहुत कम थी, अपील दायर नहीं की.
कोर्ट ने कहा, ‘ये एक बहुत ही दुखद स्थिति है कि राज्य ने फैसले में दिखाई गई नरमी के खिलाफ कोई अपील करना पसंद नहीं किया…सरकारी अभियोजक का आलस अत्यंत निंदनीय है’. कोर्ट ने आगे कहा कि केस के तथ्यों को देखते हुए, अभियुक्त किसी तरह की नरमी का हक़दार नहीं था.
फैसले के बारे में ग़ौरलतब बात ये है कि ये इलाहबाद हाईकोर्ट में लंबित मामलों की संख्या पर रोशनी डालता है- एक ऐसा तथ्य जिसे सुप्रीम कोर्ट कई मौक़ों पर उजागर कर चुका है.
नेशनल जूडीशियल डेटा ग्रिड के आंकड़ों से पता चलता है, कि इलाहबाद हाईकोर्ट में फिलहाल 10,32,746 मामले लंबित हैं. इनमें से 4,70,000 से अधिक लंबित आपराधिक अपीलें हैं, और इनमें 10.2 प्रतिशत अपीलें 20 साल से पुरानी हैं.
इलाहबाद हाईकोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोविंद माथुर ने दिप्रिंट से कहा, कि ऐसी देरी के पीछे कई कारक होते हैं- उनमें सबसे महत्वपूर्ण है न्यायिक रिक्तियां.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘इलाहबाद हाईकोर्ट में लंबित मामले सच में बहुत अधिक हैं. इसके पीछे कई कारण हैं- जिनमें वकीलों का स्थगन मांगना, निचली अदालतों में रिकॉर्ड्स की कमी, और जजों की रिक्तियां आदि शामिल हैं. कोर्ट के लिए 160 की स्वीकृत संख्या के बावजूद, किसी भी समय पर केवल 95-110 जज बेंच पर रहते हैं’.
उन्होंने कहा कि निपटान दरों को बढ़ाने के लिए, सरकार को इन रिक्तियों को भरने का प्रयास करना होगा.
दशकों से लंबित
इशरत का केस किसी भी तरह से अकेला नहीं है. इस साल मई में, न्यायमूर्तियों एल नागेश्वर राव और बीआर गवई की एक सुप्रीम कोर्ट बेंच उस समय चौंक गई, जब उसे बताया गया कि इलाहबाद एचसी में 1980 के दशक की आपराधिक अपीलें अभी तक लंबित पड़ी हैं.
जस्टिस राव ने कहा था, ‘इसका मतलब है 42 साल. मुक़दमे में चार से पांच साल लगे होते. इसलिए जिस व्यक्ति ने 30-40 वर्ष की आयु में 1970 के दशक में अपराध किया होगा, वो अब 80-90 वर्ष का होगा’. इस स्थिति के पीछे उन्होंने बहुत से कारणों पर प्रकाश डाला था, जिनमें न्यायिक रिक्तियां भी शामिल थीं.
समाधान सुझाने के लिए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से सहायता मांगते हुए, बेंच ने कहा कि इस तरह की न्यायिक देरियों से अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के अंतर्गत गारंटीशुदा त्वरित मुक़दमे का अधिकार प्रभावित होता है.
सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष तिवारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘इलाहबाद एचसी संख्या से चलने वाला कोर्ट है. कोर्ट में आने वाले मामलों की संख्या (देश में) सबसे अधिक होती है’.
उन्होंने कहा कि समस्या का समाधान करने की दिशा में सुधार की अभी तक की कोशिशें नाकाम रही हैं.
तिवारी ने कहा, ‘मामलों के निपटारे के लिए व्यवस्थाएं हैं. निपटान दरों को बढ़ाने के लिए हिट-एंड-ट्रायल के तरीके अपनाए गए हैं, जो कभी कभी उलटे पड़ गए हैं जिसके नतीजे में लंबित मामलों की संख्या और बढ़ गई’.
जस्टिस माथुर ने कहा कि मामलों के निपटान के लिए नियमित बेंच एक समाधान हो सकती हैं.
उन्होंने कहा, निपटान के लिए नियमित बेंच क़ायम की जानी चाहिएं. मेरे कार्यकाल के दौरान हमने ऐसा करने की कोशिश की थी, और इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए’.
‘ज़मानत दीजिए’
इलाहबाद हाईकोर्ट के सामने लंबित आपराधिक अपीलों की भारी संख्या का संज्ञान लेते हुए, फरवरी 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था, कि 14 साल से अधिक की सज़ा काट रहे दोषियों को या तो ज़मानत दे देनी चाहिए, या उनकी सज़ा में छूट पर विचार करना चाहिए.
उस मामले में कोर्ट ने 12 दोषियों को ज़मानत देते हुए, जो पहले ही 14 साल से जेल में थे, ज़मानत के लिए व्यापक मानक तय कर दिए.
मार्च में एक और मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद एचसी और लखनऊ बेंच के सामने लंबित आपराधिक अपीलों की भारी संख्या को एक ‘परेशान करने वाली स्थिति’ बताया था. कोर्ट हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने एक अभियुक्त को ज़मानत देने से इनकार कर दिया था, जो पहले ही 12 साल से जेल में रह चुका था.
इसके बावजूद, आंकड़ों से पता चलता है कि इलाहबाद हाईकोर्ट उन चार उच्च न्यायालयों में एक है- अन्य हैं ओडिशा, जम्मू-कश्मीर, और लद्दाख़- जहां 2010 से 2020 के बीच लंबित मामलों की संख्या में कमी देखी गई है.
आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय अदालतों में लंबित मामलों और न्यायिक रिक्तियों की संख्या बढ़ रही है. सितंबर 2021 में, हमारी अदालतों में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लंबित पड़े थे.
ऐसे 10 में से लगभग 9 मामले अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर लंबित पड़े हैं, जबकि 10 में से एक उच्च न्यायालयों में है.
जो उच्च न्यायालय ज़्यादा बड़ी आबादी के लिए काम करते हैं, कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़कर उनमें लंबित मामलों की संख्या ज़्यादा होती है. मसलन, आधिक आबादी के लिए काम करने के बावजूद, पटना और कलकत्ता कोर्ट्स में मद्रास, राजस्थान, और पंजाब के मुक़ाबले लंबित मामलों की संख्या अपेक्षाकृत कम है.
अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के एक छात्र हैं, और दिप्रिंट के साथ एक इंटर्न हैं.
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