यहां मैं उन नौजवानों से कुछ कहना चाहूंगा जो ज़िंदगी में कुछ बड़ा करना चाहते हैं. ये आशा और निराशा का चक्र आपको खत्म करने की ताकत रखता है. हालांकि ये वक्ती तौर पर तो आपके आत्मविश्वास को हिला सकता है लेकिन आपको इसकी तरफ बिल्कुल सकारात्मक नज़रिए से देखना होगा.
महाराज, यू आर इन
वह शाम मुझे ऐसे याद है मानो अभी कल ही गुज़री हो. मैं इडेन गार्डेन्स क्लब हाउस के ऊपरी हिस्से की सीढ़ियों पर बैठकर अज़हर की अगुवाई वाली टीम इंडिया को श्रीलंका के सामने बिखरते हुए देख रहा था. ये वल्र्ड कप 1996 का मशहूर सेमीफाइनल मैच था. एक दर्शक के तौर पर मैंने ने इतना तनावभरा लम्हा अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा.
मैंने देख रहा था कि कैसे हर गिरते विकेट के साथ भीड़ का गुस्सा बढ़ता जा रहा था. स्टेडियम में भावनाओं का ज्वार उफान पर था. भारत की हार लगभग तय देखकर स्टेडियम में मौजूद कुछ लोगों ने मैदान पर बोतलें फेंकनी शुरू कर दीं, ये सिलसिला बढ़ते-बढ़ते कुर्सियां जलाने तक पहुंच गया. ये सब क्रिकेट असोसिएशन ऑफ बंगाल के एनुअल मेंबर्स स्टड की बगल में हो रहा था, जहां मैं बैठा था.
हालात बेकाबू हो चुके थे. मैच के रेफरी क्वाइव लॉर्ड्स ने खेल खत्म कर दिया और श्रीलंका को मैच का विजेता घोषित कर दिया. कांबली रोते हुए मैदान से बाहर जा रहे थे और उनकी ये तस्वीरें टीवी के ज़रिए पूरी दुनिया देख रही थी.
मुझे लगा कि भारतीय टीम ने टॉस के मौके पर ही सारी गड़बड़ कर दी थी. बाद में कप्तान के तौर पर मैंने महसूस किया कि मैदान पर कप्तान के लिए फैसले लेना कितना कठिन काम होता है. स्टेडियम की अपर टियर सीट पर बैठकर एक दर्शक के तौर पर मैं इसका अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता था.
आखिरकार वो सबसे अहम दिन भी आया. अपने क्लब में प्रैक्टिस करने के बाद मैं वापस लौटने की तैयारी कर रहा था. उस समय मेरे पास पुरानी मारुति 800 कार हुआ करती थी जो मेरे दादा जी ने कॉलेज से पास होकर निकलने पर मुझे गिफ्ट की थी.
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मैं जानता था कि मेरे पास चार साल के अकाल को खत्म करने और फिर से भारतीय टीम में शामिल होने का अच्छा मौका था. मैं तो सपने भी देखने लगा था कि कैसे लाखों की भीड़ मुझे टीवी पर देख रही है और मैं मैदान पर अपने अंदाज़ में खेलने के लिए उतर रहा हूं. लेकिन जब मैं मीटिंग के बारे में सोचता था तो हर बार मेरा दिल कांप जाता था. मुझे पता था कि मैं अपने सपने को पूरा करने के बेहद करीब था लेकिन फिर भी इसकी कोई गारंटी नहीं थी कि ये पूरा हो ही जाएगा.
मुझे समझ नहीं आ रहा कि उस दोपहर की दास्तान को मैं कैसे बयां करूं.
आप सभी की ज़िंदगी में एक न एक बार ऐसा लम्हा ज़रूर आता है, जब आपको ऐसे निर्णायक पल का इंतज़ार करना होता है और आपको लगता है कि बस इसके बाद मेरी ज़िंदगी बदल जाएगी. उस दौरान आप बेचैनी और तनाव से भरे हुए, नवर्स होते हैं कि कब रहस्य का परदा उठे और मंज़िल सामने नज़र आए.
ये इंतज़ार काफी जल्दी खत्म हो गया. मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे खबर दी. उसने कहा कि मैं एक बार फिर चूक गया. ये सुनते ही कार में एकदम से खामोशी छा गई. मुझे याद नहीं आता कि पूरे बीस मिनट के सफर के दौरान मेरे ड्राइवर ने या मैं एक दूसरे से कोई बात की हो. मेरे दिमाग में सिर्फ एक ही बात चल रही थी-क्या अब मुझे कभी दूसरा मौका मिल पाएगा. ये सब कुछ खो देने वाला एहसास था.
यहां मैं उन नौजवानों से कुछ कहना चाहूंगा जो ज़िंदगी में कुछ बड़ा करना चाहते हैं . ये आशा और निराशा का चक्र आपको खत्म करने की ताकत रखता है. हालांकि ये वक्ती तौर पर तो आपके आत्मविश्वास को हिला सकता है लेकिन आपको इसकी तरफ बिल्कुल सकारात्मक नज़रिए से देखना होगा. इसे आप अपने कामयाबी के शिखर तक पहुंचने का एक अटूट हिस्सा मानकर चलिए. मेरा यकीन मानिए कि बहुत से लोगों की ज़िंदगी इतनी नसीब वाली नहीं होती कि उनकी ज़िंदगी में आशा और निराशा के ये दौर आएं. इनके आने में कोई बुरी बात नहीं होती. अपने बारे में कहूं तो मैं खुद लगातार सकारात्मक तरीके से सोचने का प्रयास कर रहा था. मैं खुद से कहता था कि देर-सवेर ही सही लेकिन मेरा वक्त ज़रूर आएगा.
(सौरव गांगुली की किताब ‘एक सेंचुरी काफी नहीं’ से. ये अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित).