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Thursday, 21 November, 2024
होमदेशगोगोई को क्लीन चिट- 'एक गलती' का जिक्र करते हुए SC की रिटायर्ड जज इंदिरा बनर्जी ने जांच का बचाव किया

गोगोई को क्लीन चिट- ‘एक गलती’ का जिक्र करते हुए SC की रिटायर्ड जज इंदिरा बनर्जी ने जांच का बचाव किया

बनर्जी ने पूर्व सीजेआई गोगोई के खिलाफ ‘यौन उत्पीड़न की जांच रिपोर्ट’ के तरीके पर उठ रहे आरोपों की जांच करने से इनकार करते हुए कहा कि दोनों पक्षों को अपने मामले को पेश करने का पर्याप्त अवसर दिया गया था.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने पूर्व सीजेआई को क्लीन चिट देने वाली समिति द्वारा जिस तरीके से जांच की गई, उसका बचाव किया है. वह गोगोई के खिलाफ लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच करने वाली समिति का हिस्सा थीं.

दिप्रिंट के साथ एक विशेष बातचीत में बनर्जी ने कहा कि जांच समिति यह तय करने के लिए नहीं बैठी थी कि शिकायतकर्ता का यौन उत्पीड़न हुआ है या नहीं और वह किस राहत की हकदार होगी’, बल्कि उसे यह देखना था कि क्या तत्कालीन सीजेआई ने ऐसा कोई काम किया है जिसके लिए उन पर महाभियोग लगाने की सिफारिश की जानी चाहिए या उनसे इस्तीफा देने का अनुरोध किया जाना चाहिए. बनर्जी 23 सितंबर को अपने पद से सेवानिवृत हो गईं थी.

पूर्व न्यायाधीश ने पैनल की ओर से अंतिम सर्वसम्मत रिपोर्ट तैयार की थी. समिति ने मई 2019 में CJI गोगोई को क्लीन चिट दे दी थी. उन्होंने रिपोर्ट को सार्वजनिक करने पर जोर देते हुए कहा कि इससे कार्यवाही से जुड़े ‘संदेह’ दूर होंगे. सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था कि 2003 के फैसले के अनुसार वह रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिए उत्तरदायी नहीं है.

35 वर्षीय यह महिला अदालत में जूनियर कोर्ट असिस्टेंट के पद पर काम कर रही थी. उन्होंने अप्रैल 2019 में आरोप लगाते हुए कहा था कि अक्टूबर 2018 में गोगोई ने उनका यौन उत्पीड़न किया था. उसने 22 न्यायाधीशों को पत्र लिखकर सीजेआई के खिलाफ जांच की मांग की थी.

23 अप्रैल, 2019 को आरोपों की जांच करने के लिए न्यायमूर्ति एस ए बोबडे– जो गोगोई के बाद सीजेआई बने थे-  के नेतृत्व में एक तीन सदस्यीय पैनल बनाया गया, जिसमें न्यायमूर्ति एनवी रमना (जो इस अगस्त में सीजेआई के रूप में सेवानिवृत्त हुए) और बनर्जी शामिल थे. रमना के हटने के बाद जस्टिस इंदु मल्होत्रा को तीसरे सदस्य के रूप में नामित किया गया था.

पैनल ‘तदर्थ कार्यवाही करने, जांच के सबूतों का खुलासा नहीं करने और शिकायतकर्ता को अपने वकील की मौजूदगी की अनुमति नहीं दिए जाने के लिए आलोचना के घेरे में आ गया था.


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‘गोगोई के लिए आरोपों का जवाब देना जरूरी नहीं था’

बनर्जी ने गोगोई को क्लीन चिट दिए जाने के आस-पास फैले विवाद और जांच पैनल की आलोचना पर विस्तार से बात की.

उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत के सभी न्यायाधीशों की सहमति से गठित समिति के गठन में पूर्व सीजेआई की कोई भूमिका नहीं थी. हालांकि, उनके विचार में गोगोई ने एक ‘गलती’ की और वह थी ‘शनिवार को सुनवाई करना’ और सोशल मीडिया के एक हिस्से में प्रकाशित आरोपों का जवाब देना.

पूर्व न्यायाधीश ने कहा, ‘सीजेआई के लिए आरोपों का जवाब देना जरूरी नहीं था. लेकिन जिस तरह से उन्हें परेशान किया गया था, संभवत: उन्होंने अपना आपा खो दिया’ उनके अनुसार, इसी सुनवाई के चलते ही उनके खिलाफ विरोध शुरू हुआ था.

उन्होंने कहा कि जांच पैनल ने 1999 में SC द्वारा अपनाई गई एक वैध प्रक्रिया का पालन किया, जिसके अनुसार शिकायतकर्ता की स्थिति एक मुखबिर की थी.

न्यायमूर्ति बनर्जी ने समझाया, ‘समिति को तय करना था कि क्या सीजेआई गोगोई पर महाभियोग की सिफारिश करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं. समिति ने गोगोई को अपनी गवाही देने का मौका दिया. लेकिन शिकायतकर्ता को सुनवाई का मौका देना जरूरी नहीं था.

उन्होंने कहा कि जांच का दायरा इस सवाल पर गौर करने के लिए था कि क्या ‘सीजेआई की ओर से ऐसा कोई काम किया गया था, जिसके लिए उन्हें पद से हटाया जा सकता है.’

पैनल के अनुमोदन के बारे में बात करते हुए, उन्होंने कहा कि यह समिति इसलिए नहीं बैठी थी कि वह ‘इस सवाल पर गौर करें कि क्या शिकायतकर्ता को पुलिस ने गलत तरीके से परेशान किया था या हरियाणा के किसी व्यक्ति ने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई थी और उन पर सुप्रीम कोर्ट में नौकरी दिलाने के लिए पैसा लेने का आरोप लगाया था. जिस कारण पुलिस ने उसे परेशान किया. उस झूठ या सच के लिए समिति नहीं थी.

बनर्जी ने बताया, ‘निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक एक लिखित शिकायत जांच करने के लिए काफी थी. फिर भी समिति ने शिकायतकर्ता को ‘अपने आरोपों की पुष्टि करने के लिए’ पेश होने के लिए नोटिस जारी किया था.’

पहली सुनवाई पर पैनल के सामने पेश होने के बाद महिला ने समिति के सामने पेश होने से इंकार कर दिया था क्योंकि उन्हें अपने वकील के साथ आने की अनुमति नहीं दी गई थी. इस पर पूर्व न्यायाधीश ने साफ किया, ‘1999 का रिजोल्यूशन (एक मौजूदा न्यायाधीश के खिलाफ आंतरिक जांच करने से संबंधित) शिकायतकर्ता को अपने वकील की मौजूदगी की अनुमति नहीं देता है. इसलिए उसे वकील के बिना पेश होने के लिए कहा गया था.’

बनर्जी ने इस बात से इनकार किया कि जांच को गलत तरीके से आगे बढ़ाया गया. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि कानून का पालन किया गया और दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का पूरा मौका मिला था.

उन्होंने कहा कि पैनल को लेकर आलोचना शायद इसलिए हुई क्योंकि जांच के दायरे से संबंधित कुछ गलतफहमियां थी. उन्होंने कहा, ‘इस मामले में जांच की बारीकियों और यौन उत्पीड़न कानूनों के तहत जांच की गंभीरता को नहीं समझा गया.’

बनर्जी ने बताया कि यह देखने के लिए समिति का गठन नहीं किया गया था कि महिला किस राहत की हकदार होगी या फिर उनका टर्मिनेशन गलत था या फिर उन्हें सर्विस में बरकरार रखा जाए.

पैनल के निष्कर्षों को दोहराते हुए उन्होंने कहा कि गोगोई के खिलाफ लगाए गए आरोप ‘निराधार’ थे. रिपोर्ट को एक जजमेंट के तरीके से लिखा गया था और पैनल के तीनों सदस्य सर्वसम्मति से एक निष्कर्ष पर पहुंचे थे.


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‘कानूनी पेशा महिलाओं के प्रति असंवेदनशील’

बनर्जी ने एक न्यायाधीश के रूप में अपनी 20 साल के सफर और भारत के सबसे व्यस्त उच्च न्यायालयों में से एक ‘कलकत्ता उच्च न्यायालय’ में एक युवा महिला वकील के रूप में उनके सामने आईं चुनौतियों के बारे में भी बात की.

उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम पर भी अपने विचार साझा करते हुए कहा कि नियुक्तियों के लिए किसी ‘स्ट्रैटजैकेट फॉर्मूला’ का पालन नहीं किया जाता है, इसलिए कई ‘बहुत सक्षम वरिष्ठ न्यायाधीश’ शीर्ष अदालत में नहीं पहुंच पाते या फिर उनके जूनियर उन्हें आगे नहीं आने देते.

उनकी राय में ‘नियुक्तियों में सरकार की भूमिका, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं करती है’.

5 फरवरी, 2002 को कलकत्ता उच्च न्यायालय में पदोन्नत, बनर्जी अगस्त 2016 में दिल्ली हाई कोर्ट में जज बनीं. उन्होंने अप्रैल 2017 से 16 महीने तक मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नेतृत्व किया था. 2018 में वह शीर्ष अदालत में जगह बनाने वाली 8वीं महिला न्यायाधीश बनीं.

एक महिला के तौर पर पहली पीढ़ी की इस वकील को अपने सफर की शुरुआत से ही बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ा था. तीन से चार सीनियर की ‘न’ सुनने के बाद बड़ी मुश्किल से उन्हें कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रमुख संवैधानिक वकील समरादित्य पाल और उनकी पत्नी रूमा पाल के साथ काम करने का अवसर मिला, जो आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट में जज बनीं थीं.

इसलिए न्यायमूर्ति बनर्जी न्यायाधीश बनने को ‘पेशे में आने वाली अपरिचित बाधाओं को तोड़ने’ के रूप में नहीं मानती हैं.

उन्होंने कहा, ‘प्रोफेशन में एक ब्रेक मिलना, चुनौतियों और बाधाओं को पार करना ज्यादा मुश्किल था.’

कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कानूनी पेशा महिलाओं के प्रति असंवेदनशील है. वह याद करते हुए बताती हैं, ‘सदस्यों ने शायद ही कभी महिला वकीलों को गंभीरता से लिया हो. काम मिलने में तो समय लगता ही है, लेकिन इसके अलावा सीनियर द्वारा जूनियर वकील का समर्थन करना स्थिति को और मुश्किल बना देता है. अक्सर भद्दे कमेंट, डबल मीनिंग जोक्स और शर्मनाक आरोप का सामना करना आसान नहीं होता.’

उन्होंने कहा, ‘यह अपमानजनक और निराशाजनक हो सकता है. इस प्रोफेशन में कई सीनियर्स बेकार की बातों और मजाक बनाए जाने से बचने के लिए मेधावी महिला जूनियर्स का समर्थन करने में झिझकते हैं.’

महिला होने के नाते और भी बहुत कुछ था, जो उन्हें सहना पड़ा. एक महिला वकील के तौर पर वह अपने क्लाइंट के साथ देर शाम को होने वाली कॉन्फ्रेंस में शामिल नहीं हो सकती थीं क्योंकि उनके लिए देर रात कैब लेना सुरक्षित नहीं था.

चार साल से अधिक समय तक बनर्जी कलकत्ता हाई कोर्ट में अकेली महिला जज थीं. वह याद करते हुए बताती हैं, जब तक बार में उनके नजदीकी समकालीनों को पदोन्नति नहीं मिली थी, तब तक वह लोगों के बीच में अपने आपको अकेला महसूस करती थीं. मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल को वह अपने न्यायिक करियर का सबसे बेहतर समय मानती हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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