नयी दिल्ली, सात अक्टूबर (भाषा) ‘‘ब्राज़ील के बेलेम में होने वाले सीओपी30 सम्मेलन में सिर्फ एक महीने से थोड़ा अधिक समय बचा है। अब समय आ गया है कि केवल वादे करने से आगे बढ़कर उन्हें पूरा करने पर ध्यान दिया जाए। इस साल का सम्मेलन ऐसा होना चाहिए जो वादों को पूरा करने पर केंद्रित हो।’’
ये बातें सीओपी30 के दक्षिण एशिया का प्रतिनिधित्व करने वाले विशेष दूत अरुणाभ घोष ने कहीं।
घोष ने चेतावनी दी कि अगर वैश्विक जलवायु व्यवस्था सिर्फ वादों का ‘पिटारा’ बनकर रह गई और कोई वास्तविक परिणाम सामने नहीं आये, तो जल्द ही इस ‘‘जलवायु व्यवस्था’’ पर बड़ा दबाव आ सकता है।
उन्होंने चेतावनी दी कि यदि वैश्विक जलवायु व्यवस्था ठोस परिणामों के बिना ‘प्रतिबद्धताओं के पिटारे’ के रूप में कार्य करती रही, तो जल्द ही ‘‘जलवायु संरचना बैंक पर दबाव’’ पड़ सकता है।
पेरिस समझौते के एक दशक पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित एक कार्यक्रम में ‘‘ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद’’ (सीईईडब्ल्यू) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) घोष ने कहा कि आगामी सीओपी30 में कोरी प्रतिबद्धताओं के बजाय क्रियान्वयन पर विचार होना चाहिए।
उन्होंने सदस्य देशों से सिर्फ वादे करने की बजाय ऐसे काम करने को कहा, जो सामने में दिख सकें।
घोष ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘कोई भी जमा राशि जिस पर कोई ब्याज नहीं मिलता, तो उसका अवमूल्यन हो जाता है। जब आप किसी बैंक की जमा राशि का अवमूल्यन करते हैं, तो ‘बैंक’ पर दबाव बढ़ जाता है।’’
उन्होंने कहा कि यदि केवल वादे किये जाते रहे और उसे निभाने के लिए ठोस काम नहीं किये गये तो जलवायु बचाने के लिए बनायी गयी व्यवस्था निष्प्रभावी हो जाएगी।
उन्होंने पेरिस समझौते के एक दशक बीत जाने पर विचार करते हुए कहा कि भले ही दुनिया ने कुछ ठोस उपलब्धियां हासिल की हैं, यथा- पेरिस नियम पुस्तिका को अंतिम रूप देना और ‘‘हानि और क्षति कोष’’ बनाना- लेकिन इन सफलताओं का असर कम हो गया है, क्योंकि इन्हें जमीन पर लागू करने में कमी रह गई है और देशों के जलवायु लक्ष्यों और जरूरतों के बीच का फासला बढ़ता जा रहा है।
उन्होंने कहा, ‘‘कई देशों ने अपने राष्ट्रीय स्तर पर तय किये गये जलवायु लक्ष्य (एनडीसी) में अभी तक पर्याप्त और ठोस सुधार या बढ़ोतरी नहीं की है।’’
उन्होंने यह भी कहा कि दुबई में सीओपी28 में पहली वैश्विक समीक्षा ने इन कमियों को पहले ही उजागर कर दिया था।
घोष ने कहा कि वादों और क्रियान्वयन के बीच के अंतर को देखते हुए, सीओपी30 का कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना ‘‘अधिक तर्कसंगत’’ है।
उन्होंने ‘‘प्रौद्योगिकी नवाचार और उसके प्रसार की प्रक्रिया’’ में तेजी लाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया और कहा कि ऊर्जा और परिवहन जैसे क्षेत्रों में तकनीकी बदलाव सीधी रेखा में नहीं होते, बल्कि अचानक और बड़े स्तर पर होते हैं, इसलिए इन्हें तेजी से बढ़ाना जरूरी है।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हालांकि वैश्विक जलवायु वित्त प्रवाह अभी-अभी 100 अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर गया है, लेकिन वास्तविक आवश्यकता ‘‘उस प्रवाह का 20 गुना’’ है।
क्षमता और कौशल के संबंध में घोष ने चीन के सिंघुआ विश्वविद्यालय में सुनी एक कहावत का हवाला दिया कि ‘‘पेड़ों को बढ़ने में दशकों लगते हैं, लेकिन प्रतिभाओं को पोषित करने में एक सदी।’’
उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हमारे पास अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के एक भिन्न तरीके के लिए प्रतिभाओं को पोषित करने के वास्ते एक सदी है?’’
उन्होंने जलवायु कार्रवाई में समय सीमाओं और संदर्भ बिंदुओं पर पुनर्विचार का भी आह्वान किया। उन्होंने तर्क दिया कि जहां हम अक्सर प्रगति को दशकों में मापते हैं, वहीं प्रकृति और ऊर्जा परिवर्तन लंबे या छोटे चक्रों में विकसित होते हैं।
उन्होंने पूछा कि क्या ‘‘हम इसे नवीकरणीय ऊर्जा की सदी कहेंगे, यानी वह समय जब पूरी दुनिया में साफ-सुथरी, टिकाऊ ऊर्जा जैसे सौर एवं पवन ऊर्जा का ज्यादा इस्तेमाल होगा, या इसे सौर और पवन ऊर्जा की आधी सदी कहेंगे, यानी सिर्फ कुछ दशक तक ही इन ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर रहेंगे’’।
घोष ने चेतावनी दी कि अक्सर कुछ हफ्तों में होने वाले राजनीतिक बदलाव वर्षों की जलवायु प्रगति को पलट सकते हैं। उन्होंने पेरिस समझौते से अमेरिका के हटने और ब्रिटेन में जलवायु कानूनों के लिए उभरते खतरों जैसी घटनाओं का हवाला दिया।
भारत में फ्रांस के महावाणिज्य दूत डेमियन सैयद ने भी घोष के कार्रवाई के आह्वान का समर्थन किया, लेकिन इस बात पर भी जोर दिया कि पेरिस समझौता आज के जलवायु प्रयासों का आधार बना हुआ है।
उन्होंने कहा, ‘‘पेरिस समझौते के बिना, हमारी धरती आज और भी बदतर स्थिति में होती।’’
सैयद ने याद दिलाया कि सीओपी21 में देशों ने एक बड़ी उपलब्धि यह हासिल की थी कि उन्होंने दीर्घकालिक लक्ष्यों को लचीलापन के साथ जोड़ा तथा इसके तहत हर देश को यह छूट दी गई कि वह अपने राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों (एनडीसी) को खुद तय कर सके।
उन्होंने कहा, ‘‘तमाम कठिनाइयों के बावजूद, पेरिस समझौता सफल रहा। यह अनुकूलनीय था और जलवायु एजेंडे में एक संदर्भ बन गया।’’
उन्होंने बताया कि समर्पित जलवायु कानूनों और रणनीतियों वाले देशों की संख्या 2015 में 98 थी जो बढ़कर अब 164 हो गई है, जबकि ऊर्जा परिवर्तन में वार्षिक निवेश 2025 में 2,20,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है, जो जीवाश्म ईंधन के निवेश से दोगुना है।
उन्होंने कहा, ‘‘हमारा वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य अभूतपूर्व गति से कार्बन-मुक्त हो रहा है।’’ उन्हों यह भी कहा कि फ्रांस और यूरोपीय संघ अपने 2030 के लक्ष्यों को पूरा करने और 2050 तक कार्बन तटस्थता हासिल करने की राह पर हैं।
पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने वार्ताओं का ऐतिहासिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और 1992 के रियो सम्मेलन से लेकर पेरिस समझौते तक की यात्रा का विवरण दिया।
वह जलवायु परिवर्तन के लिए भारत के विशेष दूत के रूप में कार्य कर चुके हैं।
भाषा सुरेश नरेश
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