नयी दिल्ली, 30 अप्रैल (भाषा) उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन ने बुधवार को शीर्ष अदालत के बहुमत के फैसले से असहमति जताई और कहा कि अदालतों को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 के तहत मध्यस्थता फैसले को ‘संशोधित’ करने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने एक के मुकाबले चार के बहुमत से निर्णय दिया कि अदालतें कुछ परिस्थितियों में मध्यस्थता और सुलह पर 1996 के कानून के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं।
प्रधान न्यायाधीश द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले में कहा गया कि 1996 के अधिनियम के तहत मध्यस्थता निर्णय को रद्द करने के अधिकार में कुछ शर्तों के पूरा होने पर इसे संशोधित करने का अधिकार भी शामिल होगा। बहुमत के फैसले से असहमति जताते हुए न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने 139 पन्नों के अपने फैसले में इस मुद्दे के सभी कानूनी पहलुओं पर विचार किया।
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा, ‘‘मुझे प्रधान न्यायाधीश के फैसले को पढ़ने का लाभ मिला है। अपने फैसले में, मैंने यहां उठने वाले प्रत्येक मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से अपने कारण बताए हैं। प्रधान न्यायाधीश का मानना है कि धारा 34 अदालत को फैसला के बाद इसे संशोधित करने की शक्ति देती है।’’
हालांकि, न्यायाधीश ने कहा, ‘‘मैं बताए गए कारणों से उक्त दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूं… इसी तरह, प्रधान न्यायाधीश का निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत फैसले को संशोधित करने की शक्ति के प्रयोग की अनुमति देता है, हालांकि निर्णय में कहा गया है कि अधिकार का इस्तेमाल सावधानी से किया जाना चाहिए। यहां फिर से, मैं अपने निर्णय में बताए गए कारणों से उक्त दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो पा रहा हूं।’’
शीर्ष अदालत मध्यस्थता से संबंधित मुद्दों पर निर्णय ले रही थी, जिसमें यह महत्वपूर्ण प्रश्न भी शामिल था कि क्या मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 और 37 के तहत न्यायालय के अधिकार में मध्यस्थता फैसले को संशोधित करने की शक्ति शामिल होगी। धारा 34 में उन विशिष्ट आधार का उल्लेख है, जिन पर किसी फैसले को रद्द किया जा सकता है।
इस प्रश्न पर कि क्या किसी निर्णय को रद्द करने की शक्ति में उसे आंशिक रूप से रद्द करने की शक्ति भी शामिल है, पीठ ने सकारात्मक उत्तर दिया। दूसरी ओर, अल्पमत के फैसले में कहा गया कि धारा 34 के तहत अधिकार का प्रयोग करने वाली अदालतों और उसके तहत अपील की सुनवाई करने वाली अदालतों को किसी निर्णय को संशोधित करने की कोई शक्ति नहीं है।
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा, ‘‘धारा 151 सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत निहित शक्ति का इस्तेमाल फैसलों को संशोधित करने के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह धारा 34 में उल्लिखित स्पष्ट शक्ति के विपरीत होगा। इसी तरह, फैसलों को संशोधित करने के लिए निहित शक्ति के सिद्धांत को लागू करने की कोई गुंजाइश नहीं है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘यह न्यायालय मध्यस्थों द्वारा पारित निर्णयों को संशोधित करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग नहीं करेगा, क्योंकि यह सर्वविदित है कि अनुच्छेद 142 की शक्ति का इस्तेमाल मूल वैधानिक प्रावधान को समाप्त करने के लिए नहीं किया जा सकता है।’’
अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को किसी भी मामले में ‘‘पूर्ण न्याय’’ प्रदान करने के लिए कोई भी आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा कि यह ‘‘बिल्कुल स्पष्ट’’ है कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए न्यायालय मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर रहे हैं, जो ‘‘मध्यस्थता प्रक्रिया के मूल चरित्र’’ पर आघात है।
न्यायाधीश ने कहा, ‘‘यदि इस न्यायालय को मुकदमे के अंतिम चरण में संशोधन करने का अधिकार सुरक्षित रखा जाता है, तो अनुबंध करने वाले पक्षों के सामने गंभीर अनिश्चितताएं होंगी क्योंकि उन्हें यकीन नहीं होगा कि जब मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचेगा तो उसका क्या होगा। यह विवाद समाधान के वैकल्पिक और प्रभावी तरीके के रूप में मध्यस्थता के विपरीत होगा।’’
भाषा आशीष सुरेश
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