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Saturday, 20 April, 2024
होमदेशआखिर क्यों कॉप 27 वार्ता के तहत विवाद का एक प्रमुख कारण बना हुआ है क्लाइमेट फाइनेंस

आखिर क्यों कॉप 27 वार्ता के तहत विवाद का एक प्रमुख कारण बना हुआ है क्लाइमेट फाइनेंस

विशेषज्ञों का कहना है कि क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा को अस्पष्ट रखने में रुचि यथास्थिति बनाए रखने की वजह से है ताकि अधिकांश ऋण को क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में पेश किया जा सके.

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नई दिल्ली: कॉप 27 जलवायु शिखर सम्मेलन के तहत एक उच्च-स्तरीय मंत्रिस्तरीय वार्ता के दौरान, इंटरनेशनल मोनेट्री फण्ड (आईएमएफ की प्रबंध निदेशक ने क्लाइमेट फाइनेंस (जलवायु परिवर्तन के दोषपूर्ण प्रभावों से निपटने के लिए की जाने वाली फंडिंग) के संबंध में सालों से अनसुलझे एक प्रश्न – इसकी परिभाषा – वाले मर्म पर प्रहार किया.

यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) का 27वां संस्करण इस 6 नवंबर को मिस्र के शहर शर्म अल-शेख में शुरू हुआ.

आईएमएफ की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने बुधवार को एक उच्च स्तरीय मंत्रिस्तरीय वार्ता के दौरान दुनिया भर के मंत्रियों के एक समूह से सामने कहा ‘हमें क्लाइमेट फाइनेंस की एक सामान्य परिभाषा पर सहमत होना होगा. मैं कई सारी बैठकों में शामिल होती रहीं हूं, जिसमें हम अक्सर इसी बारे में बहस करते हैं कि किसके द्वारा क्या योगदान किया जा रहा है. क्लाइमेट फाइनेंस का कोई भी नया लक्ष्य इस तरह की कार्यप्रणाली के आधार स्पष्ट होना चाहिए कि हम जुटाए गए, प्रदान किए गए और प्राप्त किए गए क्लाइमेट फाइनेंस की गणना कैसे करते हैं.’

क्लाइमेट फाइनेंस होता क्या है?

मोटे तौर पर कहें तो क्लाइमेट फाइनेंस वह धनराशि है जिसका उपयोग विभिन्न देशों द्वारा अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और अपने आप को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल बनाने के लिए किया जाता है. यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के तहत वे अमीर, विकसित राष्ट्र जिनके पास पर्याप्त साधन हैं, जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) वाली व्यवस्था से दूर जाने के उद्देश्य से उभरती अर्थव्यवस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने के प्रति वचनबद्ध हैं.

लेकिन क्लाइमेट फाइनेंस के तहत क्या-क्या आता है इस पर दशकों से विवाद चल रहा है, और इस बीच विकसित देशों उन गरीब देशों को पर्याप्त वित्तीय सहायता का वचन देते – और उसमें फेल होते – रहते हैं, जिन्हें अब जलवायु परिवर्तन के व्यापक दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है. साल 2009 में विकसित देशों ने साल 2020 से शुरू करके साल 2025 तक हर साल क्लाइमेट फाइनेंस  के रूप में $100 बिलियन की राशि देने का वादा किया था, लेकिन उनके द्वारा साल 2023 से पहले ऐसा किये जाने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है. विवाद की जड़ फंडिंग के उस प्रकार जिसकी विकासशील देशों को आवश्यकता होती है, बनाम उस प्रकार की फंडिंग जो अंततः वितरित की जाती है, से जुड़ी हुई है. कई सारे विश्लेषणों से पता चलता है कि अब तक जो कुछ भी पैसा जुटाया गया है, उसमें ऋण और गैर-रियायती प्रकार की फंडिंग शामिल है. इस बारे में छन कर आने वाली ख़बरों में कहा गया है कि यह पहले से ही जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे गरीब देशों को और गहरे कर्ज के जाल में धकेल सकता है.

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कॉप 27 में, भारत सहित अन्य विकासशील देशों का समूह क्लाइमेट फाइनेंस की एक ऐसी परिभाषा के लिए जोर देगा जो उनकी जरूरतों को पूरा करें. इसी के समानांतर रूप से, इस बात को लेकर भी चुनौतियां हैं कि बदलती हुई जलवायु के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए भविष्य में आवश्यक पैसे की वास्तविक राशि – जो कई खरब डॉलर में हो सकती है – कैसे जुटाई और वितरित की जा सकती है.

विशेषज्ञों का कहना है कि फाइनेंस (पैसों की व्यवस्था) पर बातचीत इस सीओपी पर सबसे अधिक दबाव डालने वाली होगी, खासकर यह देखते हुए कि यह फाइनेंस उन जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है जिसका उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करना है.

जैसा कि एक विकासशील देश के वार्ताकार ने दिप्रिंट को बताया – ‘यह चर्चा आसान नहीं होने वाली.’

परिभाषा की कमी

भारत सहित तमाम विकासशील देशों का कहना है कि क्लाइमेट फाइनेंस ‘समानता के सिद्धांतों और सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारी और संबंधित क्षमताओं पर आधारित’ होना चाहिए, जिसका अर्थ यह है कि अमीर देश, जिन्होंने अतीत में बिना किसी बाधा के मनमाना उत्सर्जन किया है, उन्हें उन उभरती अर्थव्यवस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करना चाहिए जो अभी भी विकसित हो रही हैं.

भारत ने यूएनएफसीसीसी के सामने इसी उद्देश्य के साथ एक आधिकारिक प्रस्तुतिकरण (सबमिशन) दिया था, जिसमें कहा गया था कि क्लाइमेट फाइनेंस में सार्वजनिक वित्त (पब्लिक फाइनेंस) को शामिल होना चाहिए, इसे विशेष रूप से विकसित देशों से विकासशील देशों की तरफ प्रवाहित होना चाहिए, और ‘अनुदान अथवा रियायती आधार पर’ दिया जाना चाहिए.

उधर संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक अलग सबमिशन दिया जो इस से काफी अधिक अलग हट के था और इसमें कहा गया था कि क्लाइमेट फाइनेंस को ‘ओपन इंडेड’ (बिना किसी निश्चित सीमा के) होना चाहिए और इसकी परिभाषा को ‘स्रोतों, उपकरणों, या अपनाये गए चैनलों के विस्तार पर रोक-टोक नहीं लगानी चाहिए.

इस बारे में बात करते हुए विशेषज्ञों ने दिप्रिंट को बताया कि क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा को अस्पष्ट रखने में रुचि यथास्थिति बनाए रखने के लिए है ताकि अधिकांश ऋण को क्लाइमेट फाइनेंस  के रूप में पेश किया जा सके.

दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के प्रतिष्ठित फेलो और भारत के पूर्व वार्ताकार दीपक दासगुप्ता ने कहा, ‘औद्योगिक देशों का मानना है कि जब तक किसी फंड का स्रोत एक विकसित देश से है, तब तक सब कुछ मायने रखता है. इसका इसमें मतलब है कि कोई रियायत, अतिरिक्तता नहीं है, यही बात पर्याप्त है कि आपको केवल उस स्रोत से वित्तीय प्रवाह की ध्यान में रखना चाहिए.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हम जो कुछ भी मिटिगेशन (दुष्प्रभावों को कम करने) से जुड़े काम करते हैं वह हमारे लिए बहुत अधिक महंगा होता है और यह पुरे विश्व के लिए सार्वजानिक भलाई के लिए है, क्योंकि हमने इस समस्या को शुरू करने में कोई योगदान नहीं दिया है. सवाल यह है कि अगर इसमें किसी तरह की कोई रियायत शामिल नहीं है, तो वास्तव में तो हर चीज के लिए हमीं भुगतान कर रहे हैं?’


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100 अरब डॉलर का लक्ष्य: यह किसके पास बकाया है?

यूएनएफसीसीसी की स्टैंडिंग कमेटी ऑन फाइनेंस की एक हालिया रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि परिभाषा की कमी क्लाइमेट फाइनेंस के प्रवाह की गणना को भी चुनौतीपूर्ण बनाती है. कोई आम सहमति नहीं होने के कारण, कई संस्थाएं इस बारे में अलग-अलग मूल्यों वाली सूचना देते हैं कि अब तक कितना पैसा जुटाया गया है, (विकसित देशों ने) कितना प्रदान किया गया है और (विकासशील देशों ने) कितना प्राप्त किया गया है.

ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) के उच्चतम अनुमानों के अनुसार, विकसित देशों ने साल 2020 तक केवल $83.3 बिलियन जुटाए और प्रदान किए हैं, जो अभी भी लक्ष्य से $16.6 बिलियन कम है. ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह संख्या और भी कम हो सकती है, उदाहरण के लिए, ऋण और गैर-अनुदान आधारित उपकरणों को छोड़कर, केवल 21-24.5 बिलियन डॉलर जुटाए गए हैं.

यूएनएफसीसीसी की स्टैंडिंग कमेटी के एक सदस्य ने कहा, ‘स्वभाविक रूप से, हर कोई ओईसीडी द्वारा दी गई संख्या की ओर आकर्षित होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ओईसीडी की संख्या ही सही है. आम सहमति वाली लेखांकन पद्धति और क्लाइमेट फाइनेंस की परिभाषा के अभाव में, आपको हमेशा यह समस्या होगी.’ साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि ‘$100 बिलियन के मामले में, चाहे आप किसी भी पद्धति का पालन क्यों न करें, सच यही है कि विकसित देश इस प्रतिबद्धता को पूरा करने में विफल ही रहे हैं.’

ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट नामक थिंक-टैंक द्वारा पहले से वादा किए गए $ 100 बिलियन में मौजूदा कमी के हालिया विश्लेषण में पाया गया कि यू.एस.ए. का हिस्सा सबसे अधिक है. इस विश्लेषण ने अपना अनुमान लगाने के लिए ओईसीडी के द्वारा बताई गई संख्या का उपयोग किया था.

अपनी सकल राष्ट्रीय आय, 1990 के बाद से संचयी क्षेत्रीय उत्सर्जन और जनसंख्या के आकार के अनुरूप साल 2020 में यू.एस.ए. को इस लक्ष्य के लिए $43.48 बिलियन की राशि प्रदान करनी चाहिए थी. लेकिन इस विश्लेषण के मुताबिक उसने इस रकम का महज 5 फीसदी ही मुहैया कराया. लक्ष्य से पिछड़ने वाले अन्य देशों में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इटली और स्पेन शामिल हैं.

विश्लेषण के अनुसार, साल 2020 में केवल सात देशों – स्वीडन, फ्रांस, नॉर्वे, जापान, नीदरलैंड, जर्मनी और डेनमार्क – ने क्लाइमेट फाइनेंस  का अपना उचित हिस्सा जुटाया और प्रदान किया था.

अमेरिका स्थित नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल के इंटरनेशनल क्लाइमेट फाइनेंस एडवोकेट जो थवाइट्स ने दिप्रिंट को बताया कि ये सारा पैसा विशिष्ट परियोजनाओं और कार्यक्रमों द्वारा जुटाया जाता है, और इसलिए विकासशील देशों के लिए वित्तीय प्रवाह इस बात पर आधारित हैं कि वे ‘परियोजनाएं और कार्यक्रम’ किस देश में हैं.’

पिछले साल कॉप 26 में प्रस्तुत एक ‘क्लाइमेट डिलीवरी प्लान’ में कहा गया था कि 100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य साल 2023 तक पूरा किया जा सकता है.

हालांकि स्टैंडिंग समिति ऑन फाइनेंस ने ओईसीडी द्वारा बताई गई संख्या के साथ ‘क्लाइमेट डिलीवरी प्लान’ के अनुमानों की तुलना की, और पाया कि ‘क्लाइमेट डिलीवरी प्लान’ की प्रगति के अनुसार साल 2023.तक $100 बिलियन के लक्ष्य को पार करने के लिए सार्वजनिक और निजी वित्त में से प्रत्येक में 20 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि करने की आवश्यकता होगी.

क्लाइमेट फाइनेंस पर एक नया लक्ष्य

साल 2025 के बाद से 100 बिलियन डॉलर के लक्ष्य को क्लाइमेट फाइनेंस पर एक नई कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल  (एनसीक्यूजी द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना है, जिसकी शर्तों पर अभी बातचीत की जा रही है.

सभी देश इस बात पर विचार कर रहे हैं कि इस लक्ष्य का स्वरुप क्या होना चाहिए और उसका कुल योग कितना होना चाहिए. पिछले साल, भारत ने अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर इस नए लक्ष्य को सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर रखने की मांग की थी.

वार्ताकारों का कहना है कि विकसित देश इस लक्ष्य को पूरा करने वाली धनराशि की मात्रा निर्धारित करने का विरोध कर रहे हैं, और भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को भी क्लाइमेट फाइनेंस में योगदान देने के लिए शामिल करवाने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि यूएनएफसीसीसी को कमजोर कर रहा है.

ग्लोबल साउथ (तकनीकी और सामाजिक रूप से कम विकसित देश) के एक वार्ताकार ने कहा, ‘हम देखेंगे कि यह चर्चा कैसे आगे बढ़ती है, लेकिन विकसित देशों द्वारा अपने दायित्वों को निजी क्षेत्र और विकासशील देशों की तरफ धकेले जाने की संभावना है.’

एनसीक्यूजी वार्ता के उसी उच्च-स्तरीय खंड, जिसमें जॉर्जीवा ने अपनी बात रखी थी, में अमेरिका के विशेष जलवायु दूत जॉन केरी ने कहा कि ‘दुनिया में किसी भी सरकार’ के पास विकासशील देशों द्वारा अपने उत्सर्जन को कम करने और अपने आप को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने के लिए आवश्यक खरबों डॉलर की राशि का भुगतान करने के लिए पैसा नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘ये खरबों डॉलर निजी क्षेत्र में हैं. उन्हें भरोसा करने योग्य सौदों की आवश्यकता है. हमें जोखिम कम करने और रियायती फंडिंग की जरूरत है, लेकिन सरकारों के पास यह नहीं है.‘

कई विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक, बहुपक्षीय विकास बैंकों (मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंक्स -एमडीबी) ने जलवायु परिवर्तन संबंधी जरूरतों के लिए सार्वजनिक वित्त जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन वे निजी निवेशों का सफलतापूर्वक लाभ उठाने में सक्षम नहीं हो पाए हैं,

इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में ऊर्जा और वित्त मामलों के जानकार शांतनु श्रीवास्तव ने कहा,  ‘इक्विटी (हिस्सेदारी), अनुदान और रियायती ऋण निजी निवेश को बढ़ाने में सबसे अच्छा काम करते हैं, हालांकि एमडीबी द्वारा प्रदान की गई अधिकांश पूंजी निवेश हेतु ऋण के रूप में है. एमडीबी जोखिम से बचने वाले निवेशक बने हुए हैं, जब उन्हें निजी पूंजी को आकर्षित करने  के लिए जोखिम के साथ पूंजी प्रदान करनी चाहिए.’ उन्होंने कहा , ‘एमडीबी भी उनके बैलेंस शीट के आकार के हिसाब से बंधे हुए हैं. साल 2021 में, एमबीडी ने वैश्विक स्तर पर क्लाइमेट फाइनेंस से जुड़े पहलों के लिए 82 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रदान किया है, जो कि ऊर्जा परिवर्तन के लिए वैश्विक पूंजी की जरूरतों की तुलना में बहुत कम है.’

क्लाइमेट फाइनेंस की कमी के अलावा, अनुकूलन संबंधी गतिविधियों के विपरीत, उत्सर्जन को कम करने पर ध्यान केंद्रित करने वाली मिटिगेशन संबंधी गतिविधियों के लिए वित्त का प्रवाह विकासशील देशों के बीच तात्कालिकता पैदा कर रहे हैं,  ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुकूलन संबंधी गतिविधियों में निवेश का फि अधिक जोखिम भरा माना जाता है.

थ्वाइट्स के अनुसार, क्लाइमेट फाइनेंस की जरूरतों को पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र कोई रामबाण उपाय  नहीं है, क्योंकि सरकारों – विशेष रूप से विकसित देशों की  – के पास ही इस धन को जुटाने के लिए उपकरण हैं.

थ्वाइट्स ने कहा, ‘एमडीबी अक्सर क्लाइमेट फाइनेंस को अरबों से बढ़ाकर खरबों में बदलने की बात करते हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. अभी, सारी रणनीतियां प्रोत्साहन, अनुदान, जोखिम कम करने और सार्वजनिक धन के उपयोग के बारे में हैं. हालांकि इन सब को इसमें भूमिका निभानी है, महार हमें नियामक सुधार और नीतिगत बदलाव आते देखने की जरूरत है. सरकारों के पास कर लगाने जैसे मजबूत उपाय अमल में लाने के उपकरण मौजूद हैं, जिसके लिए वे आ सकते हैं और ऐसा कर सकते हैं.’

(अनुवाद: रामलाल खन्ना)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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