नयी दिल्ली, 17 मई (भाषा) नीति विशेषज्ञों ने शनिवार को उस फैसले का स्वागत किया, जिसमें सरकार को पूर्व प्रभाव से पर्यावरणीय मंजूरी देने से रोक दिया गया है, लेकिन साथ ही उन्होंने चेताया कि पर्यावरण कानूनों में खामियां अब भी मौजूद हैं और नागरिकों को अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए सतर्क रहना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का अधिकार मौलिक अधिकार का हिस्सा है और मानदंडों का उल्लंघन करने वाली परियोजनाओं को पूर्वव्यापी प्रभाव से या बाद की अवधि में पर्यावरणीय मंजूरी देने वाले केंद्र के कार्यालय ज्ञापन को भी खारिज कर दिया।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनिवार्य रूप से पर्यावरणीय मंजूरी के बिना शुरू की गई परियोजनाओं को बाद में वैध नहीं किया जा सकता। इसने कहा कि जानबूझकर कानून की अनदेखी करने वाले उल्लंघनकर्ताओं को संरक्षण नहीं दिया जा सकता।
वनशक्ति के निदेशक स्टालिन डी ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया कि नागरिकों को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि अदालत के निर्देशों का पालन किया जाए।
उन्होंने कहा, ‘‘फैसले में साफ कहा गया है कि सरकार उल्लंघनकर्ताओं को सुरक्षित पनाहगाह मुहैया कराने की कोशिश नहीं कर सकती। इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे संवैधानिक ढांचे का किसी भी तरह से उल्लंघन न हो।’’
उन्होंने कहा, ‘‘इस आदेश में एक और बहुत प्रासंगिक बात यह है कि जिन लोगों ने इसका उल्लंघन किया है, वे अशिक्षित व्यक्ति नहीं हैं। वे शिक्षित, उच्च संपर्क वाले, धनी लोग हैं, जिन्हें पता था कि वे उल्लंघन कर रहे हैं, जिसे अब रोकने की जरूरत है।’’
भारतीय वन सेवा की सेवानिवृत्त अधिकारी प्रकृति श्रीवास्तव ने कहा कि यह एक अच्छा आदेश है, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय और परियोजना समर्थकों के इतिहास को जानने के बाद वे इसका कोई रास्ता निकाल लेंगे।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल के समन्वयक हिमांशु ठक्कर ने कहा कि यह निर्णय स्वागत योग्य है, लेकिन इसे पहले ही आ जाना चाहिए था। उन्होंने इसके क्रियान्वयन को लेकर भी चिंता जताई।
उन्होंने कहा, ‘‘यह फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन यह पहले भी आ सकता था। इससे पता चलता है कि हमारी प्रणाली प्रतिक्रिया देने में बहुत धीमी है।’’
ठक्कर ने कहा, ‘‘दूसरी बात, यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐसा न हो, आपकी विश्वसनीय निगरानी प्रणाली कहां है? तीसरी बात यह है कि कानून को दरकिनार किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, भूमि अधिग्रहण की अनुमति तब भी दी जाती है, जब पर्यावरण मंजूरी नहीं होती। यदि आपने पहले ही भूमि अधिग्रहण कर लिया है, तो आप प्रभाव पैदा कर रहे हैं, लोगों को विस्थापित कर रहे हैं।’’
‘विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी’ में जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र के प्रमुख देबादित्यो सिन्हा ने कहा कि ईआईए प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य विकल्पों का मूल्यांकन करना, पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का आकलन करना और किसी भी परियोजना को मंजूरी मिलने से पहले सार्वजनिक परामर्श को सक्षम बनाना है।
लॉ फर्म केएस लीगल एंड एसोसिएट्स की ‘मैनेजिंग पार्टनर’ सोनम चांदवानी ने कहा कि उच्चतम न्यायालय का फैसला मौजूदा व्यवस्था को हिला सकता है, लेकिन यह सभी चीजों का समाधान नहीं है।
हिमालय नीति अभियान के समन्वयक गुमान सिंह ने कहा कि उन्होंने पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंजूरी देने के सरकार के कदम का विरोध किया था।
उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय का फैसला स्पष्ट रूप से इस बात पर बल देता है कि अवैध परियोजनाओं को वैध बनाने के लिए पर्यावरण कानूनों को कमजोर नहीं किया जा सकता है और यह पारिस्थितिक जवाबदेही को बढ़ावा देता है।
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देवेंद्र माधव
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