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Wednesday, 26 June, 2024
होमदेश‘अदालतें क़ुरान पर फैसला करने में सक्षम नहीं’: SC में याचिकाकर्त्ताओं ने हिजाब बैन पर कर्नाटक HC की आलोचना की

‘अदालतें क़ुरान पर फैसला करने में सक्षम नहीं’: SC में याचिकाकर्त्ताओं ने हिजाब बैन पर कर्नाटक HC की आलोचना की

HC आदेश के खिलाफ दायर की गईं कई अपीलों की सुनवाई के चौथे दिन याचिकाकर्त्ताओं ने कहा, कि अदालतों की ‘न्यायिक समझदारी’ इसमें होती कि वो एक ऐसे क्षेत्र को हाथ न लगाते, जिसमें उनके पास ‘कोई विशेषज्ञता नहीं है’.

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नई दिल्ली: सोमवार को हिजाब पर पाबंदी के बारे में याचिकाकर्त्ताओं ने कहा, कि 15 मार्च के अपने फैसले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने ये राय बनाकर ग़लती की है, कि सर पर हिजाब पहनना इस्लाम का एक ज़रूरी हिस्सा नहीं है, और उन्होंने कहा कि अदालतों की ‘न्यायिक समझदारी’ इसमें होती, कि वो एक ऐसे क्षेत्र को हाथ न लगाते, जिसमें उनके पास ‘कोई विशेषज्ञता नहीं है.’

सुप्रीम कोर्ट याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई कर रहा था, जिन्होंने कर्नाटक हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें कोर्ट ने उडिपी के एक प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज में हिजाब पर लगाए गए बैन को सही ठहराया था, और साथ ही कर्नाटक सरकार के 5 फरवरी के उस आदेश को भी चुनौती दी थी, जिसमें पाबंदी को अपना समर्थन दिया था.

वरिष्ठ अधिवक्ता यूसुफ मूछला के अनुसार, जो याचिकाकर्त्ताओं की ओर से शीर्ष अदालत में पेश हुए थे, कर्नाटक हाईकोर्ट ने हिजाब की अनिवार्यता पर अपने निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए, क़ुरआन की एक व्याख्या को दूसरी व्याख्या के खिलाफ इस्तेमाल करने का एक ‘बेहद आपत्तिजनक’ काम किया था.

मूछला ने न्यायमूर्तियों हेमंत गुप्ता और सुधांशु धूलिया की एक बेंच के सामने कहा, ‘मानव सम्मान एक ऐसा पहलू है जिसे संवैधानिक सुरक्षा हासिल है. मेरे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि मुझे विनम्रता से रहना है (सम्मान बनाए रखना है), और हेड स्कार्फ पहनना इस सिलसिले में एक निजी निशान हो सकता है. विद्वान और व्याख्याता इससे असहमत हो सकते हैं, लेकिन एक आम महिला के नाते अगर मुझे लगता है कि ये (हिजाब पहनना) सही है, तो मैं इसका पालन करूंगी. ये कहना कोर्ट का काम नहीं है कि एक (व्याख्याता) की बात मानिए, दूसरे की मत मानिए’.

सोमवार को इस मामले में चल रही सुनवाई का चौथा दिन था. शीर्ष अदालत में कर्नाटक एचसी के फैसले के खिलाफ कई अपीलें विचाराधीन हैं, जिसे राज्य सरकार के उस आदेश में कोई ख़राबी नज़र नहीं आई, जिसमें प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों में पढ़ने वाली मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर लगभग पाबंदी लगा दी गई.

इसी आदेश को हवाला देते हुए उडुपी कॉलेज ने वहां पढ़ रहीं मुस्लिम लड़कियों को हिजाब पहनकर संस्थान में आने से रोक दिया था. जिन छात्राओं ने यूनिफॉर्म के नियमों का पालन नहीं किया, उन्हें कक्षाओं में आने और इम्तिहान लिखने की भी अनुमति नहीं दी गई.

हालांकि इस फऱमान से इलाक़े में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन भड़क उठे, लेकिन सरकार ने अपना आदेश वापस लेने से इनकार कर दिया था, जिसके नतीजे में छात्रों को क़ानूनी रास्ता अपनाना पड़ा.


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उचित प्रतिबंध पर बहस

एचसी में याचिकाएं दायर की गईं जिनमें दावा किया गया था, कि हिजाब पहनना धार्मिक आचार का एक अनिवार्य हिस्सा है, जिसे संविधान में सुरक्षित किया गया है. याचिकाकर्त्ताओं ने कहा था कि संवैधानिक अधिकारों पर पाबंदियां लगाई जा सकती हैं, लेकिन वो मुनासिब और वांछित उद्देश्यों के अनुपात में होनी चाहिए, जो कि मौजूदा विवाद में नहीं था.

लेकिन अपने अंतरिम आदेश में एचसी ने कहा, कि हिजाब पहनना मुसलमानों के बीच एक अनिवार्य धार्मिक आचार नहीं है, और इसलिए सरकारी आदेश छात्राओं के ऊपर लगाया गया एक उचित प्रतिबंध है.

अब एचसी के इस निष्कर्ष की आलोचना करते हुए सोमवार को याचिकाकर्त्ताओं ने दलील दी, कि कोर्ट को क़ुरान की व्याख्या करने का काम नहीं करना चाहिए था. पिछले सप्ताह एक याचिकाकर्त्ता के वकील ने कहा था कि हाईकोर्ट की ये टिप्पणी, कि क़ुरान की आयतें समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं, ‘ईशनिंदा’ की हद तक पहुंचती है.

मूछला ने कहा कि भारत में अदालतें ‘क़ुरान पर फैसला करने में’ सक्षम नहीं है.

सीनियर एडवोकेट ने आगे कहा, ‘एक औसत भारतीय मुसलमान भी अरबी पढ़ लेता है, क्योंकि वो बिना मायनों के होती है’.

जब कोर्ट ने मूछला से कहा कि याचिकाकर्त्ता अनिवार्य धार्मिक आचार से जुड़े सवाल के साथ कोर्ट गए थे, तो मूछला ने जवाब में कहा कि कोर्ट को उससे दूर रहना चाहिए था. ‘जब हाईकोर्ट के सामने ये सवाल आया, तो उसे अपने हाथ खींचते हुए कहना चाहिए था कि नहीं, हम इसे नहीं देख सकते’.

बाद में, एक याचिकाकर्त्ती ओर से बहस करते हुए सीनियर एडवोकेट सलमान ख़ुरशीद ने कहा, कि ‘विविधता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता’ के मद्देनज़र, सभी सांस्कृतिक प्रथाओं का सम्मान करने की ज़रूरत है. उनका तर्क था कि अपने परिधान का चयन करना गरिमा, स्वतंत्रता, और निजता का एक पहलू है.

उन्होंने कहा कि याचिकाकर्त्ताओं का तर्क ये नहीं था, कि यूनिफॉर्म को त्याग दिया जाना चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि याचिकाकर्त्ता सिर्फ ये चाहती हैं, कि उन्हें यूनिफॉर्म के अलावा भी कुछ पहनने दिया जाए.

ख़ुरशीद ने भारत की मिश्रित संस्कृति को बचाए रखने की अहमियत पर ज़ोर दिया, जो उनके अनुसार, संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों के अध्याय का हिस्सा थी. अपनी बात के समर्थन में उन्होंने उल्लेख किया, कि गुरुद्वारे में दाख़िल होने वाले लोग तुरंत अपने सरों को ढक लेते हैं, भले उनका ताल्लुक़ किसी भी मज़हब से हो.

उन्होंने कहा कि इसी तरह, मस्जिद में दाख़िल होते समय भी सर को ढकना होता है, और सर को ढकने की ये प्रथा केवल भारतीय परंपरा और संस्कृति का हिस्सा है. ख़ुरशीद ने कहा, ‘इस्लाम के अंदर एक बहस है कि मस्जिद में दाख़िल होने के लिए क्या सर को ढकना ज़रूरी है. दूसरे मुल्कों में ऐसा करना ज़रूरी नहीं है, लेकिन यहां आपको करना होता है.’

उन्होंने आगे कहा कि स्कूल और प्री-यूनिवर्सिटी जैसे सार्वजनिक स्थलों का कर्त्तव्य है कि वो इस मिश्रित संस्कृति को संभाल कर रखें. उन्होंने कहा कि भारत की विविधता को बचाए रखने के लिए ऐसा करना लाज़िमी है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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