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Friday, 22 November, 2024
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गुजरात में लंपी स्किन बीमारी से गायों की मौत, कच्छ में सामने आ रहे हैं समुदाय-संचालित पशु देखभाल शिविर

कैप्रीपॉक्स वायरस से होने वाली ये बीमारी गाय और भैंस दोनों को प्रभावित करती है. गुजरात में इनकी मौतों की अधिकारिक संख्या 1,200 बताई जा रही है.

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गांधीधाम: गुजरात के गांधीधाम में स्थित एक अस्थायी पशु देखभाल शिविर के अंदर बजाए जा रहे, हिंदू देवी-देवता सीता और राम को समर्पित भक्ति संगीत के बीच बीच में, दांतों के किटकिटाने की आवाज आ रही थी जो कि शुक्रवार को एक गाय खुले घाव की तकलीफ से तड़प में कर रही थी इससे खून और मवाद रिस रहा था.

उसकी जबर्दस्त तकलीफ से लग रहा था कि वो शायद उस जमीन पर अपनी आखिरी सांसें गिन रही थी, जिसने इस पशु को एक पूजनीय मां या गौमाता का दर्जा दे दिया है.

जो गाय तकलीफ में अपने दांत किटकिटा रही थी, वो यहां मुसीबत में अकेली नहीं थी. दिप्रिंट ने जब इलाके का दौरा किया तो कच्छ जिले के इस अस्थायी शिविर में ऐसी कम से कम 50 गाएं और भैसें थीं जो लंपी स्कीन की बीमारी से संक्रमित हैं, जिसने गुजरात और राजस्थान के कई इलाकों की मवेशी आबादी को अपनी चपेट में ले लिया है.

उस रात चौदह गायों की मौत हो गई, जिनमें वो गाय भी शामिल थी जिसकी हालत ऊपर बयान की गई है.

A dead cow being buried | Photo: Praveen Jain | ThePrint
एक मरी हुई गाय को दफनाया जा रहा है | फोटो: प्रवीण जैन | दिप्रिंट

इस बात को लेकर अलग अलग खबरें हैं कि बीमारी पहले कम सामने आई. स्थानीय लोगों का कहना है कि गाएं पिछले दो-तीन हफ्तों में मरनी शुरू हुई हैं. अभी तक राजस्थान के 16 और गुजरात के 20 जिलों से इस बीमारी की खबरें मिली हैं.

कैप्रिपॉक्स वायरस से पैदा होने वाली इस बीमारी को- जो गाय और भैंस दोनों को प्रभावित करती है- इसका नाम उन्हें बड़ी और सख़्त गांठों से मिला है, जो बीमारी की स्थिति में मवेशी की त्वचा पर विकसित हो जाती हैं. बीमार पशुओं में अवसाद, कंजंक्टिवाइटिस, अधिक लार आना और कुछ दूसरे लक्षण नजर आने लगते हैं.

अंत में ये गांठें फट जाती हैं जिससे मवेशी के अंदर से ख़ून रिसने लगता है. फिलहाल इस वायरस बीमारी का कोई इलाज नहीं है और उपचार में अधिकतर क्लीनिकल लक्षणों को ही निशाना बनाया जाता है.

ये बीमारी भारत में कथित रूप से पाकिस्तान से फैलकर आई है जहां पहले ऐसे मामले सामने आए थे.

केरल के पूकोड में पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान कॉलेज के पशु चिकित्सा महामारी विज्ञान तथा निवारक चिकित्सा विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉ रतीश आरएल ने दिप्रिंट को फोन पर बताया, ‘पहले ये बीमारी अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों तक सीमित थी लेकिन बाद में दूसरे महाद्वीपों तक फैल गई’.

उन्होंने आगे कहा: ‘(फैलने के पीछे) सबसे प्रचलित कारण पुशओं का लंबी दूरियों तक ले जाना था. बीमारी तब फैलती है जब अतिसंवेदनशील जानवर, ठीक हो रहे जानवरों के ऊपर से गिर रही पपड़ियों के संपर्क में आता हैं. ये वायरस बहुत स्थिर होता है इसलिए बीमारी बहुत संक्रामक हो जाती है. जहां तक भारत का सवाल है, माना जा रहा है कि शुरुआती प्रकोप भारत-बांग्लादेश-चीन की झरझरी अंतरराष्ट्रीय सीमा से होकर पशुओं के अवैध परिवहन से आया’.

इस बारे में बात करते हुए कि वायरस किस तरीके से संक्रमण फैला सकता है, रतीश ने कहा कि किसी कीड़े के काटने से ये संक्रमित जानवर से किसी स्वस्थ जानवर में पहुंच सकता है.

उन्होंने आगे कहा, ‘ऐसी खबरें हैं कि जलवायु परिवर्तन के तहत, हवा की रफ्तार और दिशा में बदलाव की वजह से बीमारी का अंतर्राष्ट्रीय परिवहन हो जाता है. माना जाता है कि जब हवाएं बदलीं तो वायरस को ले जाने वाले कीड़े, ऐसे देशों में पहुंच गए जो पहले संक्रमित नहीं थे’.

गुजरात का पशुपालन विभाग पिछले एक महीने में इस बीमारी से हुई मौतों की संख्या 1,200 से कुछ अधिक बताता है लेकिन मृत पशुओं की देखभाल के लिए स्थापित स्थानीय शिविरों के वॉलंटियर्स का दावा है कि ये संख्या उससे कहीं अधिक- संभवत: 20,000 हो सकती है.

राजस्थान में गुरुवार तक अनुमानित 5,807 पशु इस बीमारी से जान गंवा चुके थे. संक्रमित जानवरों की संख्या 1,20,782 पहुंच गई थी. गुजरात में, मंगलवार तक संक्रमितों की संख्या 55,950 थी.

दिप्रिंट की टीम ने जब गांधीधाम में मृत पशुओं के अस्थाई शिविर का दौरा किया तो कम से कम छह मुर्दा गाएं दबाए जाने के इंतजार में थीं. एक सामूहिक कब्र खोदी गई है जो कैंप से ज़्यादा दूर नहीं है, जहां पिछले दो हफ्ते से रोजाना मुर्दा गायों को दबाया जा रहा है.

गांधीधाम की सड़कें संक्रमित मवेशियों से भरी हुई हैं.

पूरे कच्छ में स्थापित देखभाल शिविरों में वॉलंटियर्स ने आरोप लगाया कि प्रशासन की ओर से कोई कार्रवाई न होने से स्थिति और ज़्यादा बिगड़ गई है. उन्होंने दावा किया कि बीमार पशुओं की देखभाल पूरी तरह समुदाय द्वारा की जा रही है.

उन्होंने कहा कि संक्रमित पशु के साथ कैसे पेश आया जाए, इसे लेकर कोई मानक दिशानिर्देश नहीं हैं, इसलिए विभिन्न शिविरों में अलग अलग उपाय किए जा रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि स्थिति के लिए आंशिक रूप से गौहत्या पर लगा प्रतिबंध भी जिम्मेदार है जिसमें सबसे बुरी मार छोड़े गए मवेशियों पर पड़ रही है.

दिप्रिंट ने लिखित संदेशों और वीडियो कॉल्स के जरिए, राज्य के कृषि, किसान कल्याण और सहकारिता विभाग से संपर्क किया लेकिन इस खबर के छपने तक उनकी ओर से कोई जवाब हासिल नहीं हुआ था.


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इलाज और कंकालों का निपटान

गांधीधाम से 50 किलोमीटर से अधिक दूरी पर, एक छोटे से कस्बे समखियाली में स्वयंसेवकों ने एक बस डिपो से सटे एक छोटे से प्लॉट को एक गौ शिविर में परिवर्तित कर दिया है.

कांजीभाई अहीर ने- जो कैंप के प्रमुख हैं- 30 से अधिक स्वयंसेवकों का एक समूह जमा किया है, जो ऐसे स्थानीय लोगों से मिली कॉल्स पर आते हैं, जो अपनी संक्रमित गायों की देखभाल कराना चाहते हैं.

अहीर और उनके स्वयंसेवक पशु चिकित्सा विज्ञान में प्रशिक्षित नहीं हैं. उन्हें एक जैन धार्मिक समूह से सहायता मिलती है, जो उन्हें दवाएं और आयुर्वेदिक फॉर्मूलेशन्स सप्लाई कर रहा है.

यहां इस्तेमाल की जा रही दवाइयों में एक एंटी इनफ्लेमेटरी दवा निमसुलाइड, पेरेसिटेमॉल इंजेक्शंस और आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां शामिल हैं.

अहीर ने दिप्रिंट को बताया कि सरकार की ओर से उन्हें ना के बराबर सहायता मिली है.

उन्होंने कहा, ‘कंकाल उठाने के लिए जेसीबी (मशीन) मंगाने पर हम अपनी जेब से 500 रुपए ख़र्च करते हैं. तमाम वॉलंटियर्स ‘गौमाता’ के प्रेम के चलते यहां हैं. हमारे पास यहां कोई पशु चिकित्सक भी नहीं है. इस कस्बे में दिन में एक बार भुज से (100 किलोमीटक से ज़्यादा दूर) डॉक्टर आता है. अगर पशु ज्यादा बीमार है और उसपर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है, तो हम कुछ नहीं कर सकते’.

A dog sniffs at the buried carcasses | Photo: Praveen Jain | ThePrint
एक आवारा कुत्ता जमीन में धंसी आधी खाई हुई गाय के शव को खींच कर बाहर निकालने की कोशिश करते हुए | प्रवीण जैन | दिप्रिंट

दिप्रिंट ने उस जगह का दौरा किया जहां मृत गायों के कंकालों का निपटान किया जा रहा था. एनएच-41 पर समखियाली झील के पास एक गढ़ा खोदा गया था. तीन ताजा कंकाल उस जगह खुले में पड़े थे. इस बीच कुत्तों का एक झुंड आपस में झगड़ रहा था, जो मिट्टी से ढके पुराने कंकालों के अवशेष खींचकर बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था.

दिप्रिंट को पता चला है कि इसी तरह के गढ़े भुज और भचाऊ समेत बहुत से शहरों में खोदे गए हैं जहां हर रोज मवेशियों के कंकाल दबाए जा रहे हैं.

इस बीच, पूरे कच्छ में स्थापित किए देखभाल शिविर, संक्रमित मवेशी की सहायता करने के लिए उपचार के अलग अलग तरीक़ों का प्रयोग कर रहे हैं.

भचाऊ में, भचाऊ लोधेश्वर पंजारापोल (गौशाला) प्रबंधक कमलेश पधियार ने कहा कि वो संक्रमत जानवरों के पीने के पानी में एक कीटाणुनाशक पोटेशियम परमैगनेट मिला रहे हैं.

पधियार ने दावा किया, ‘हम उन्हें सूखा चारा खिलाते हैं ताकि वो इस पानी को अधिक पिएं. इस उपचार से फायदा हुआ है और हम काफी तादाद में गायों को बचा पाए हैं’.

The camp in Bhachau | Photo: Praveen Jain | ThePrint
भचाऊ में शिविर | फोटो: प्रवीण जैन | दिप्रिंट

राजकोट के एक पशु चिकित्सक डॉ निकुंज आर पिपलिया ने, जो गांधीधाम में स्वयंसेवा कर रहे हैं, दिप्रिंट को बताया कि बीमारी के खिलाफ एंटीवायरल्स की कमी होने की वजह से, लक्षणों को कम करने के लिए वो पैरेसिटेमॉल और एंटीहिस्टैमिन्स जैसी दवाएं दे रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘क्योंकि वो ठीक से खा नहीं पाते, इसलिए हम उन्हें मल्टीविटामिन्स भी देते हैं’.

Neem leaves being burnt to keep away flies and insects at the Gandhidham camp | Photo: Praveen Jain | ThePrint
मवेशी शिविर में एक बच्चा मक्खियों और मच्छरों को भगाते हुए | प्रवीण जैन | दिप्रिंट

हालांकि बहुत से शिविरों में बीमार मवेशियों के ऊपर मक्खियों के झुंड भिनभिनाते रहते हैं, लेकिन गांधीधाम में ऐसे कीड़ों को दूर रखने के लिए लगातार नीम की पत्तियां जलाई जाती हैं.


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समुदाय संचालित देखभाल

गुजरात में कामधेनु गौशाला ट्रस्ट के सदस्य दीपकभाई पटेल, गांधीधाम में स्थापित शिविर की कमान संभाले हुए हैं.

दिप्रिंट को बताया गया कि बहुत से दूसरे संगठन जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सेवा साधना भी शामिल है, यहां के जैसे मवेशी शिविरों का वित्त-पोषण कर रहे हैं.

इन सभी इलाकों में स्थानीय वॉलंटियर्स, जिन्होंने इस बीमारी के बारे में पहले कभी नहीं सुना था, बीमार जानवरों की देखभाल करने के लिए आगे आए हैं.

दिप्रिंट ने एक 29 वर्षीय महिला हेंसी जोशी से बात की, जो अपनी 19-वर्षीय बहन नीता, 52 वर्षीय मां कशिश के साथ काम कर रही थी और वहां मवेशियों का चारा दान कर रही थी जो उन तीनों ने घर पर तैयार किया था.

जोशी एक टेकी हैं और अपने काम के घंटों के बाद यहां वॉलंटियर कर रही हैं उन्होंने कहा, ‘हमें यहां डॉक्टर ने बताया है कि जवार के एक मिश्रण को गुड़ में डालकर पकाने से गायों को फायदा होता है’.

इसी तरह, 46-वर्षीय पूसाराम मकवाने जो एक तेल रिफाइनरी में काम करते हैं, पूरे शहर में ड्राइव करते हुए घूमते हैं, और कैंप में गायों को खिलाने के लिए शहर वासियों से रोटियां जमा करते हैं.

दिप्रिंट ने जिन बहुत सी जगहों का दौरा किया वहां के स्थानीय लोगों का दावा था कि ये व्यापक संक्रमण गौहत्या पर लगे प्रतिबंध का परिणाम था.

अहीर के अनुसार संक्रमण की मार उन मवेशियों को ज़्यादा झेलनी पड़ रही है जिन्हें उनके मालिकों ने छोड़ दिया है और वो अब सड़कों पर घूम रही हैं.

उन्होंने दावा किया, ‘छोटे फार्म्स और लोगों के घरों में मवेशी सुरक्षित रहे हैं. लेकिन सड़कें और राजमार्ग ऐसे मवेशियों से भरे हुए हैं जिन्हें छोड़ दिया गया है क्योंकि वो अब दूध नहीं देती हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘पहले, जैसे ही गाएं दूध देना बंद करती थीं, उन्हें बेंच दिया जाता था और फिर वो कट जाती थीं. लेकिन अब मवेशी को छुआ नहीं जा सकता. वो सड़कों पर घूम रही हैं और संक्रमण फैला रही हैं’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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