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Friday, 17 May, 2024
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भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाली ऑनलाइन हिंसा को अदालतें गंभीरता से नहीं लेतीं: इंडियन IT ग्रुप स्टडी

कर्नाटक स्थित वकील मालविका राजकुमार और श्रीजा सेन द्वारा 94 अदालती मामलों के विश्लेषण पर यह अध्ययन आधारित है. यह इस महीने की शुरुआत में ग्रुप के वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था.

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नई दिल्ली: इंडियन एडवोकेसी ग्रुप आईटी फॉर चेंज के एक अध्ययन के अनुसार, भारतीय अदालतें महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न, धमकाने और अन्य प्रकार की ऑनलाइन हिंसा के मामलों को, भौतिक दुनिया में होने वाले अपराधों की तुलना में कम गंभीर मानते हैं.

‘ऑनलाइन लिंग-आधारित हिंसा के साथ न्यायपालिका की कोशिश: भारतीय मामलों और प्रचलित न्यायिक दृष्टिकोण का एक प्रयोगसिद्ध विश्लेषण’ शीर्षक वाला यह अध्ययन कर्नाटक स्थित वकील मालविका राजकुमार और श्रीजा सेन द्वारा 94 अदालती मामलों के विश्लेषण पर आधारित है.

इसे इस महीने की शुरुआत में ग्रुप की वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था.

ऑनलाइन अपराधों की निरंतर विकसित हो रही प्रकृति और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर लिंग-आधारित हिंसा की पहचान की कमी ने अपराधियों को अभियोजन से बचने की अनुमति दी है. अध्ययन में कहा गया है कि भारत में अदालतें अक्सर आरोपी के कथित अपराधों के बजाय शिकायतकर्ता के “चरित्र” की “लिंगवादी” और “पितृसत्तात्मक” जांच पर भरोसा करती हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑनलाइन जेंडर बेस्ड वायलेंस (OGBV) – पीछा करना, ट्रोलिंग, उत्पीड़न, साइबरबुलिंग और अवांछित अश्लील साहित्य, अन्य अपराधों के बीच – कोविड-19 महामारी के कारण शारीरिक मेलजोल रुकने और दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में ऑनलाइन चीज़े बढ़ने के कारण, इसमें तेजी आई है.

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अध्ययन में कहा गया है कि, इस बात के सबूत के बावजूद कि शारीरिक शोषण महिलाओं के साथ होने वाली ऑनलाइन हिंसा से जुड़ा है, “भारतीय अदालतें ऑनलाइन-ऑफ़लाइन निरंतरता को नज़रअंदाज़ करती हैं जिसके साथ OGBV होता है.”

इसमें आगे कहा गया कि “ऑनलाइन अपराधों की गंभीरता को तब तक नज़रअंदाज किया जाता है जब तक कि कोई ऑफ़लाइन अपराध न हो जाए. कई मामलों में जहां आरोपी पर ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, अदालतें ऑफलाइन अपराधों पर अधिक ध्यान केंद्रित करती हैं.”

दिप्रिंट से बात करते हुए, सेन ने कहा कि उन्होंने अध्ययन इसलिए किया क्योंकि “हम देखना चाहते थे कि विभिन्न हितधारकों और नेटवर्क के भीतर ऑनलाइन हिंसा कैसे काम करती है और न्यायिक प्रणाली इसके लिए कितनी जिम्मेदार है.”

राजकुमार के अनुसार, “ऑनलाइन जेंडर बेस्ड वायलेंस की आपराधिक प्रकृति के बारे में लोगों में जानकारी की कमी है, जिसके परिणामस्वरूप लोगों को यह समझने में मुश्किल हो रहा है कि जिस तरह की हिंसा का वे सामना कर रहे हैं, उसके खिलाफ कानूनी शिकायत की जा सकती है या नहीं.”

उन्होंने कहा, “कई महिलाएं इस तरह की हिंसा को एक मूर्खतापूर्ण और नज़रअंदाज करने वाली चीज़ मानती है. हममें से  ज्यादातर लोगों को कभी न कभी धमकियां, ट्रोल या नफरत मिली है लेकिन हम इसे गंभीरता से कब लेते हैं?”


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अध्ययन कैसे किया गया

अध्ययन पद्धति के बारे में बात करते हुए, राजकुमार ने कहा कि उन्होंने “देखा है कि [संबंधित मामलों में] अदालतों में ले जाए गए अधिकांश आरोप पत्र प्रावधान ऑनलाइन हिंसा के लिए दो कानूनों, भारतीय दंड संहिता, 1860 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 पर आधारित थे.”

उन्होंने कहा, “हमने इंडियन कानून (कानूनी पोर्टल) के माध्यम से एक फिल्टर चलाया और इसमें लगभग 400 मामले सामने आए. फिर हमने उन मामलों का चयन किया जिन्हें हमने अपने अध्ययन के ढांचे के भीतर उपयुक्त पाया था.”

75 प्रतिशत मामलों में, शोधकर्ताओं ने पाया कि अपराधियों ने महिलाओं की अंतरंग तस्वीरें लीक की थीं, या फिर उनकी तस्वीरें लीक करने की धमकी देकर उनका यौन उत्पीड़न किया था.

अन्य उदाहरणों के अलावा, अध्ययन दो मामलों का हवाला देता है जिनमें ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों अपराधों के आरोप शामिल थे.

उनमें से एक शेमीर A बनाम केरल राज्य का मामला है, जहां आरोपी ने कथित तौर पर शिकायतकर्ता के घर में घुसपैठ की और उनकी अंतरंग तस्वीरें ऑनलाइन पोस्ट करने की धमकी देकर उनके साथ बलात्कार किया. दूसरा मामला राजा कुमार बनाम बिहार राज्य का है, जहां आरोपी पर शिकायतकर्ता को जबरन नशीला पदार्थ पिलाने, एक अंतरंग वीडियो रिकॉर्ड करने और सोशल मीडिया पर वीडियो प्रसारित न करने के लिए पैसे की मांग करने का आरोप है.

रिपोर्ट में कहा गया है, “हालांकि, अपराध की प्रकृति के तथ्य बताने और यह देखने के अलावा कि उसे रिकॉर्ड किया गया और सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड किया गया था या नहीं, मामले में अपराध की गंभीरता को भी देखा गया.”

अन्य टिप्पणियों के अलावा, राजकुमार ने कहा कि शिकायत दर्ज कराने वाली सर्वाइवर ज्यादातर सीआईएस महिलाएं थीं (जिनकी लिंग जन्म के समय दिए गए लिंग के साथ संरेखित होती है), और उन्होंने “हाशिये पर स्थित स्थानों की महिलाओं को नहीं देखा, विशेष रूप से हाशिए पर मौजूद धार्मिक समूहों की महिलाओं या एससी/एसटी की महिलाओं की जानकारी कम है.”

उन्होंने कहा, “और एलजीबीटीक्यू समुदाय वहां बिल्कुल भी नहीं था, जो इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि मामले दर्ज करने और अदालत कक्ष में न्याय मांगने में बहुत सारी बाधाएं हैं.”

रिपोर्ट में कहा गया है कि अदालतों में सामने आने वाली एक और बाधा में सबूत का बोझ या आरोप साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी शामिल है. इसमें कहा गया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65बी(4) के तहत सेकंड्री इलेक्ट्रॉनिक सेकंड्री एविडेंस (मूल साक्ष्य की एक प्रति) को प्रमाणित करने के लिए प्रमाण पत्र की आवश्यकता के कारण, अक्सर साक्ष्य पर पूरी तरह से विचार नहीं किया जा सकता है.

रिपोर्ट में कहा गया कि “हमारे अध्ययन के मामलों से पता चलता है कि अदालतों ने धारा 65बी(4) प्रमाण पत्र के बिना सबूतों पर विचार नहीं किया, जिससे अदालतें सबूतों के पहुंच से वंचित हो गईं और परिणामस्वरूप, विक्टिम/सर्वाइवर के लिए न्याय तक पहुंच आसान हो गई.”

आगे बढ़ने का रास्ता

यह रिपोर्ट भारत में विधायिका सहित कानूनी प्रणाली से ऑनलाइन यौन हिंसा की चुनौतियों से निपटने की जिम्मेदारी लेने और डिजिटल युग में अपना ध्यान न्याय और समावेशिता पर केंद्रित करने का आह्वान करती है.

इसमें अदालतों से विक्टिम/सर्वाइवर के निजता के अधिकार को बरकरार रखने और हानिकारक सामग्री के प्रसार के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्मों को जिम्मेदार ठहराने का भी आह्वान किया गया है.

रिपोर्ट OGBV के पीड़ितों या इससे बचे लोगों की सुरक्षा को प्रभावित करने वाली सामग्री के प्रसार और प्रवर्धन में सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की भूमिका पर प्रकाश डालती है.

राजकुमार ने कहा, “इस मामले में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की भी मिलीभगत है, जिससे अक्सर उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा पर असर पड़ता है. प्लेटफ़ॉर्म अपने वायरल एल्गोरिथम फ़ंक्शंस के माध्यम से सामग्री को आगे बढ़ाने में भूमिका निभाते हैं और प्लेटफ़ॉर्म इस तरह से डिज़ाइन किए गए हैं कि जब उपयोगकर्ता कुछ शेयर करते हैं, तो आप विशेष रूप से देखते हैं कि यह हमेशा हिंसक सामग्री या फिर नफरत फैलाने वाली होती है, जिसे बड़े पैमाने पर साझा किया जा रहा है.”

सेन ने कहा कि अपने अध्ययन के माध्यम से उन्होंने देखा कि “परामर्शदाताओं और पुलिस अधिकारियों सहित पूरा पारिस्थितिकी तंत्र इस मुद्दे पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं.” उन्होंने कहा, “उन सभी को ओजीबीवी की विभिन्न चुनौतियों के प्रति संवेदनशील होना होगा.”

यह चिंता महिलाओं के अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं द्वारा भी व्यक्त की गई है.

वामपंथी रुझान वाली महिला संगठन, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमेन एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) की उपाध्यक्ष जगवती संगमन ने कहा कि न्याय पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से बड़ी कोई जगह नहीं है, लेकिन “वहां भी महिलाओं के साथ पितृसत्तात्मक मानसिकता का व्यवहार किया जाता है.”

संगमन ने कहा, “अभी भी कोई उचित तंत्र नहीं है जिसके माध्यम से हम सोशल मीडिया पर लिंग आधारित हिंसा के मामलों पर नज़र रख सकें. महिलाओं के खिलाफ हिंसा को केवल तभी गंभीरता से लिया जाता है जब यह शारीरिक हो. लेकिन जब मौखिक या भावनात्मक हिंसा की बात आती है, खासकर सोशल मीडिया पर, तो प्रतिक्रिया व्यक्तिगत न्यायाधीशों पर निर्भर करती है. इसके अलावा, कभी-कभी, वे स्वयं भी इस प्रकार की हिंसा में शामिल होते हैं.”

उन्होंने आगे कहा, अक्सर अदालत कक्षों में महिलाओं के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली भाषा भेदभावपूर्ण और समस्याग्रस्त होती थी.

उन्होंने कहा, “भारत में, जहां वैवाहिक बलात्कार को भी बलात्कार नहीं माना जाता है, बहुत कम संख्या में महिलाएं ऑनलाइन हिंसा के मामलों को अदालतों में ले जाती हैं.” उन्होंने कहा, यहां “गहन लैंगिक संवेदनशीलता” की आवश्यकता है.

उन्होंने आगे कहा, “अदालतों में ऐसी सुविधाएं होनी चाहिए जो वकीलों सहित पीड़ितों तक आसानी से पहुंच सकें. अदालतों की भाषा की जांच करने की जरूरत है, साथ ही विभिन्न स्तरों पर काम करने की जरूरत है.”

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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