शफाली मित्तल के यहां ‘घर में कोई जंक फूड नहीं’ का सख़्त नियम रहा है. उन्हें पता होना चाहिए- उन्होंने आहार और पोषण की पढ़ाई की है. लेकिन खाने के लिए तैयार पैक स्नैक्स, जिनके हेल्थ लेबल्स बहुत ख़राब होते हैं, उनकी इस पकड़ को कमज़ोर कर रहे हैं कि 17 और 23 साल की उम्र के उनके दो बेटे क्या खाते हैं. पिछले आठ साल से भारत में इस पर बहस चल रही है, कि उत्पाद को ज़्यादा उपभोक्ता हितैषी बनाने के दौरान, पीछे के तकनीकी डिसप्ले के अलावा, सामने की ओर किस तरह लेबल्स लाए जाएं- सीधी स्टार रेटिंग्स हों या रंग कोडित चेतावनियां हों.
इस फैसले में, जो जल्द आ सकता है, मित्तल जैसे बहुत से पैरेंट्स से बात की जा सकती है. फिलहाल, खाद्य पैकेज पर लिखी किसी भी चीज़ से उन्हें ये पता नहीं चलता कि इसमें कितना कुछ सेहत के लिए नुक़सानदेह है.
ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड, चिली, इज़राइल, पेरू, ब्राज़ील, और मेक्सिको तथा कई अन्य देशों में पैक के सामने की ओर बहुत तरह के लेबल होते हैं, जो 10 सेकण्ड्स से भी कम समय में संकेत दे देते हैं कि खाद्य उत्पाद स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है. क़रीब एक इंच के लेबल के पीछे विचार ये है कि उपभोक्ता को अधिक स्वस्थ खाद्य पदार्थों की ओर धकेला जाए. इन देशों में बहुत से अध्ययन हुए हैं जिनसे पता चलता है कि कौन से लेबल प्रभावी रहे हैं, कौन से नहीं रहे हैं.
भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) इस पर विचार कर रही है कि देश के लिए कौन सा लेबल अपनाया जाए. उसमें फूड पैकेट्स पर अतिरिक्त हानिकार पोषकों पर- ख़ासकर फैट, नमक और शुगर- प्रमुखता से जानकारी होनी चाहिए, जिससे सुनिश्चित हो जाए कि उपभोक्ता पूरी जानकारी के साथ इसका चयन करें कि वो क्या खाना चाहते हैं.
सब कुछ डिज़ाइन पर निर्भर करता है. एफएसएसएआई बैठकों में दो प्रमुख संकेतों के बीच खींचतान रहती है- चिली द्वारा इस्तेमाल चेतावनी चिन्ह, और ऑस्ट्रेलिया द्वारा इस्तेमाल हेल्थ स्टार रेटिंग. लेकिन दिप्रिंट ने सिलसिलेवार दस्तावेज़ देखे हैं जिनसे पता चलता है, कि एफएसएसएआई के भीतर पैक के सामने की ओर लेबलिंग का निर्णय, कथित तौर पर काफी हद तक खाद्य दिग्गज़ों के पक्ष में झुका है. उसमें एक मज़बूत रंग संकेत और विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्रीय ऑफिस (डब्लूएचओएसईएआरओ) द्वारा निर्धारित पोषक तत्व सीमा के पालन जैसे पिछले प्रस्तावों को ख़ारिज कर दिया गया.
उसकी बजाय, एफएसएसएआई अब एक हेल्थ स्टार रेटिंग के साथ आगे बढ़ रही है, जिसका उन देशों में अस्वस्थ भोजन का उपभोग घटाने में कोई असर नहीं रहा है जहां उसे लागू किया गया था. सार्वजनिक स्वास्थ्य और उपभोक्ता समूहों के सख़्ती के साथ स्टार रेटिंग से असहमत होने के बावजूद, एफएसएसएआई नए नियमों का मसौदा तैयार कर रही है, जिसे जल्द ही सार्वजनिक कर दिया जाएगा. परामर्श बैठकों में हिस्सा लेने वाले कम से कम तीन हितधारकों ने कहा कि एफएसएसएआई खाद्य पदार्थों की रेटिंग के लिए एल्गोरिदम तैयार करने की प्रक्रिया में है, जिसके आधार पर उन्हें स्टार दिए जाएंगे.
हर कोई संतुष्ट नहीं है. सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक समूह न्यूट्रिशन एडवोकेसी इन पब्लिक इंटरेस्ट के संयोजक अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘हेल्थ स्टार रेटिंग अस्वास्थ्यकर उत्पादों के इर्द-गिर्द एक स्वास्थ्य हेलो बना देती है. ये उत्पादों की अस्वास्थ्यकर नेचर को बिल्कुल कम कर देती है. एक उपभोक्ता के नाते मुझे लगता है कि अगर इसमें एक स्टार भी है, तो ये भले ही कम स्वस्थ है लेकिन स्वस्थ है. इसमें बुनियादी रूप से यही कमी है’.
सही लेबल
खाद्य उत्पादकों, औद्योगिक प्रतिनिधियों, पोषण वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और उपभोक्ता समूहों के साथ बेशुमार बैठकें करने, और स्टडीज़ पर करोड़ों रुपए ख़र्च करने के बाद एफएसएसएआई ये तय कर पाई कि खाद्य पैकेट्स पर कौन से डिज़ाइन से उपभोक्ताओं को उनमें मौजूद अधिक नमक, चीनी, और वसा के बारे में सबसे अच्छी तरह पता चलेगा.
बड़ों तथा बच्चों में ग़ैर- संचारी रोगों में चिंताजनक बढ़ोत्तरी की वजह से ही नीति में ये बदलाव किया गया है. वैज्ञानिक सबूत चीनी, नमक, और वसा से भरपूर खाद्य और पेय पदार्थों के उपभोग को, सीधे तौर पर मोटापे, उच्च रक्तचाप, ह्रदय रोग, स्ट्रोक, अवसाद, यहां तक कि कैंसर जैसी बीमारियों से जोड़ते हैं.
चिली में हुई स्टडीज़ में भी- जहां एक काला षट्कोणीय चिन्ह इस्तेमाल किया जाता है जिससे अधिक नमक, चीनी या वसा का पता चलता है- ज़ाहिर होता है कि मीठे पेय पदार्थों का उपभोग गिरकर 24 प्रतिशत रह गया था. दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया में खाद्य पदार्थों को स्टार दिए जाते हैं. खाद्य पैकेट्स में जितना ज़्यादा नमक, चीनी, या वसा होगी, उसे उतने ही कम स्टार मिलेंगे, और ये चीज़ें जितनी कम होंगी स्टार उतने अधिक होंगे. अगर खाद्य पदार्थों में नट्स या फलों जैसी पॉज़िटिव सामग्री मिला दी जाती है, तो उनकी स्टार रेटिंग सुधर जाएगी. साक्ष्यों से पता चलता है कि ऐसी स्टार रेटिंग्स का उपभोग व्यवहार को बदलने में कोई ख़ास प्रभाव नहीं रहा है.
वैश्विक सबूत के बावजूद 15 फरवरी 2022 को एफएसएसएआई ने, भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद के एक अध्ययन की सिफारिशों के आधार पर, जिसे उसने कमीशन किया था, भारत के लिए स्टार रेटिंग को चुन लिया.
पांच प्रतीकों के लिए शोधकर्ताओं ने 20,000 से अधिक प्रतिभागियों के एक सैम्पल सर्वे से इनपुट्स लिए, और उनमें से दो के बीच कड़ा मुक़ाबला था- चेतावनी लेबल्स और हेल्थ स्टार रेटिंग. पहचान की आसानी और लेबल की समझ के चलते स्टार रेटिंग जीत गई, लेकिन जब किसी अतिरिक्त पोषक की पहचान में आसानी की बात आती है, तो चेतावनी लेबल्स को बेहतर रैंक और अंक मिलते हैं.
खाद्य उद्योग प्रतिनिधि स्टार प्रतीकों को लागू करने पर राज़ी हो गए हैं, लेकिन उपभोक्ता समूहों को कहीं कुछ दाल में काला लगता है.
किसी उत्पाद में अस्वास्थ्यकर सामग्री को कम करने के अलावा, स्टार रेटिंग पोषक तत्व-विशिष्ट नहीं होती. एक थिंक-टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट में प्रोग्राम डायरेक्टर सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स, अमित खुराना समझाते हैं कि इसमें ये पता नहीं चलता कि क्या किसी उत्पाद में कम स्टार ज़्यादा नमक, चीनी, या वसा की वजह से हैं.
गुप्ता कहते हैं कि पैक्स पर ये पॉज़िटिव संकेत, सकारात्मक पोषक तत्वों के साथ मिलकर एकदम सही नुस्ख़ा बन जाता है, जिसका खाद्य निर्माता आसानी के साथ भरपूर फायदा उठाएंगे.
गुप्ता कहते हैं, ‘अगर आप किसी एयरेटेड ड्रिंक के साथ फलों का रस मिला दें, या चीनी हटाकर उसमें कोई स्वीटनर डाल दें, तो उत्पाद को बेहतर स्टार मिल जाएगा. इसमें फिर भी चीनी की काफी मात्रा होगी. लेकिन ये उद्योग को ठीक लगता है क्योंकि इस तरह से वो उपभोक्ता को भ्रमित रख सकते हैं’.
चॉकलेट्स में नट्स, अनाज में फल, आटे में मल्टीग्रेन, और ऐसे बहुत से फ़ॉर्मूलों का उद्योग में पहले ही इस्तेमाल हो रहा है.
चुनाव का बचाव करते हुए, एफएसएसएआई के पूर्व कार्यकारी अधिकारी पवन कुमार अग्रवाल, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान पैक के सामने लेबलिंग पर हुई बैठकों की अध्यक्षता की थी, कहते हैं कि लेबल कैसा भी हो लेकिन एक शुरुआत होनी चाहिए.
अग्रवाल कहते हैं, ‘परफेक्ट मॉडल कोई नहीं है. दुनिया का कोई देश ये दावा नहीं कर सकता कि उसने इसे जल्दी और सही रूप में हासिल कर लिया है. चिली और दूसरे देशों को भी आज की मौजूदा स्थिति में आने में बरसों लग गए थे. अगर पिछले 4-5 सालों में पता चला है कि कोई चीज़ भारत में काम कर जाएगी, तो मुझे लगता है कि उसे अपना लेना चाहिए. ये कोई पत्थर की लकीर नहीं है. इसमें पहले ही बहुत देर हो चुकी है’.
इस बीच, एफएसएसएआई के साथ बैठकों में उद्योग इस पर राज़ी हो गया है, जब नए लेबलिंग नियम लागू होंगे तो वो उनका पालन करेगा.
दिप्रिंट ने एफएसएसएआई बैठकों में उद्योग की नुमाइंदगी करने वाली दो इकाइयों, फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) और कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) से संपर्क साधने के कई प्रयास किए, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी.
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लंबा इतज़ार
भारत में पैक पर सामने की ओर लेबलिंग की बुनियाद 2010 में रखी गई, जब स्कूलों में अस्वास्थ्यकर और प्रॉसेस्ड फूड पर पाबंदी की मांग करने वाली एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए, दिल्ली हाईकोर्ट ने एफएसएसएआई को जंक फूड को विनियमित करने के लिए क़दम उठाने का निर्देश दिया. एफएसएसएआई ने लेबलिंग पर पहले 2014 और फिर 2018 में चर्चा की. विशेषज्ञ समूहों का इनपुट मिलने के बाद एफएसएसएआई ने एक मसौदा जारी किया, और नमक, चीनी तथा वसा के उपभोग के लिए डब्लूएचओ-एसईएआरओ द्वारा निर्धारित सीमा को भी अपना लिया.
उसके बाद 2019 के अपने मसौदे में एफएसएसएआई ने डब्लूएचओ-एसईएआरओ की सीमाओं को त्याग दिया, और नई सीमाएं लेकर आई जिन्हें उपभोक्ता समूह अवैज्ञानिक बताते हैं. नमक, चीनी, और वसा की सीमा में इज़ाफा बहुत से अस्वास्थ्यकारी पैक स्नैक्स को तथाकथित ‘स्वस्थ’ श्रेणी में घुसा देगा, जहां उन्हें पैक के सामने की ओर लेबल लगाने की ज़रूरत नहीं होगी.
सीमाओं पर अपने रुख़ का बचाव करते हुए एफएसएसएआई ने कहा, ‘पहले, सीमाएं डब्लूएचओ-एसईएआरओ मॉडल पर आधारित थीं, जो सांकेतिक हैं और जिन्हें वैसे भी किसी देश में लागू नहीं किया जाता. हितधारकों ने इन पर कई तरह की चिंताएं जताई थीं, और कोई आम सहमति नहीं बन पाई थी. इसलिए, वैज्ञानिक पैनल ने 2019 के मसौदा नियमों में प्रस्तावित श्रेणियों और सीमाओं की समीक्षा की, और मौजूदा प्रस्तावित सीमाओं में बहुत से देशों में लागू वैश्विक मॉडल्स, और डब्ल्यूएचओ-पॉपुलेशन न्यूट्रिएंट इंटेक गोल्स का ख़याल रखा गया है’.
अग्रवाल, जिनके कार्यकाल में सीमाओं में संशोधन किया गया था, समझाते हैं कि डब्लूएचओ-एसईएआरओ सीमाओं में स्नैक्स की सामग्री में क़रीब 80 प्रतिशत कमी की गई है, जिससे वो भारत के लिए बहुत स्वादहीन हो जाते हैं. वो कहते हैं, ‘हम जो सीमा देते हैं अगर वो लोगों के उपभोग पैटर्न से बहुत अलग होगी, तो वो कभी लागू ही नहीं होंगी. नमक और चीनी में कमी लाने की प्रक्रिया क्रमिक होना चाहिए. ये एक दिन या एक साल में हीं हो सकती. हमने बहुत विस्तृत विश्लेषण करके इन सीमाओं में बदलाव किया है’.
अग्रवाल के अनुसार 2017 में, एफएसएसएआई ने कंपनियों से संकल्प लिया, कि वो अपने खाद्य पदार्थों में नमक, चीनी, और वसा की मात्रा कम करेंगी. क़रीब 20 कंपनियां आगे आईं, लेकिन उनकी पहल को सीमित सफलता ही मिली.
वो कहते हैं, ‘खाद्य व्यवसाय में लगीं इकाइयां इसमें मुनाफे के लिए हैं. जब वो बाज़ार में हिस्सेदारी के लिए एक दूसरे से मुक़ाबला करती हैं, तो ऐसे में ये मान लेना ग़लत है कि वो अलग तरह से बर्ताव करेंगी, और बाज़ार में हिस्सेदारी और मुनाफे की क़ीमत पर पोषण पर ध्यान देंगी’.
फरवरी 2022 में हितधारकों की बैठक में एफएसएसएआई ने ऐलान किया कि चार साल के लिए लेबलिंग स्वैच्छिक होगी, और फिर इसे अनिवार्य कर दिया जाएगा. एफएसएसएआई का कहना है कि ये एक वैश्विक मानदंड है, और कंपनियों को पैक के सामने की ‘अग्रणी’ लेबलिंग को स्वीकार करने में समय लगेगा.
खाद्य निर्माताओं समेत आठ करोड़ से अधिक व्यवसाइयों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह, कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स के संस्थापक और महासचिव प्रवीण खंडेलवाल के अनुसार, छोटे खाद्य निर्माता और व्यवसाइयों से, जिनकी भारतीय बाज़ार में 75 प्रतिशत तक हिस्सेदारी है, कभी परामर्श नहीं किया गया. ‘एफएसएसएआई फिक्की, सीआईआई जैसे बड़े उद्योग प्रतिनिधियों और कुछ मुठ्ठीभर खाद्य दिग्गजों को बुलाती है, जो केवल 15 प्रतिशत कारोबार की नुमाइंदगी करते हैं. हालांकि छोटे खिलाड़ी नए क़ानूनों का पालन करेंगे, लेकिन हितधारकों की बैठकों में उनकी चिंताओं को सुने जाने की ज़रूरत है.
इन आरोपों पर कि खाद्य उद्योग उसके फैसलों को प्रभावित कर रहा है, एफएसएसएआई का कहना है कि उपभोक्ता समूह और उद्योग संघ दोनों परामर्श का एक अभिन्न अंग रहे हैं, और अंतिम अधिसूचना जारी किए जाने से पहले उनकी टिप्पणियों पर विचार किया जाएगा.
इस बीच, हानिकारक खाद्य पदार्थों के ज़्यादा कड़े नियमन के लिए उठने वाली आवाज़ें तेज़ होती जा रही हैं. भारत में, चार में से एक वयस्क और 20 में से एक बच्चा या तो अधिक वज़न का है या मोटा है. विश्व मोटापा फेडरेशन के अनुसार, ये संख्या विश्व अनुपात से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ रही है, और अगर कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया, तो 2040 तक ये संख्या तीन गुना बढ़ जाएगी.
बदलती जीवन शैली का असर
मित्तल का बड़ा बेटा माधव सिंगापुर से वापस घर लौटा है, और उनके दिन उसे चर्म विशेषज्ञों के यहां ले जाने में बीत रहे हैं. वो कहती हैं, ‘उनकी त्वचा की चमक चली गई है और उसके बाल झड़ रहे हैं. डॉक्टर मुझसे कहते हैं कि ऐसा पोषण की कमी से हो रहा है’.
मित्तल कहती हैं कि सिंगापुर में माधव की ख़ुराक का एक बड़ा हिस्सा भारतीय भोजन के खाने के लिए तैयार फूड पैकेट्स हैं, और वो अब ज़ाहिरी तौर पर अपना असर दिखा रहे हैं.
वो कहती हैं, ‘भविष्य पैक किए हुए भोजन का है. काम की व्यस्तता, सामाजिक जीवन और 10-मिनट डिलीवरी एप्स के साथ कुछ भी ख़रीदना बहुत सुविधाजनक हो गया है’. लेकिन वो सोचती हैं कि क्या कोई चेक कर रहा है कि उन सीलबंद पैकेट्स में कंपनियां क्या मिला रही हैं.
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