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Sunday, 23 November, 2025
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CJI गवई: आंबेडकरवादी जज, जिनकी कलम साफ और सुनवाई सहज थी

भारत के 52वें मुख्य न्यायाधीश ने ‘स्वदेशी इंटरप्रिटेशन’ पर ज़ोर दिया, यानी विदेशी जजमेंट की जगह भारतीय संविधान और कानूनी इतिहास के आधार पर फैसले देना.

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नई दिल्ली: मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने इस साल की शुरुआत में ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में कहा, “कई दशक पहले, भारत के लाखों नागरिकों को ‘अछूत’ कहा जाता था. उन्हें कहा जाता था कि वे अपवित्र हैं. कहा जाता था कि वे यहां के नहीं हैं, लेकिन आज हम यहां हैं, जहां उन्हीं लोगों में से एक व्यक्ति देश की न्यायपालिका के सबसे बड़े पद पर बैठकर खुलकर बोल रहा है.”

पहली पीढ़ी के स्वतंत्र वकील और खुद को घोषित रूप से ‘आंबेडकरवादी’ कहने वाले गवई ने अपनी मुख्य न्यायाधीश बनने की यात्रा 22 साल पहले, नवंबर 2003 में बॉम्बे हाई कोर्ट के अतिरिक्त जज के रूप में शुरू की थी.

मई 2019 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में ऊंचा पद मिला और मई 2025 में वे भारत के 52वें मुख्य न्यायाधीश बने. सुप्रीम कोर्ट में उनके छह साल संघवाद, क्रिमिनल जस्टिस, समानता, पर्यावरण शासन और संस्थागत सुधार जैसे कई बड़े मुद्दों पर आए फैसलों के लिए याद किए जाते हैं.

घर और इतिहास से बनी सोच

अपने पूरे करियर में, गवई ने दो ऐसी ताकतों को स्वीकार किया, जिन्होंने उनके न्याय की समझ को गढ़ा, डॉ. बी.आर. आंबेडकर और उनके पिता आर.एस. गवई, जो दलित नेता थे और 2008 से 2011 तक केरल के राज्यपाल रहे.

गवई ने कहा कि आंबेडकर की संवैधानिक सोच और उनके पिता का जीवन उन्हें यह विश्वास दिलाते थे कि मौलिक अधिकार और नीति-निर्देशक सिद्धांत एक-दूसरे के खिलाफ नहीं, बल्कि साथ-साथ चलने के लिए बनाए गए हैं.

शुक्रवार को दिल्ली में अपने विदाई समारोह में उन्होंने कहा, “मैं इस पद से पूर्ण संतोष और तृप्ति के साथ जा रहा हूं कि मैंने अपने देश और इस संस्था के लिए जो कर सकता था, किया.”

स्वदेशी संवैधानिकतावादी

विदाई समारोह में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने याद किया कि 1970 के दशक में न्यायपालिका उन्हें “एलीट” स्पेस लगती थी, लेकिन आज के जज “धोनी” जैसे हैं, सिब्बल ने यह उदाहरण पूर्व भारतीय कप्तान एम.एस. धोनी के उदय से लेते हुए कहा.

सिब्बल ने कहा, “आप जैसे व्यक्ति का CJI बनना, यह देश के लिए गर्व की बात है.” सिब्बल ने कोर्ट के कामकाज में विविधता को पहचानने और उसे प्रभावी बनाने के लिए जस्टिस गवई की सराहना की.

जस्टिस गवई के सबसे चर्चित और अंतिम फैसलों में से एक था—राज्य सरकारों के विधेयकों पर राज्यपालों के कार्रवाई की समय-सीमा को लेकर दिया गया फैसला. कई लोगों ने कहा कि इस फैसले ने संवैधानिक संघवाद को फिर से मजबूत किया.

गुरुवार को आदेश देने के बाद, जस्टिस गवई ने कहा, “गवर्नर्स वाले फैसले में हमने एक भी विदेशी जजमेंट का इस्तेमाल नहीं किया, हमने स्वदेशी इंटरप्रिटेशन का इस्तेमाल किया.” यह उनके काम करने की शैली को पूरी तरह दिखाता है, संविधान के टेक्स्ट के प्रति वफादारी और विदेशी फैसलों की जगह भारतीय उदाहरणों और इतिहास पर निर्भरता.

इस फैसले में पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को राज्य के विधेयकों पर मंजूरी देने के लिए अदालतें समय-सीमा तय नहीं कर सकतीं. ऐसा करना सत्ता के पृथक्करण (separation of powers) का उल्लंघन होगा और संवैधानिक सीमाओं से बाहर जाना होगा.

जो वकील जस्टिस गवई के सामने पेश हुए हैं, उनका कहना है कि उनके लिए “स्वदेशी संवैधानिकता” कोई दिखावा नहीं, बल्कि उनकी असली कार्यशैली थी.

विस्तृत न्यायिक कैनवास

पिछले छह साल में सुप्रीम कोर्ट में रहते हुए, जस्टिस गवई ने कई महत्वपूर्ण फैसलों को लिखा या उनमें योगदान दिया, जिनमें शामिल हैं: जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने का मामला, इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को खत्म करना और अनुसूचित जातियों के भीतर सब-क्लासिफिकेशन (उप-वर्गीकरण) को अनुमति देना ताकि आरक्षण का बेहतर फायदा मिल सके.

उन्होंने राहुल गांधी की 2023 की आपराधिक मानहानि सज़ा पर भी रोक लगाई थी, एक ऐसा फैसला, जिसे विशेषज्ञ मानते हैं कि उस समय की राजनीति को बदल गया. अगर यह सज़ा जारी रहती, तो कांग्रेस नेता 2024 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ पाते.

सीजेआई बनने के बाद, जस्टिस गवई कई और अहम फैसलों में महत्वपूर्ण रहे.

वे उस सुप्रीम कोर्ट बेंच में थे जिसने इस महीने की शुरुआत में मई का ‘वनशक्ति’ फैसला वापस ले लिया था. उस फैसले में प्रोजेक्ट्स को पीछे से (एक्स पोस्ट-फैक्टो) पर्यावरणीय मंजूरी देने पर रोक लगाई गई थी.

इसी महीने, जस्टिस गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने जिला जजों की नियुक्तियों में आरक्षण बढ़ाने से इनकार किया, यह कहते हुए कि उच्च न्यायिक सेवाओं में किसी तरह की असमान प्रतिनिधित्व की पैटर्न दिखाई नहीं देती.

गवई के कार्यकाल का एक कम चर्चा में रहने वाला लेकिन प्रभावशाली पहलू था, पर्यावरण पर उनका ध्यान. पर्यावरण से जुड़े मामलों में उनकी सोच इस बात पर जोर देती थी कि जंगल सिर्फ पेड़ों का समूह नहीं, बल्कि जीवित पारिस्थितिकी तंत्र हैं, लेकिन उनके आदेश विकास प्रोजेक्ट्स को पूरी तरह रोकते भी नहीं थे.

दिल्ली रिज के मामले में उदाहरण के तौर पर, जस्टिस गवई ने सरकार को निर्देश दिया कि रिज मैनेजमेंट बोर्ड को फिर से सक्रिय किया जाए और उसे असली अधिकार दिए जाएं, एक ऐसा बोर्ड जो दशकों से सिर्फ कागज़ पर था.

हालांकि, वनशक्ति आदेश वापस लेने की आलोचना हुई और इसे भारत की पर्यावरण नीतियों के लिए पीछे का कदम बताया गया, जस्टिस गवई का कहना था कि पर्यावरण मंजूरी कानून के अनुसार ही होनी चाहिए और “प्रोसीजर को शॉर्टकट से नहीं बदला जा सकता”, खासकर जब बात पर्यावरण की हो.

मध्य भारत के जंगलों में आदिवासियों के अधिकारों से जुड़े मामलों में, उन्होंने राज्य सरकारों को याद दिलाया कि फॉरेस्ट राइट्स एक्ट के तहत आदिवासी अधिकार संविधान से मिले अधिकार हैं और किसी भी बेदखली से पहले सरकार को ठोस कारण बताने होंगे.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस साल दिवाली पर दिल्ली में ‘ग्रीन पटाखों’ पर लगी रोक हटाने का आदेश कई लोगों ने ऐसा माना कि इसमें शहर के प्रदूषण संकट का ठीक से ध्यान नहीं रखा गया.

अब बात उन फैसलों की जिन्हें प्रगतिशील माना गया.

सरकारों द्वारा चलाए जा रहे बुलडोजर अभियान पर, जस्टिस गवई ने राज्यों को चेतावनी दी कि बिना कानूनी प्रक्रिया के घर गिराना “कानून के राज की मूल भावना को नष्ट कर देता है.”

और उनकी अदालत द्वारा वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 पर आंशिक रोक लगाने को भी इस रूप में देखा गया कि वे संसद के अधिकारों का सम्मान करते हुए, सरकारी अतिरेक को रोकने के लिए तैयार थे.

साधारण कोर्टरूम

अगर उनकी कानूनी सोच (ज्यूरिसप्रूडेंस) सुर्खियों में रही, तो उनका स्वभाव उनके कार्यकाल की पहचान बना. वरिष्ठ वकीलों के अनुसार, जस्टिस गवई अपनी ऐसे फैसलों के लिए जाने जाते थे जो “छोटे होते थे, लेकिन पूरी तरह स्पष्ट और पूरे मुद्दे को कवर करते थे.” कई लोगों ने कहा कि उनकी अदालतें “नम्र” थीं और वे कभी तमाशे वाली शैली में पेश नहीं आते थे.

दो घटनाएं इस गुण को साफ दिखाती हैं.

इस साल की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट में एक वकील ने जस्टिस गवई पर जूता फेंका. सीजेआई न तो घबराए, न ही गुस्सा हुए. शांत तरीके से उन्होंने मार्शलों को कहा कि वकील को बाहर ले जाएं और फिर सुनवाई सामान्य तरीके से जारी रखी. बाद में उन्होंने उस वकील के खिलाफ अवमानना (कॉनटेम्प्ट) का केस चलाने से भी इनकार कर दिया, ताकि उसे अनावश्यक ध्यान न मिले.

उस वकील ने कहा कि उसने जूता इसलिए फेंका क्योंकि सीजेआई ने एक सुनवाई के दौरान, जहां दावा था कि सीलबंद ढांचे के भीतर मूर्तियां छिपाई गई हैं, यह टिप्पणी की थी: “जाइए, खुद देवता से कहिए कि वह कुछ करें.” यह उनका तरीका था, बिना सबूत वाले दावों को महत्व न देना और कोर्टरूम की चमक-दमक से परे रहकर स्पष्टता से बोलना.

एक ऐसे जज — जो खुद भी सुनते थे और दूसरों को भी सुनने देते थे

गवई अक्सर अपने साथियों से कहते थे कि “बार हमेशा मेरा शिक्षक रहा है.” इसी विश्वास के अनुसार, वह अपने कोर्ट में बहुत धैर्य से सुनवाई करते थे और वकीलों को शायद ही कभी बीच में टोकते थे.

उनके सवाल या टिप्पणियां भी शांत, लेकिन बिल्कुल सटीक होती थीं.

अगस्त 2025 में, सुप्रीम कोर्ट की जिस डिवीजन बेंच में जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन थे, उन्होंने सार्वजनिक तौर पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को निर्देश दिया कि जस्टिस प्रशांत कुमार को आपराधिक मामलों की सुनवाई से हटा दिया जाए क्योंकि उन्होंने एक सिविल विवाद को आपराधिक मामला मान लिया था.

बाद में, उसी बेंच ने यह आदेश वापस ले लिया क्योंकि सीजेआई गवई ने दोनों जजों को लिखकर बताया कि परंपरा के अनुसार हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस ही “रोस्टर का मास्टर” होता है.

उनकी नेतृत्व शैली का एक और पहलू था, छोटी-छोटी इंसानियत भरी बातें, जिनसे उन्हें बहुत सम्मान मिला.

इस साल करवा चौथ पर, कोर्ट रजिस्ट्री की महिला कर्मचारियों के औपचारिक अनुरोध के बाद, जस्टिस गवई ने एक सर्कुलर जारी किया, जिसमें महिलाओं को कहा गया कि वे यूनिफॉर्म की जगह परंपरागत-सादे कपड़े पहनकर ऑफिस आ सकती हैं.

विविधता को बढ़ावा, लेकिन कमियां बरकरार

मुख्य न्यायाधीश के रूप में, जस्टिस गवई ने सामूहिक ईमानदारी की बात की. जून में, उन्होंने यूके सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि उन्होंने और उनके साथियों ने “सार्वजनिक रूप से यह वादा किया है” कि वे रिटायरमेंट के बाद सरकार से कोई पद नहीं लेंगे, ताकि जनता का भरोसा बना रहे.

लेकिन उनका कार्यकाल यह भी दिखाता है कि कुछ प्रणालीगत चुनौतियां जल्दी हल नहीं होतीं.

सीजेआई रहते हुए, हाई कोर्ट में नियुक्तियों के लिए 129 नाम भेजे गए, जिनमें से 93 नाम मंज़ूर हुए. फिर भी, विविधता (डाइवर्सिटी) की वकालत करने के बावजूद, उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में एक भी महिला जज की नियुक्ति नहीं हुई, जिसका ज़िक्र वकीलों और आम लोगों ने भी किया.

मई में जब वह सीजेआई बने, तब सुप्रीम कोर्ट में करीब 82,000 मामले लंबित थे. 19 नवंबर 2025 तक यह संख्या बढ़कर 90,167 हो गई, जिसका बड़ा कारण भारी संख्या में नए केसों का आना और गर्मियों में कोर्ट का सीमित रूप से चल पाना बताया गया.

65 साल के होने पर, जब जस्टिस गवई सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो रहे हैं, तो उनकी विरासत किसी बड़े बदलाव पर नहीं, बल्कि मज़बूत गुणों पर टिकी है, स्पष्ट लेखन, विनम्र व्यवहार, आंबेडकरवादी सोच और स्वदेशी संवैधानिक व्याख्या. ये वे मूल्य हैं जो मुश्किल और टकराव भरे समय में भी न्यायपालिका को स्थिरता देते हैं.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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