नयी दिल्ली, 27 मई (भाषा) राष्ट्रीय राजधानी की एक अदालत ने 2015 के हत्या के एक मामले में दो लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए कहा कि सहानुभूति दिखाते हुए अपर्याप्त सजा देने से कानून के असर में जनता का विश्वास कम होगा जिससे न्याय प्रणाली को नुकसान पहुंचेगा।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र कुमार खरता ने कहा कि यह मामला मृत्युदंड देने के लिए ‘दुर्लभतम से दुर्लभतम’ सिद्धांत के दायरे से बाहर था।
अदालत गुरचरण सिंह और शीश राम के खिलाफ मामले की सुनवाई कर रही थी, जिन्हें पहले भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (हत्या) के तहत दोषी ठहराया गया था।
अतिरिक्त लोक अभियोजक पंकज कुमार रंगा ने दलील दी कि दोनों दोषियों ने साझा मंशा से एक अप्रैल 2015 को पीड़ित मनीष की हत्या का जघन्य अपराध किया, और इसलिए वे अधिकतम सजा के हकदार हैं।
तेरह मई के आदेश में अदालत ने 2005 के उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय का हवाला दिया, जिसके अनुसार, ‘अपर्याप्त सजा देने के लिए अनावश्यक सहानुभूति न्याय प्रणाली को और अधिक नुकसान पहुंचाएगी तथा कानून की प्रभावकारिता में जनता के विश्वास को कमजोर करेगी। इसलिए प्रत्येक अदालत का यह कर्तव्य है कि वह उचित सजा दे।’
इसके बाद अदालत ने दोनों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
न्यायाधीश ने कहा कि मामले को पीड़ित के कानूनी उत्तराधिकारियों के लिए मुआवजा निर्धारित करने और देने के लिए दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) को भेज दिया गया है।
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