नई दिल्ली: क्लाइमेट ओवरशूट (तापमान का बढ़ना) के कारण दुनिया भर में जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र पर काफी बुरा असर पड़ सकता है. इसके कारण उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में 90% से ज्यादा प्रजातियां अपने सामान्य थर्मल रेंज से बाहर जा सकते हैं. एक नए अध्ययन में ये जानकारी निकलकर आई है.
फिलोजोफिकल ट्रांजेक्शन्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी: बायोलोजिकल साइंसेज में छपी स्टडी में दुनियाभर के 30,000 प्रजातियों को कवर किया गया है जिसमें पाया गया कि अध्ययन किए गए एक चौथाई जगहों पर, प्री-ओवरशूट ‘नार्मल’ पर वापस लौटने की उम्मीदें या तो अनिश्चित है या असंभव है.
इस अध्ययन से जुड़े यूनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन (यूसीटी) और यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन (यूसीएल) के वैज्ञानिकों ने चेताया है कि कार्बन डाइ-ऑक्साइड को हटाने वाली तकनीकें अपने साथ अलग तरह के जोखिम लेकर आते हैं और इससे जैव विविधता पर पड़ने वाला असर कम नहीं हो सकता.
पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वैश्विक स्तर पर चल रहा जलवायु एक्शन प्लान अपनी परिणति से काफी पीछे है. लेकिन इस बीच ग्लोबल वार्मिंग की तय लिमिट के ओवरशूट की स्थिति देखने को मिल रही है जिसके लिए साल 2100 तक तापमान न बढ़ें इसके लिए कार्बन डाइ-ऑक्साइड रीमूवल तकनीक (सीडीआर) का इस्तेमाल किया जा रहा है.
शोधार्थियों को मानना है कि सीडीआर का पारिस्थितिक तंत्र पर बुरा असर पड़ रहा है.
रिसर्च करने वाली टीम ने तापमान के ओवरशूट करने के प्रभाव का आकलन किया जो कि जलवायु परिवर्तन के कारण पहले से ही काफी प्रभावित है जिसकी वजह से जंगलों में प्रजातियां खत्म हो रही हैं.
रिसर्च टीम के अनुसार, ‘इस तरह का एक अध्ययन, जिससे ओवरशूटिंग की जैव विविधता के जोखिम और फिर 2.0 डिग्री सेल्सियस तापमान लक्ष्य के तहत वापस लौटने का स्पष्ट रूप से मॉडल तैयार किया गया है, लंबे समय से जलवायु परिवर्तन पर हो रहे शोध से गायब है.’
शोधार्थियों ने पाया कि ज्यादातर क्षेत्रों में तापमान के अचानक बढ़ जाने से प्रजातियां अपने ‘थर्मल लिमिट’ के रेंज से बाहर जा रहे हैं. और इस लिमिट में फिर से आने की रफ्तार काफी धीमी है. साथ ही, जैव विविधता जोखिमों के लिए प्रभावी ओवरशूट लगभग 60 वर्षों के वास्तविक तापमान ओवरशूट की तुलना में लगभग दोगुना होने का अनुमान है.
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उष्णकटिबंधीय इलाकों के लिए ज्यादा जोखिम
अध्ययन के अनुसार तापमान के ओवरशूट करने का जोखिम उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सबसे ज्यादा है. इंडो-पैसिफिक, मध्य हिंद महासागर, नार्दन सब-सहारन अफ्रीका और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में इसके कारण 90 प्रतिशत प्रजातियां अपने थर्मल रेंज से बाहर जा सकती हैं.
वहीं सबसे ज्यादा प्रजाति संपन्न अमेजन के जंगलों में आधे से ज्यादा प्रजातियां जलवायु के कारण पैदा हुई स्थितियों से खतरे में है.
अमेजन स्थित अध्ययन किए गए 19 प्रतिशत जगहों पर देखा गया कि प्रजातियों के प्री-ओवरशूट स्तर पर आने की दर कापी अनिश्चित है. वहीं 8 प्रतिशत जगहें ऐसी हैं जहां पर प्रजातियां कभी भी अपने पहले के स्तर पर नहीं आ पातीं. जिसका मतलब है कि ओवरशूट के कारण प्रकृति के पारिस्थितिक तंत्र पर अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ सकता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन (यूसीटी) के अफ्रीकन क्लाइमेट एंड डेवलपमेंट इनीशिएटिव (एसीडीआई) के डॉ. एंड्रियास मेयर ने कहा, ‘अमेजन के लिए इसका मतलब जंगलों का मैदानों में बदल जाना है. और इससे वैश्विक तौर पर एक कार्बन सिंक का खत्म होना है जिससे न केवल पारिस्थितिक और जलवायु व्यवस्था बल्कि ग्लोबल वार्मिंग को कम करने की क्षमता भी प्रभावित होगी.’
एसीडीआई के ही डॉ. जोआन बेंटले ने कहा, ‘ये समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए कोई ‘सिल्वर बुलेट’ उपाय नहीं हैं. इसके लिए ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करना होगा.’
बेंटले ने कहा कि हमारे अध्ययन से पता चलता है कि अगर हम खुद को 2.0 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग लक्ष्य से आगे निकलते हुए पाते हैं, तो हम जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र का नुकसान करेंगे जिस पर हम सभी अपनी आजीविका के लिए भरोसा करते हैं. तापमान के ओवरशूट से बचना प्राथमिकता होनी चाहिए, उसके बाद ओवरशूट की अवधि और मैग्निट्यूड को सीमित करना चाहिए.’
बता दें कि 2015 में पेरिस में दुनियाभर के देशों ने वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने की प्रतिबद्धता जताई थी.
इस दिशा में क्लाइमेट ओवरशूट कमीशन भी बनाया गया जिसका काम जलवायु को गर्म होने के जोखिम को कम करने और इसे लेकर रणनीति बनाना है.
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