नई दिल्ली: 2012 की गर्मियों में महावीर सिंह को पता चला कि उनकी बहन, बहनोई और उनके चार बच्चों की चाकू घोंपकर हत्या कर दी गई है, उनके गले रेत दिए गए हैं. वे आगरा के तुर्किया गांव पहुंचे, जहां उनका परिवार रहता था और उनकी शिकायत के आधार पर अछनेरा थाने में एफआईआर दर्ज की गई. महावीर के बहनोई के भाई गंभीर सिंह, गंभीर के दोस्त और छोटी बहन गायत्री को एफआईआर में आरोपी बनाया गया.
अभियोजन पक्ष के अनुसार, तीनों को 9 मई 2012 को गिरफ्तार किया गया, जिस दिन महावीर को अपने परिवार के छह सदस्यों की मौत के बारे में पता चला.
गंभीर के दोस्त ने दावा किया कि अपराध के समय वो किशोर था और उसका मामला किशोर बोर्ड को स्थानांतरित कर दिया गया. गायत्री और गंभीर पर मुकदमा चला. 2017 में एक ट्रायल कोर्ट ने गायत्री को हत्या के आरोपों से बरी कर दिया क्योंकि अभियोजन पक्ष अपने मामले को साबित नहीं कर सका, जबकि गंभीर को 20 मार्च 2017 को मौत की सज़ा सुनाई गई. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जनवरी 2019 में आदेश को बरकरार रखा और इसे “दुर्लभ मामलों में से एक” बताया.
उस समय 30-वर्षीय गंभीर ने बिना ज़मानत के आगरा की सेंट्रल जेल में 13 साल बिताए क्योंकि आर्थिक तंगी के कारण वह वकील का खर्च नहीं उठा पाया और उसका प्रतिनिधित्व सरकारी वकीलों ने किया.
इस साल 28 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के मामले में बड़ी खामियों का हवाला देते हुए और जांच को “ढीली” करार देते हुए दोषसिद्धि को पलट दिया और उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया. शीर्ष अदालत की पीठ जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता शामिल थे, ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने 2012 की हत्याओं में मकसद स्थापित करने के लिए 2007 के एक हत्या मामले पर भरोसा किया, लेकिन दावे का समर्थन करने के लिए सबूत पेश करने में विफल रहा.
2007 का मामला गंभीर और उसके भाई सत्यभान की मां आशा की हत्या से जुड़ा था.
शीर्ष अदालत ने कहा, “हमारा मानना है कि मौजूदा मामला जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष की ओर से पूरी तरह से उदासीन रवैया अपनाने वाला मामला है.”
ज़मीन कभी नहीं बिकी
उत्तर प्रदेश पुलिस का मामला एक बीघा ज़मीन (एक बीघा में 0.62 एकड़ होता है) को लेकर विवाद पर टिका था, जिसे जांचकर्ताओं ने हत्या का मकसद बताया था. पुलिस ने कहा कि ज़मीन विवाद तब शुरू हुआ जब गंभीर और सत्यभान ने 2007 में अपनी मां की हत्या कर दी.
सुप्रीम कोर्ट में गंभीर का प्रतिनिधित्व करने वाले एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड राकेश उत्तरचंद्र उपाध्याय ने कहा, “पुलिस ने कहा कि दोनों ने अपनी मां को इसलिए मार डाला क्योंकि वह संपत्ति चाहते थे और उनकी मां किसी और से शादी करना चाहती थीं.”
अब 43-वर्षीय व्यक्ति को बरी करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने मकसद के बारे में अपने दावे का समर्थन करने के लिए “कोई विश्वसनीय सबूत” पेश नहीं दिया है.
कोर्ट ने कहा कि महावीर सिंह के “बेबुनियाद आरोप” के अलावा, आरोपियों को मां की हत्या के मामले के विवरण से जोड़ने वाला कोई विश्वसनीय सबूत नहीं था.
पुलिस के अनुसार, गंभीर ने अपने भाई और उसके पूरे परिवार की हत्या उस ज़मीन के लिए की, जिसके बारे में उनका दावा है कि उसने 2007 के हत्याकांड में ज़मानत के लिए अपने कानूनी खर्चों को पूरा करने के लिए सत्यभान की पत्नी पुष्पा को ज़मीन बेची थी.
अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि इस लेन-देन ने भाइयों के बीच संबंधों को खराब कर दिया, क्योंकि गंभीर ने बार-बार ज़मीन वापस मांगी.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के मामले में एक महत्वपूर्ण कमी की ओर इशारा किया: उसने गंभीर के स्वामित्व वाली ज़मीन की बिक्री के बारे में कभी भी दस्तावेज़ी सबूत पेश नहीं किए.
शीर्ष न्यायालय ने कहा, “अभियोजन पक्ष यह दिखाने के लिए एक भी सबूत पेश नहीं कर पाया कि अपीलकर्ता-आरोपी को उसके स्वामित्व वाली ज़मीन के भूखंड से वंचित किया गया था, ताकि इस तरह के लेन-देन को मकसद के सिद्धांत से जोड़ा जा सके.”
हालांकि, इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश में 2007 के हत्याकांड का उल्लेख किया गया था, लेकिन इस दावे का समर्थन करने वाले सबूतों की कमी पर सवाल नहीं उठाया गया. इसमें यह भी उल्लेख नहीं किया गया कि मां की हत्या के मामले में क्या हुआ — जो 2012 की हत्याओं में मकसद को स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश में कहा गया है, “आरोपी-अपीलकर्ता और मृतक सत्यभान की मां की हत्या पर विवाद नहीं था और ना ही आरोपी-अपीलकर्ता द्वारा मृतक सत्यभान की पत्नी के नाम पर अचल संपत्ति के हस्तांतरण के बारे में बयान को जिरह में विशेष रूप से चुनौती दी गई है.” जिसकी एक प्रति दिप्रिंट ने भी देखी है.
इस आदेश में यह भी उल्लेख किया गया है कि किसी तथ्य को मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकता है.
हालांकि, 2012 के मामले में राज्य या याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले कई वकीलों ने दिप्रिंट को बताया कि शीर्ष अदालत को मौखिक रूप से सूचित किया गया था कि गंभीर को उसकी मां की हत्या के मामले में बरी कर दिया गया है, लेकिन कोई दस्तावेज़ी सबूत पेश नहीं किया गया.
वकील उपाध्याय ने कहा, “अदालत को मौखिक रूप से सूचित किया गया था कि उसे बरी कर दिया गया है और अभियोजन पक्ष ने इसके खिलाफ अपील नहीं की है.” वकील ने कहा कि मां की हत्या के मामले के विवरण पर सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ अधीनस्थ अदालतों के समक्ष कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया, जिसमें गंभीर को बरी किए जाने का विवरण भी शामिल है.
उपाध्याय ने कहा, “अभियोजन पक्ष ने एक ऐसे मामले पर भरोसा किया जिसके बारे में अदालतों के समक्ष कोई सबूत पेश नहीं किया गया था. राज्य के एक वकील ने कहा कि यह मामला निचली अदालतों में भी नहीं लाया गया था.”
साक्ष्य अधिनियम का पालन नहीं, सुनी-सुनाई बातों पर गवाही
सुप्रीम कोर्ट ने जांच में अन्य खामियों की ओर इशारा किया.
अभियोजन पक्ष के मुख्य गवाह महावीर सिंह ने कहा कि हत्या की रात गंभीर और उसका दोस्त पीड़ितों के घर पर रुके थे. पूछताछ में पता चला कि गंभीर, उसका दोस्त और गायत्री को तुर्किया गांव से घबराई हुई हालत में निकलते देखा गया. अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि गंभीर और उसके दोस्त के कपड़े खून से सने हुए थे.
सुप्रीम कोर्ट ने उनके बयान को “अनुमान और सुनी-सुनाई बातें” कहकर खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि सिंह को याद नहीं था कि अपराध स्थल पर उसकी मौजूदगी के बारे में उन्हें किसने बताया था.
एक अन्य गवाह बहादुर सिंह ने कथित हत्या के हथियारों-कुल्हाड़ी और कटारी-और घटनास्थल से खून से सने कपड़ों की बरामदगी के बारे में गवाही दी. हालांकि, अदालत ने उनकी गवाही को “अफवाह” की प्रकृति का माना.
इसके अलावा, न्यायाधीशों ने यह भी देखा कि बहादुर सिंह, जो महावीर के चाचा हैं, ने अपनी गवाही में कहीं भी कथित मकसद का उल्लेख नहीं किया. अदालत ने अभियोजन पक्ष के एक अन्य गवाह के बयान को “अपीलकर्ता-आरोपी के खिलाफ अपने कमज़ोर मामले को विश्वसनीयता प्रदान करने और उसे किसी भी तरह से अपराध से जोड़ने के लिए” मनगढ़ंत बताते हुए खारिज कर दिया.
सबसे महत्वपूर्ण गवाह, तसलीम अहमद रिजवी, जो अछनेरा के तत्कालीन स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) और मामले में प्रथम जांच अधिकारी थे, वह भी जांच के दायरे में आए.
हालांकि, शीर्ष अदालत ने उनकी गवाही में कई विसंगतियों को नोट किया, जिसने उत्तर प्रदेश पुलिस के मामले को कमज़ोर किया.
इसमें उन अभियुक्तों की पहचान करने में उनकी विफलता शामिल है, जिन्होंने पुलिस को कथित हत्या के हथियारों की बरामदगी तक पहुंचाया और उनकी गवाही में इस बात का कोई संकेत न होना कि उन्होंने बरामदगी ज्ञापनों पर अभियुक्तों के हस्ताक्षर प्राप्त किए थे.
इसके अलावा, जांच अधिकारी ने यह भी नहीं बताया कि उन्होंने बरामदगी का दस्तावेज़ीकरण करने वाले ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए और उन्हें प्रमाणित किया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हमें इसमें ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिससे पता चले कि अधिकारी ने मकसद के बारे में पड़ताल की हो. जांच अधिकारी के साक्ष्य मामले के इस महत्वपूर्ण पहलू पर पूरी तरह से चुप हैं.”
हाई कोर्ट में गंभीर का प्रतिनिधित्व करने वाले एमिकस क्यूरी (अदालत के मित्र) ने भी तर्क दिया था कि उन्हें वह दोषपूर्ण सामग्री उपलब्ध नहीं कराई गई जिस पर ट्रायल कोर्ट ने भरोसा किया या आरोपित आदेश, जो आरोपी के लिए पक्षपातपूर्ण था.
वकील ने गिरफ्तारी और सबूतों की बरामदगी के बिंदु पर गवाहों के बयानों में विरोधाभासों की ओर भी इशारा किया. यह “अविश्वसनीय और साथ ही असंभव” था कि आरोपी ने हत्या के एक दिन बाद भी रेलवे स्टेशन पर वही खून से लथपथ कपड़े पहने हुए होंगे, जहां से पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया था.
इसके अलावा, आदेश में यह भी उल्लेख किया गया है कि जांच अधिकारी ने घटनास्थल पर आरोपी की मौजूदगी स्थापित करने के लिए अपराध स्थल के आस-पास रहने वाले एक भी व्यक्ति की जांच नहीं की. इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पाया कि फोरेंसिक रिपोर्ट में हथियारों पर मिले खून के समूह का संकेत नहीं दिया गया है. हाईकोर्ट में एमिकस ने यह भी तर्क दिया था कि कुल्हाड़ी पर मिला खून पीड़ितों के रक्त समूह से मेल नहीं खाता.
कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि सरकारी वकील और ट्रायल कोर्ट ने किस तरह से मुकदमा चलाया. कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के महत्वपूर्ण गवाहों के बयान दर्ज करते समय भारतीय साक्ष्य अधिनियम (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम) के तहत प्रमुख प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया.
इसके अलावा, जांच अधिकारी बरामद सबूतों को फोरेंसिक प्रयोगशाला में पहुंचने तक सुरक्षित रखने में विफल रहे.
इसके अलावा, शीर्ष अदालत की पीठ ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट “अभियोजन पक्ष के मामले में इन अंतर्निहित असंभवताओं और कमियों पर ध्यान देने में विफल रहा”.
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, “परिणामस्वरूप, हमारा मानना है कि अभियोजन पक्ष अपीलकर्ता-आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए तीन तथाकथित अपराध परिस्थितियों यानी ‘मकसद’, ‘आखिरी बार देखा गया’ और ‘बरामदगी’ में से एक को भी साबित करने में विफल रहा है.”
दिप्रिंट ने टिप्पणी के लिए आगरा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) प्रीतिंदर सिंह से संपर्क किया, लेकिन रिपोर्ट के छपने तक कोई जवाब नहीं या था. अगर कोई जवाब आता है तो इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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